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रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

श्रीराम-कौसल्या-संवाद



दो०-- नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥५१॥

श्रीरामचन्द्रजीका मन नये पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथीके बाँधने की काँटेदार लोहे की बेड़ी के समान है। 'वन जाना है' यह सुनकर, अपने को बन्धन से छूटा जानकर, उनके हृदयमें आनन्द बढ़ गया है। ५१॥

रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा।
मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे।
भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥

रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजीने दोनों हाथ जोड़कर आनन्दके साथ माताके चरणोंमें सिर नवाया। माताने आशीर्वाद दिया, अपने हृदयसे लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किये॥१॥

बार बार मुख चुंबति माता।
नयन नेह जलु पुलकित गाता॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए।
स्त्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥


माता बार-बार श्रीरामचन्द्रजीका मुख चूम रही हैं। नेत्रोंमें प्रेमका जल भर आया है और सब अङ्ग पुलकित हो गये हैं। श्रीरामको अपनी गोदमें बैठाकर फिर हृदयसे लगा लिया। सुन्दर स्तन प्रेमरस (दूध) बहाने लगे॥२॥

प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई।
रंक धनद पदबी जनु पाई॥
सादर सुंदर बदनु निहारी।
बोली मधुर बचन महतारी॥


उनका प्रेम और महान् आनन्द कुछ कहा नहीं जाता। मानो कंगालने कुबेरका पद पा लिया हो। बड़े आदरके साथ सुन्दर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं--॥३॥

कहहु तात जननी बलिहारी।
कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई।
जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥


हे तात! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनन्द-मङ्गलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुखकी सुन्दर सीमा है और जन्म लेनेके लाभकी पूर्णतम अवधि है;॥४॥

दो०- जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥५२॥


तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष अत्यन्त व्याकुलतासे इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्याससे चातक और चातकी शरद्-ऋतुके स्वातिनक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं॥५२॥

तात जाउँ बलि बेगि नहाहू।
जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ।
भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ।


हे तात ! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गयी है, माता बलिहारी जाती है॥१॥

मातु बचन सुनि अति अनुकूला।
जनु सनेह सुरतरु के फूला॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला।
निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥


माता के अत्यन्त अनुकूल वचन सुनकर-जो मानो स्नेहरूपी कल्पवृक्षके फूल थे, जो सुखरूपी मकरन्द (पुष्परस) से भरे थे और श्री (राजलक्ष्मी) के मूल थे-ऐसे वचनरूपी फूलोंको देखकर श्रीरामचन्द्रजीका मनरूपी भौंरा उनपर नहीं भूला॥२॥

धरम धुरीन धरम गति जानी।
कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू।
जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥


धर्मधुरीण श्रीरामचन्द्रजीने धर्मको गतिको जानकर मातासे अत्यन्त कोमल वाणीसे कहा-हे माता! पिताजीने मुझको वनका राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकारसे मेरा बड़ा काम बननेवाला है॥३॥

आयसु देहि मुदित मन माता।
जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें।
आनँदु अंब अनुग्रह तोरें।


हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वनयात्रा में आनन्द-मङ्गल हो। मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं। हे माता! तेरी कृपासे आनन्द ही होगा॥४॥

दो०- बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥५३॥


चौदह वर्ष वनमें रहकर, पिताजीके वचनको प्रमाणित (सत्य) कर, फिर लौटकर तेरे चरणोंका दर्शन करूँगा; तू मनको म्लान (दुःखी) न कर॥५३॥

बचन बिनीत मधुर रघुबर के।
सर सम लगे मातु उर करके।
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी।
जिमि जवास परें पावस पानी॥


रघुकुलमें श्रेष्ठ श्रीरामजीके ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माताके हृदयमें बाणके समान लगे और कसकने लगे। उस शीतल वाणीको सुनकर कौसल्या वैसे ही सहमकर सूख गयीं जैसे बरसात का पानी पड़ने से जवासा सूख जाता है।। १॥

कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू।
मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥
नयन सजल तन थर थर काँपी।
माजहि खाइ मीन जनु मापी॥


हृदयका विषाद कुछ कहा नहीं जाता। मानो सिंहकी गर्जना सुनकर हिरनी विकल हो गयी हो। नेत्रोंमें जल भर आया, शरीर थर-थर काँपने लगा। मानो मछली माँजा (पहली वर्षाका फेन) खाकर बदहवास हो गयी हो!॥२॥

धरि धीरजु सुत बदनु निहारी।
गदगद बचन कहति महतारी॥
तात पितहि तुम्ह प्रान पिआरे।
देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥


धीरज धरकर, पुत्र का मुख देखकर माता गद्गद वचन कहने लगी-हे तात! तुम तो पिता को प्राणों के समान प्रिय हो। तुम्हारे चरित्रों को देखकर वे नित्य प्रसन्न होते थे॥३॥

राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा।
कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥
तात सुनावहु मोहि निदानू।
को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥


राज्य देनेके लिये उन्होंने ही शुभ दिन सोधवाया था। फिर अब किस अपराधसे वन जानेको कहा? हे तात! मुझे इसका कारण सुनाओ! सूर्यवंश [रूपी वन] को जलानेके लिये अग्नि कौन हो गया?॥४॥

दो०- निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥५४॥

तब श्रीरामचन्द्रजीका रुख देखकर मन्त्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा। उस प्रसंगको सुनकर वे गूंगी-जैसी (चुप) रह गयीं, उनकी दशाका वर्णन नहीं किया जा सकता॥५४॥

राखि न सकइ न कहि सक जाहू।
दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू।
बिधि गति बाम सदा सब काहू॥

न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकारसे हृदयमें बड़ा भारी सन्ताप हो रहा है। [मनमें सोचती हैं कि देखो-] विधाता की चाल सदा सबके लिये टेढ़ी होती है। लिखने लगे चन्द्रमा और लिख गया राहु!॥१॥

धरम सनेह उभयँ मति घेरी।
भइ गति साँप छुछुदरि केरी॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू।
धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥


धर्म और स्नेह दोनोंने कौसल्याजी की बुद्धि को घेर लिया। उनकी दशा साँप छछूदरकी-सी हो गयी। वे सोचने लगीं कि यदि मैं अनुरोध (हठ) करके पुत्र को रख लेती हूँ तो धर्म जाता है और भाइयों में विरोध होता है;॥२॥

कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी।
संकट सोच बिबस भइ रानी॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी।
रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥


और यदि वन जानेको कहती हूँ तो बड़ी हानि होती है। इस प्रकारके धर्म संकटमें पड़कर रानी विशेषरूपसे सोचके वश हो गयीं। फिर बुद्धिमती कौसल्याजी स्त्री-धर्म (पातिव्रत-धर्म) को समझकर और राम तथा भरत दोनों पुत्रोंको समान जानकर-॥३॥

सरल सुभाउ राम महतारी।
बोली बचन धीर धरि भारी॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका।
पितु आयसु सब धरमक टीका।।


सरल स्वभाववाली श्रीरामचन्द्रजीकी माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोलीं-हे तात! मैं बलिहारी जाती हूँ, तुमने अच्छा किया। पिताकी आज्ञाका पालन करना ही सब धर्मोंका शिरोमणि धर्म है॥४॥

दो०- राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥५५॥


राज्य देनेको कहकर वन दे दिया, उसका मुझे लेशमात्र भी दुःख नहीं है। [दुःख तो इस बातका है कि] तुम्हारे बिना भरतको, महाराजको और प्रजाको बड़ा भारी क्लेश होगा।। ५५॥

जौं केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना।
तौ कानन सत अवध समाना।


