मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड) रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
सुनि जानकी परम सुखु पावा ।
सादर तासु चरन सिरु नावा।
तब मुनि सन कह कृपानिधाना।
आयसु होइ जाउँ बन आना।
सादर तासु चरन सिरु नावा।
तब मुनि सन कह कृपानिधाना।
आयसु होइ जाउँ बन आना।
जानकीजीने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणोंमें सिर नवाया। तब कृपाकी खान श्रीरामजीने मुनिसे कहा-आज्ञा हो तो अब दूसरे वनमें जाऊँ॥१॥
संतत मो पर कृपा करेहू।
सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी ।
सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥
सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी ।
सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥
मुझपर निरन्तर कृपा करते रहियेगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़ियेगा। धर्मधुरन्धर प्रभु श्रीरामजीके वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले- ॥२॥
जासु कृपा अज सिव सनकादी ।
चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे ।
दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥
चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे ।
दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥
ब्रह्मा, शिव और सनकादि सभी परमार्थवादी (तत्त्ववेत्ता) जिनकी कृपा चाहते हैं, हे रामजी! आप वही निष्काम पुरुषोंके भी प्रिय और दीनोंके बन्धु भगवान् हैं,
जो इस प्रकार कोमल वचन बोल रहे हैं ।। ३॥
अब जानी मैं श्री चतुराई।
भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई।
ता कर सील कस न अस होई॥
भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई।
ता कर सील कस न अस होई॥
अब मैंने लक्ष्मीजी की चतुराई समझी, जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आप ही को भजा। जिसके समान [सब बातोंमें] अत्यन्त बड़ा और कोई नहीं है, उसका शील भला, ऐसा क्यों न होगा?॥४॥
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी।
कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी।।
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा ।
लोचन जल बह पुलक सरीरा॥
कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी।।
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा ।
लोचन जल बह पुलक सरीरा॥
मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइये? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिये। ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभुको देखने लगे। मुनिके नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बह रहा है और शरीर पुलकित है॥५॥
छं०- तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए।
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए।
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥
मुनि अत्यन्त प्रेमसे पूर्ण हैं; उनका शरीर पुलकित है और नेत्रोंको श्रीरामजीके मुखकमलमें लगाये हुए हैं। [मनमें विचार रहे हैं कि] मैंने ऐसे कौन-से जप-तप किये थे, जिसके कारण मन, ज्ञान, गुण और इन्द्रियोंसे परे प्रभुके दर्शन पाये। जप, योग और धर्म-समूहसे मनुष्य अनुपम भक्तिको पाता है। श्रीरघुवीरके पवित्र चरित्रको तुलसीदास रात-दिन गाता है।
दो०- कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥६(क)॥
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥६(क)॥
श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर यश कलियुगके पापोंका नाश करनेवाला, मनको दमन करनेवाला और सुखका मूल है। जो लोग इसे आदरपूर्वक सुनते हैं, उनपर श्रीरामजी प्रसन्न रहते हैं॥६ (क)॥
सो०- कठिन काल मल कोस धर्मन ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥६ (ख)॥
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥६ (ख)॥
यह कठिन कलिकाल पापोंका खजाना है। इसमें न धर्म है, न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है। इसमें तो जो लोग सब भरोसोंको छोड़कर श्रीरामजीको ही भजते हैं, वे ही चतुर हैं। ६ (ख)।
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा।
चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥
आगें राम अनुज पुनि पाछे ।
मुनि बर बेष बने अति काछे॥
चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥
आगें राम अनुज पुनि पाछे ।
मुनि बर बेष बने अति काछे॥
मुनिके चरणकमलोंमें सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियोंके स्वामी श्रीरामजी वनको चले। आगे श्रीरामजी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियोंका सुन्दर वेष बनाये अत्यन्त सुशोभित हैं ॥१॥
उभय बीच श्री सोहइ कैसी ।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा ।
पति पहिचानि देहिं बर बाटा।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा ।
पति पहिचानि देहिं बर बाटा।
