मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड) रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना और सर्वत्र शोक देखना
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी।
खग मृग सुर तापस हितकारी॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा।
सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥
खग मृग सुर तापस हितकारी॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा।
सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥
पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं-मैंने श्रीरामचन्द्रजी का सुन्दर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमन्त्र अयोध्या में आये वह [कथा] सुनो॥२॥
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई।
सचिव सहित रथ देखेसि आई॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू।
कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥
सचिव सहित रथ देखेसि आई॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू।
कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥
प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको पहुँचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथको मन्त्री (सुमन्त्र) सहित देखा। मन्त्रीको व्याकुल देखकर निषादको जैसा दुःख हुआ, वह कहा नहीं जाता॥३॥
राम राम सिय लखन पुकारी।
परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं।
जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥
परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं।
जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥
[निषादको अकेले आया देखकर] सुमन्त्र हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल होकर धरतीपर गिर पड़े। [रथके] घोड़े दक्षिण दिशा की ओर [जिधर श्रीरामचन्द्रजी गये थे] देख-देखकर हिनहिनाते हैं। मानो बिना पंखके पक्षी व्याकुल हो रहे हों॥४॥
दो०- नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥१४२॥
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥१४२॥
वे न तो घास चरते हैं,न पानी पीते हैं। केवल आँखों से जल बहा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजी के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गये॥१४२॥
धरि धीरजु तब कहइ निषादू।
अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता।
धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥
अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता।
धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥
तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा-हे सुमन्त्रजी! अब विषाद को छोड़िये। आप पण्डित और परमार्थके जाननेवाले हैं। विधाताको प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिये॥१॥
बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी।
रथ बैठारेउ बरबस आनी॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी।
रघुबर बिरह पीर उर बाँ
की॥
रथ बैठारेउ बरबस आनी॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी।
रघुबर बिरह पीर उर बाँ
की॥
कोमल वाणी से भाँति-भाँति की कथाएँ कहकर निषाद ने जबर्दस्ती लाकर सुमन्त्रको रथपर बैठाया। परन्तु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गये कि रथ को हाँक नहीं सकते। उनके हृदयमें श्रीरामचन्द्रजीके विरहकी बड़ी तीव्र वेदना है॥२॥
चरफराहिं मग चलहिं न घोरे।
बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥
अढ़कि परहिं फिरि हेरहिं पीछे।
राम बियोगि बिकल दुख तीछे।
बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥
अढ़कि परहिं फिरि हेरहिं पीछे।
राम बियोगि बिकल दुख तीछे।
घोड़े तड़फड़ाते हैं और [ठीक] रास्ते पर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिये गये हों। वे श्रीरामचन्द्रजी के वियोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दुःखसे व्याकुल हैं॥ ३॥
जो कह रामु लखनु बैदेही।
हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही।
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती।
बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती॥
हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही।
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती।
बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती॥
जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोड़ों की विरह दशा कैसे कही जा सकती है?
वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे मणिके बिना साँप व्याकुल होता है॥४॥
दो०- भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥१४३॥
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥१४३॥
मन्त्री और घोड़ोंकी यह दशा देखकर निषादराज विषादके वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथीके साथ कर दिये॥१४३।।।
गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई।
बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा।
होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥
बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा।
होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥
निषादराज गुह सारथी (सुमन्त्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःखका वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवधको चले। [सुमन्त्र और घोड़ोंको देख-देखकर] वे भी क्षण-क्षणभर विषादमें डूबे जाते थे॥१॥
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