हे तात! यदि केवल पिताजीकी ही आज्ञा हो, तो माताको [पितासे] बड़ी जानकर वनको मत जाओ। किन्तु यदि पिता-माता दोनोंने वन जानेको कहा हो, तो वन तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्याके समान है॥१॥

पितु बनदेव मातु बनदेवी।
खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू।
बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥


वनके देवता तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियाँ माता होंगी। वहाँके पशु-पक्षी तुम्हारे चरण-कमलोंके सेवक होंगे। राजाके लिये अन्तमें तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी [सुकुमार] अवस्था देखकर हृदयमें दुःख होता है॥२॥

बड़भागी बनु अवध अभागी।
जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥
जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू।
तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥


हे रघुवंशके तिलक! वन बड़ा भाग्यवान् है और यह अवध अभागी है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र! यदि मैं कहूँ कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदयमें सन्देह होगा [कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं]॥३॥

पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के।
प्रान प्रान के जीवन जी के॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ।
मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥


हे पुत्र! तुम सभीके परम प्रिय हो। प्राणोंके प्राण और हृदयके जीवन हो। वही प्राणाधार) तुम कहते हो कि माता ! मैं वन को जाऊँ और मैं तुम्हारे वचनों को सुनकर बैठी पछताती हूँ!॥४॥
 
दो०- यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥५६॥


यह सोचकर झूठा स्नेह बढ़ाकर मैं हठ नहीं करती। बेटा ! मैं बलैया लेती हूँ, माताका नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना॥५६॥

देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं।
राखहुँ पलक नयन की नाईं।
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना।
तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥


हे गोसाईं ! सब देव और पितर तुम्हारी वैसे ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवास की अवधि (चौदह वर्ष) जल है, प्रियजन और कुटुम्बी मछली हैं। तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हो॥१॥

अस बिचारि सोइ करहु उपाई।
सबहि जिअत जेहिं भेंटहु आई॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ।
करि अनाथ जन परिजन गाऊँ।


ऐसा विचारकर वही उपाय करना जिसमें सबके जीते-जी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम सेवकों, परिवारवालों और नगरभरको अनाथ करके सुखपूर्वक वनको जाओ॥२॥

सब कर आजु सुकृत फल बीता।
भयउ कराल कालु बिपरीता॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी।
परम अभागिनि आपुहि जानी॥


आज सबके पुण्योंका फल पूरा हो गया! कठिन काल हमारे विपरीत हो गया। [इस प्रकार] बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनी जानकर माता श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में लिपट गयीं॥३॥

दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा।
बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥
राम उठाइ मातु उर लाई।
कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।


हृदयमें भयानक दुःसह संताप छा गया। उस समय के बहुविध विलापका वर्णन नहीं किया जा सकता। श्रीरामचन्द्रजीने माताको उठाकर हृदयसे लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें समझाया।॥४॥

दो०- समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥५७॥


उसी समय यह समाचार सुनकर सीताजी अकुला उठी और सासके पास जाकर उनके दोनों चरणकमलोंकी वन्दना कर सिर नीचा करके बैठ गयीं॥५७॥

दीन्हि असीस सासु मृदु बानी।
अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥
बैठि नमितमुख सोचति सीता।
रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥


सास ने कोमल वाणीसे आशीर्वाद दिया। वे सीताजीको अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूपकी राशि और पतिके साथ पवित्र प्रेम करनेवाली सीताजी नीचा मुख किये बैठी सोच रही हैं॥१॥

चलन चहत बन जीवन नाथू।
केहि सुकृती सन होइहि साथू॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना।
बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।


जीवननाथ (प्राणनाथ) वनको चलना चाहते हैं। देखें किस पुण्यवान्से उनका साथ होगा-शरीर और प्राण दोनों साथ जायँगे या केवल प्राणहीसे इनका साथ होगा? विधाताकी करनी कुछ जानी नहीं जाती॥२॥

चारु चरन नख लेखति धरनी।
नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं।
हमहि सीय पद जनि परिहरहीं।