दोनोंके बीच में श्रीजानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीवके बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामीको पहचानकर सुन्दर रास्ता दे देते हैं ॥२॥
जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया।
करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
मिला असुर बिराध मग जाता।
आवतहीं रघुबीर निपाता।
करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
मिला असुर बिराध मग जाता।
आवतहीं रघुबीर निपाता।
जहाँ-जहाँ देव श्रीरघुनाथजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ बादल आकाशमें छाया करते जाते हैं। रास्तेमें जाते हुए विराध राक्षस मिला। सामने आते ही श्रीरघुनाथजीने उसे मार डाला ॥३॥
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा।
देखि दुखी निज धाम पठावा॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा।
सुंदर अनुज जानकी संगा॥
देखि दुखी निज धाम पठावा॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा।
सुंदर अनुज जानकी संगा॥
[श्रीरामजीके हाथसे मरते ही] उसने तुरंत सुन्दर (दिव्य) रूप प्राप्त कर लिया। दुःखी देखकर प्रभुने उसे अपने परम धामको भेज दिया। फिर वे सुन्दर छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीके साथ वहाँ आये जहाँ मुनि शरभंगजी थे॥४॥
दो०-देखि राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग॥७॥
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग॥७॥
श्रीरामचन्द्रजीका मुखकमल देखकर मुनिश्रेष्ठके नेत्ररूपी भौरे अत्यन्त आदरपूर्वक उसका [मकरन्दरस] पान कर रहे हैं। शरभंगजीका जन्म धन्य है॥७॥
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला।
संकर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा।
सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥
संकर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा।
सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥
मुनिने कहा-हे कृपालु रघुवीर! हे शंकरजीके मनरूपी मानसरोवरके राजहंस! सुनिये, मैं ब्रह्मलोकको जा रहा था। [इतनेमें] कानोंसे सुना कि श्रीरामजी वनमें आवेंगे॥१॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती ।
अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना ।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥
अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना ।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥
तबसे मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभुको देखकर मेरी छाती शीतल हो गयी। हे नाथ! मैं सब साधनोंसे हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझपर कृपा की है॥२॥
सो कछु देव न मोहि निहोरा।
निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी।
जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।
निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी।
जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।
हे देव! यह कुछ मुझपर आपका एहसान नहीं है। हे भक्त-मनचोर! ऐसा करके आपने अपने प्रणकी ही रक्षा की है। अब इस दीनके कल्याणके लिये तबतक यहाँ ठहरिये, जबतक मैं शरीर छोड़कर आपसे [आपके धाममें न] मिलूँ॥३॥
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा ।
प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा ।
बैठे हृदयँ छाडि सब संगा॥
प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा ।
बैठे हृदयँ छाडि सब संगा॥
योग, यज्ञ, जप, तप जो कुछ व्रत आदि भी मुनिने किया था, सब प्रभुको समर्पण करके बदलेमें भक्तिका वरदान ले लिया। इस प्रकार [दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर] चिता रचकर मुनि शरभंगजी हृदयसे सब आसक्ति छोड़कर उसपर जा बैठे ॥४॥
दो०- सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्रीराम॥८॥
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्रीराम॥८॥
हे नीले मेघके समान श्याम शरीरवाले सगुणरूप श्रीरामजी! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित प्रभु (आप) निरन्तर मेरे हृदयमें निवास कीजिये॥८॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा ।
राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥
राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥
ऐसा कहकर शरभंगजी ने योगाग्नि से अपने शरीरको जला डाला और श्रीरामजीकी कृपा से वे वैकुण्ठको चले गये। मुनि भगवान् में लीन इसलिये नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्ति का वर ले लिया था॥१॥
रिषि निकाय मुनिबर गति देखी ।
सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा ।
जयति प्रनत हित करुना कंदा॥
सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा ।
जयति प्रनत हित करुना कंदा॥
ऋषिसमूह मुनिश्रेष्ठ शरभंगजीकी यह [दुर्लभ] गति देखकर अपने हृदयमें विशेषरूपसे सुखी हुए। समस्त मुनिवृन्द श्रीरामजीकी स्तुति कर रहे हैं [और कह रहे हैं] शरणागतहितकारी करुणाकन्द (करुणाके मूल) प्रभुकी जय हो! ॥२॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे ।
