मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड) रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
दशरथ-सुमन्त्र-संवाद, दशरथ-मरण
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती।
जनु जरि पंख परेउ संपाती।
राम राम कह राम सनेही।
पुनि कह राम लखन बैदेही॥
जनु जरि पंख परेउ संपाती।
राम राम कह राम सनेही।
पुनि कह राम लखन बैदेही॥
राजा क्षण-क्षणमें सोचसे छाती भर लेते हैं। ऐसी विकल दशा है मानो [गीधराज जटायुका भाई] सम्पाती पंखोंके जल जानेपर गिर पड़ा हो। राजा [बार-बार] 'राम, राम', 'हा स्नेही (प्यारे) राम!' कहते हैं, फिर 'हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी' ऐसा कहने लगते हैं॥४॥
दो०- देखि सचिव जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥१४८॥
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥१४८॥
मन्त्रीने देखकर 'जयजीव' कहकर दण्डवत्-प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले-सुमन्त्र! कहो, राम कहाँ हैं ?॥ १४८॥
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई।
बूड़त कछु अधार जनु पाई।
सहित सनेह निकट बैठारी।
पूँछत राउ नयन भरि बारी॥
बूड़त कछु अधार जनु पाई।
सहित सनेह निकट बैठारी।
पूँछत राउ नयन भरि बारी॥
राजा ने सुमन्त्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मन्त्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा
पूछने लगे-॥१॥
राम कुसल कहु सखा सनेही।
कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए।
सुनत सचिव लोचन जल छाए॥
कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए।
सुनत सचिव लोचन जल छाए॥
हे मेरे प्रेमी सखा! श्रीरामकी कुशल कहो। बताओ, श्रीराम,लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाये हो कि वे वनको चले गये? यह सुनते ही मन्त्रीके नेत्रोंमें जल भर आया॥२॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू।
कहु सिय राम लखन संदेसू॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ।
सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥
कहु सिय राम लखन संदेसू॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ।
सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥
शोकसे व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे---सीता, राम और लक्ष्मण का सँदेसा तो कहो। श्रीरामचन्द्रजीके रूप, गुण, शील और स्वभावको याद कर-करके राजा हृदयमें सोच करते हैं॥३॥
राउ सुनाई दीन्ह बनबासू।
सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना।
को पापी बड़ मोहि समाना।
सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना।
को पापी बड़ मोहि समाना।
[और कहते हैं--] मैंने राजा होनेकी बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मनमें हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्रके बिछुड़नेपर भी मेरे प्राण नहीं गये, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा?॥४॥
दो०- सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥१४९।।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥१४९।।
हे सखा! श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। नहीं तो मैं सत्य भावसे कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं। १४९॥
पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ।
प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ।
रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥
प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ।
रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥
राजा बार-बार मन्त्री से पूछते हैं--मेरे प्रियतम पुत्रों का सँदेसा सुनाओ। हे सखा ! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आँखों
दिखा दो॥१॥
सचिव धीर धरि कह मृदु बानी।
महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा।
साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।
महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा।
साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।
मन्त्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले-महाराज! आप पण्डित और ज्ञानी हैं। हे देव! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान् पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओंके समाजका सेवन किया है॥२॥
जनम मरन सब दुख सुख भोगा।
हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा।
काल करम बस होहिं गोसाईं।
बरबस राति दिवस की नाईं।
हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा।
काल करम बस होहिं गोसाईं।
बरबस राति दिवस की नाईं।
जन्म-मरण, सुख-दुःखके भोग, हानि-लाभ, प्यारोंका मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्मके अधीन रात और दिनकी तरह बरबस होते रहते हैं॥३॥
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं।
दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी।
छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥
दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी।
छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥
मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिये और शोक का परित्याग कीजिये॥४॥
दो०-- प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥१५०॥
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥१५०॥
श्रीरामजीका पहला निवास (मुकाम) तमसा के तटपर हुआ, दूसरा गङ्गातीरपर। सीताजीसहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे॥१५०॥
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई।
सो जामिनि सिंगरौर गवाँई।
होत प्रात बट छीरु मगावा।
जटा मुकुट निज सीस बनावा॥
सो जामिनि सिंगरौर गवाँई।
होत प्रात बट छीरु मगावा।
जटा मुकुट निज सीस बनावा॥
केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर (शृंगवेरपुर) में ही बितायी। दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़का दूध मँगवाया और उससे श्रीराम-लक्ष्मणने
अपने सिरोंपर जटाओंके मुकुट बनाये॥१॥
राम सखाँ तब नाव मगाई।
प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई।
आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।
प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई।
आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।
तब श्रीरामचन्द्रजीके सखा निषादराजने नाव मँगवायी। पहले प्रिया सीताजीको उसपर चढ़ाकर फिर श्रीरघुनाथजी चढ़े। फिर लक्ष्मणजीने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े॥२॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा।
बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू।
