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			 मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड) रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
    
    
नाक कान बिनु भइ बिकरारा । 
जनु स्त्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता।
धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥
    
    जनु स्त्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता।
धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥
बिना नाक-कानके वह विकराल हो गयी। [उसके शरीरसे रक्त इस प्रकार बहने लगा] मानो [काले] पर्वतसे गेरूकी धारा बह रही हो। वह विलाप करती हुई खर दूषणके पास गयी। [और बोली-] हे भाई! तुम्हारे पौरुष (वीरता) को धिक्कार है, तुम्हारे बलको धिक्कार है॥१॥
तेहिं पूछा सब कहेसि बुलाई। 
जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा।
जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा।
    
    जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा।
जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा।
उन्होंने पूछा, तब शूर्पणखाने सब समझाकर कहा। सब सुनकर राक्षसोंने सेना तैयार की। राक्षस-समूह झुंड-के-झुंड दौड़े। मानो पंखधारी काजलके पर्वतोंका झुंड हो॥२॥
नाना बाहन नानाकारा । 
नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी।
असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥
    नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी।
असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥
वे अनेकों प्रकारकी सवारियोंपर चढ़े हुए तथा अनेकों आकार (सूरतों) के हैं। वे अपार हैं और अनेकों प्रकारके असंख्य भयानक हथियार धारण किये हुए हैं। उन्होंने नाक-कान कटी हुई अमङ्गलरूपिणी शूर्पणखाको आगे कर लिया॥३॥
 असगुन अमित होहिं भयकारी । 
गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं ।
देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥
    
    गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं ।
देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥
अनगिनत भयङ्कर अशकुन हो रहे हैं। परन्तु मृत्युके वश होनेके कारण वे सब के-सब उनको कुछ गिनते ही नहीं। गरजते हैं, ललकारते हैं और आकाशमें उड़ते हैं। सेना देखकर योद्धालोग बहुत ही हर्षित होते हैं ॥ ४॥
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। 
धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा ।
राम बोलाइ अनुज सन कहा।
    
    धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा ।
राम बोलाइ अनुज सन कहा।
कोई कहता है दोनों भाइयोंको जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और स्त्रीको छीन लो। आकाशमण्डल धूलसे भर गया। तब श्रीरामजीने लक्ष्मणजीको बुलाकर उनसे कहा--- |॥ ५॥
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर । 
आवा निसिचर कटकु भयंकर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी ।
चले सहित श्री सर धनु पानी॥
    
    आवा निसिचर कटकु भयंकर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी ।
चले सहित श्री सर धनु पानी॥
राक्षसोंकी भयानक सेना आ गयी है। जानकीजीको लेकर तुम पर्वतकी कन्दरामें चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथमें धनुष-बाण लिये श्रीसीताजीसहित चले॥६॥
						
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