सीताजी अपने सुन्दर चरणों के नख से धरती कुरेद रही हैं। ऐसा करते समय नूपुरों का जो मधुर शब्द हो रहा है, कवि उसका इस प्रकार वर्णन करते हैं कि मानो प्रेम के वश होकर नूपुर यह विनती कर रहे हैं कि सीताजी के चरण कभी हमारा त्याग न करें॥३॥

मंजु बिलोचन मोचति बारी।
बोली देखि राम महतारी॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी।
सास ससुर परिजनहि पिआरी॥


सीताजी सुन्दर नेत्रोंसे जल बहा रही हैं। उनकी यह दशा देखकर श्रीरामजीकी माता कौसल्याजी बोलीं-हे तात! सुनो, सीता अत्यन्त ही सुकुमारी हैं तथा सास, ससुर और कुटुम्बी सभीको प्यारी हैं॥४॥

दो०- पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥५८॥

इनके पिता जनकजी राजाओं के शिरोमणि हैं; ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन को खिलानेवाले चन्द्रमा तथा गुण और रूप के भण्डार हैं। ५८॥

मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई।
रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई।
राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।


फिर मैंने रूपकी राशि, सुन्दर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पायी है। मैंने इन (जानकी)को आँखोंकी पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं॥१॥

कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली।
सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा।
जानि न जाइ काह परिनामा॥


इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरहसे बड़े लाड़-चावके साथ स्नेहरूपी जलसे सींचकर पाला है। अब इस लता के फूलने-फलनेके समय विधाता वाम हो गये। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा॥२॥

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा।
सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ।
दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥


सीता ने पर्यपृष्ठ (पलंगके ऊपर), गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वीपर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा सञ्जीवनी जड़ी के समान [सावधानीसे] इनकी रखवाली करती रही हूँ! कभी दीपक की बत्ती हटानेको भी नहीं कहती॥३॥

सोइ सिय चलन चहति बन साथा।
आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी।
रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥


वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चन्द्रमाकी किरणोंका रस (अमृत) चाहने वाली चकोरी सूर्य की ओर आँख किस तरह मिला सकती है॥ ४॥

दो०- करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥५९॥


हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव-जन्तु वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र! क्या विष की वाटिका में सुन्दर सञ्जीवनी बूटी शोभा पा सकती है?॥ ५९॥

बन हित कोल किरात किसोरी।
रची बिरंचि बिषय सुख भोरी।
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ।
तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥


वन के लिये तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जाननेवाली कोल और भीलोंकी लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थरके कीड़े-जैसा कठोर स्वभाव है। उन्हें वनमें कभी क्लेश नहीं होता।। १॥

कै तापस तिय कानन जोगू।
जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती।
चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥


अथवा तपस्वियोंकी स्त्रियाँ वनमें रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्याके लिये सब भोग तज दिये हैं। हे पुत्र! जो तसवीरके बन्दरको देखकर डर जाती हैं वे सीता वनमें किस तरह रह सकेंगी?॥२॥

सुरसर सुभग बनज बन चारी।
डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥
अस बिचारि जस आयसु होई।
मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥


देवसरोवर के कमलवन में विचरण करने वाली हंसिनी क्या गडैयों (तलैयों) में रहनेके योग्य है ? ऐसा विचारकर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकीको वैसी ही शिक्षा दूँ॥३॥

जौं सिय भवन रहै कह अंबा।
मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।।
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी।
सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥


माता कहती हैं-यदि सीता घर में रहें तो मुझको बहुत सहारा हो जाय। श्रीरामचन्द्रजी ने माता की प्रिय वाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेहरूपी अमृत से सनी हुई थी,॥४॥

दो०- कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥६०॥


विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को सन्तुष्ट किया। फिर वनके गुण-दोष प्रकट करके वे जानकीजीको समझाने लगे॥६०॥

मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम


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