बार बार पद पंकज गहेहू॥
बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू।
बार बार पद पंकज गहेहू॥
मुझे व्याकुल देखकर श्रीरामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले-हे तात! पिताजीसे मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओरसे बार-बार उनके चरणकमल पकड़ना॥३॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी।
तात करिअ जनि चिंता मोरी॥
बन मग मंगल कुसल हमारें।
कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।
तात करिअ जनि चिंता मोरी॥
बन मग मंगल कुसल हमारें।
कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।
फिर पाँव पकड़कर विनती करना कि हे पिताजी! आप मेरी चिन्ता न कीजिये। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्यसे वनमें और मार्गमें हमारा कुशल-मङ्गल होगा॥४॥
छं०- तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥
हे पिताजी! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊँगा। आज्ञाका भलीभाँति पालन करके चरणोंका दर्शन करने कुशलपूर्वक फिर लौट आऊँगा। सब माताओंके पैरों पड़-पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके तुलसीदास कहते हैं-तुम वही प्रयत्न करना जिसमें कोसलपति पिताजी कुशल रहें।
सो०- गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥१५१॥
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥१५१॥
बार-बार चरणकमलों को पकड़कर गुरु वसिष्ठजी से मेरा सँदेसा कहना कि वे वही उपदेश दें जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें। १५१॥
पुरजन परिजन सकल निहोरी।
तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी।
जातें रह नरनाहु सुखारी॥
तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी।
जातें रह नरनाहु सुखारी॥
हे तात! सब पुरवासियों और कुटुम्बियोंसे निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकारसे हितकारी है जिसकी चेष्टासे महाराज
सुखी रहें॥१॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ।
नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।
पालेहु प्रजहि करम मन बानी।
सेएहु मातु सकल सम जानी॥
नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।
पालेहु प्रजहि करम मन बानी।
सेएहु मातु सकल सम जानी॥
भरत के आने पर उनको मेरा सँदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना; कर्म, वचन और मनसे प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना॥२॥
ओर निबाहेहु भायप भाई।
करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ।
सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥
करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ।
सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥
और हे भाई! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपने को अन्त तक निबाहना। हे तात! राजा (पिताजी) को उसी प्रकारसे रखना जिससे वे कभी (किसी तरह भी) मेरा सोच न करें॥३॥
लखन कहे कछु बचन कठोरा।
बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बार बार निज सपथ देवाई।
कहबि न तात लखन लरिकाई॥
बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बार बार निज सपथ देवाई।
कहबि न तात लखन लरिकाई॥
लक्ष्मणजीने कुछ कठोर वचन कहे। किन्तु श्रीरामजीने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार-बार अपनी सौगंध दिलायी [और कहा-] हे तात! लक्ष्मणका लड़कपन वहाँ न कहना॥४॥
दो०- कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥१५२॥
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥१५२॥
प्रणामकर सीताजी भी कुछ कहने लगी थीं, परन्तु स्नेहवश वे शिथिल हो गयीं। उनकी वाणी रुक गयी, नेत्रोंमें जल भर आया और शरीर रोमाञ्चसे व्याप्त हो गया॥१५२॥
तेहि अवसर रघुबर रुख पाई।
केवट पारहि नाव चलाई॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती।
देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥
केवट पारहि नाव चलाई॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती।
देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥
उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जानेके लिये नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंशतिलक श्रीरामचन्द्रजी चल दिये और मैं छातीपर वज्र रखकर खड़ा खड़ा देखता रहा॥१॥
मैं आपन किमि कहौं कलेसू।
जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ।
हानि गलानि सोच बस भयऊ।
जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ।
हानि गलानि सोच बस भयऊ।
मैं अपने क्लेश को कैसे कहूँ, जो श्रीरामजी का यह सँदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर मन्त्री की वाणी रुक गयी (वे चुप हो गये) और वे हानि की ग्लानि और सोच के वश हो गये॥२॥
सूत बचन सुनतहिं नरनाहू।
परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा।
माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥
परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा।
माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥
सारथी सुमन्त्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वीपर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। मानो मछली को माँजा व्याप गया हो (पहली वर्षाका जल लग गया हो)॥३॥
करि बिलाप सब रोवहिं रानी।
महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा।
धीरजहू कर धीरजु भागा॥
महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा।
धीरजहू कर धीरजु भागा॥
सब रानियाँ विलाप करके रो रही हैं। उस महान् विपत्तिका कैसे वर्णन किया जाय? उस समयके विलापको सुनकर दुःखको भी दुःख लगा और धीरजका भी धीरज भाग गया!॥४॥
दो०- भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँकुलिस कठोरु॥१५३॥
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँकुलिस कठोरु॥१५३॥
राजाके रावले (रनिवास) में [रोनेका] शोर सुनकर अयोध्याभरमें बड़ा भारी कुहराम मच गया! [ऐसा जान पड़ता था] मानो पक्षियोंके विशाल वनमें रातके समय कठोर वज्र गिरा हो। १५३।।
प्रान कंठगत भयउ भुआलू।
मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी।
जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥
मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी।
जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥
राजाके प्राण कण्ठमें आ गये। मानो मणिके बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो। इन्द्रियाँ सब बहुत ही विकल हो गयीं, मानो बिना जलके तालाबमें कमलोंका वन मुरझा गया हो॥१॥
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना।
रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी।
बोली बचन समय अनुसारी॥
रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी।
बोली बचन समय अनुसारी॥
कौसल्याजीने राजाको बहुत दु:खी देखकर अपने हृदयमें जान लिया कि अब सूर्यकुलका सूर्य अस्त हो चला! तब श्रीरामचन्द्रजीकी माता कौसल्या हृदयमें धीरज धरकर समयके अनुकूल वचन बोलीं-॥२॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू।
राम बियोग पयोधि अपारू।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू।
चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥
राम बियोग पयोधि अपारू।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू।
चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥
हे नाथ! आप मनमें समझकर विचार कीजिये कि श्रीरामचन्द्रका वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार (खेनेवाले) हैं। सब प्रियजन (कुटुम्बी और प्रजा) ही यात्रियोंका समाज है, जो इस जहाजपर चढ़ा हुआ है॥३॥
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू।
नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू।
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी।
रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥
नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू।
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी।
रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥
आप धीरज धरियेगा, तो सब पार पहुँच जायँगे। नहीं तो सारा परिवार डूब जायगा। हे प्रिय स्वामी ! यदि मेरी विनती हृदयमें धारण कीजियेगा तो श्रीराम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे॥ ४॥
दो०- प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उधारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥१५४॥
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥१५४॥
प्रिय पत्नी कौसल्याके कोमल वचन सुनते हुए राजाने आँखें खोलकर देखा! मानो तड़पती हुई दीन मछलीपर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो॥ १५४॥
धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू।
कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही।
कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही।
कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही।
कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही।
धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले-सुमन्त्र! कहो, कृपालु श्रीराम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?॥१॥
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती।
भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अंध साप सुधि आई।
कौसल्यहि सब कथा सुनाई।
भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अंध साप सुधि आई।
कौसल्यहि सब कथा सुनाई।
राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकारसे विलाप कर रहे हैं। वह रात युगके समान बड़ी हो गयी, बीतती ही नहीं। राजाको अंधे तपस्वी (श्रवणकुमारके पिता) के शापकी याद आ गयी। उन्होंने सब कथा कौसल्याको कह सुनायी॥२॥
भयउ बिकल बरनत इतिहासा।
राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा।
जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा।।
राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा।
जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा।।
उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गये और कहने लगे कि श्रीराम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा जिसने मेरा प्रेमका प्रण नहीं निबाहा?॥३॥
हा रघुनंदन प्रान पिरीते।
तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर।
हा पितु हित चित चातक जलधर॥
तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर।
हा पितु हित चित चातक जलधर॥
हा रघुकुल को आनन्द देने वाले मेरे प्राणप्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गये। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवर! हा पिता के चित्तरूपी चातक के हित करनेवाले मेघ!॥४॥
दो०- राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम॥
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥१५५॥
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥१५५॥
राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्रीराम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गये॥१५५॥
जिअन मरन फलु दसरथ पावा।
अंड अनेक अमल जसु छावा॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा।
राम बिरह करि मरनु सँवारा॥
अंड अनेक अमल जसु छावा॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा।
राम बिरह करि मरनु सँवारा॥
जीने और मरनेका फल तो दशरथजीने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्माण्डोंमें छा गया। जीते-जी तो श्रीरामचन्द्रजीके चन्द्रमाके समान मुखको देखा और श्रीरामके विरहको निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया॥१॥
सोक बिकल सब रोवहिं रानी।
रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा।
परहिं भूमितल बारहिं बारा॥
रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा।
परहिं भूमितल बारहिं बारा॥
सब रानियाँ शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही हैं। वे राजा के रूप, शील, बल और तेजका बखान कर-करके अनेकों प्रकारसे विलाप कर रही हैं और बार-बार धरतीपर गिर-गिर पड़ती हैं।। २।।
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी।
घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू।
धरम अवधि गुन रूप निधानू॥
घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू।
धरम अवधि गुन रूप निधानू॥
दास-दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगरनिवासी घर-घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज धर्मकी सीमा, गुण और रूपके भण्डार सूर्यकुलके सूर्य
अस्त हो गये!॥३॥
गारी सकल कैकइहि देहीं।
नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी।
आए सकल महामुनि ग्यानी॥
नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी।
आए सकल महामुनि ग्यानी॥
सब कैकेयीको गालियाँ देते हैं, जिसने संसारभर को बिना नेत्र का (अंधा) कर दिया! इस प्रकार विलाप करते रात बीत गयी। प्रात:काल सब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि आये॥४॥
दो०- तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥१५६॥
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥१५६॥
तब वसिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया॥१५६॥
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