मुनिबर बंद बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
मुनिबर बंद बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
फिर श्रीरघुनाथजी आगे वनमें चले। श्रेष्ठ मुनियोंके बहुत-से समूह उनके साथ हो लिये। हड्डियोंका ढेर देखकर श्रीरघुनाथजीको बड़ी दया आयी, उन्होंने मुनियोंसे पूछा ॥३॥
जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए ।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए ।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए।
[मुनियोंने कहा-] हे स्वामी! आप सर्वदर्शी (सर्वज्ञ) और अन्तर्यामी (सबके हृदयकी जाननेवाले) हैं। जानते हुए भी [अनजानकी तरह] हमसे कैसे पूछ रहे हैं? राक्षसोंके दलोंने सब मुनियोंको खा डाला है [ये सब उन्हींकी हड्डियोंके ढेर हैं] । यह सुनते ही श्रीरघुवीरके नेत्रोंमें जल छा गया (उनकी आँखोंमें करुणाके आँसू भर आये)॥४॥
दो०- निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥९॥
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥९॥
श्रीरामजीने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वीको राक्षसोंसे रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियोंके आश्रमोंमें जा-जाकर उनको [दर्शन एवं सम्भाषणका] सुख दिया॥९॥
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना ।
नाम सुतीछन रति भगवाना।
मन क्रम बचन राम पद सेवक ।
सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥
नाम सुतीछन रति भगवाना।
मन क्रम बचन राम पद सेवक ।
सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥
मुनि अगस्त्यजीके एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान् में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजीके चरणोंके सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवताका भरोसा नहीं था॥१॥
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा ।
करत मनोरथ आतुर धावा ॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया।
मो से सठ पर करिहहिं दाया।
करत मनोरथ आतुर धावा ॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया।
मो से सठ पर करिहहिं दाया।
उन्होंने ज्यों ही प्रभुका आगमन कानोंसे सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकारके मनोरथ करते हुए वे आतुरता (शीघ्रता) से दौड़ चले। हे विधाता ! क्या दीनबन्धु श्रीरघुनाथजी मुझ-जैसे दुष्टपर भी दया करेंगे? ॥२॥
सहित अनुज मोहि राम गोसाईं।
मिलिहहिं निज सेवक की नाईं।
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥
मिलिहहिं निज सेवक की नाईं।
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥
क्या स्वामी श्रीरामजी छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित मुझसे अपने सेवककी तरह मिलेंगे? मेरे हृदयमें दृढ़ विश्वास नहीं होता; क्योंकि मेरे मनमें भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥३॥
नहिं सतसंग जोग जप जागा ।
नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥
नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥
मैंने न तो सत्सङ्ग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किये हैं और न प्रभुके चरणकमलोंमें मेरा दृढ अनुराग ही है। हाँ, दयाके भण्डार प्रभुकी एक बान है कि जिसे किसी दूसरेका सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है ॥ ४॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन ।
देखि बदन पंकज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी।
कहि न जाइ सो दसा भवानी॥
देखि बदन पंकज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी।
कहि न जाइ सो दसा भवानी॥
- [भगवान् की इस बानका स्मरण आते ही मुनि आनन्दमग्न होकर मन-ही-मन कहने लगे-] अहा! भवबन्धनसे छुड़ानेवाले प्रभुके मुखारविन्दको देखकर आज मेरे नेत्र सफल होंगे। [शिवजी कहते हैं-] हे भवानी ! ज्ञानी मुनि प्रेममें पूर्णरूपसे निमग्न हैं। उनकी वह दशा कही नहीं जाती॥ ५ ॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा।
को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई।
कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥
को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई।
कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥
उन्हें दिशा-विदिशा (दिशाएँ और उनके कोण आदि) और रास्ता, कुछ भी नहीं सूझ रहा है। मैं कौन हूँ और कहाँ जा रहा हूँ, यह भी नहीं जानते (इसका भी ज्ञान नहीं है)। वे कभी पीछे घूमकर फिर आगे चलने लगते हैं और कभी [प्रभुके] गुण गा-गाकर नाचने लगते हैं ॥६॥
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।
प्रभु देखें तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा ।
प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥
प्रभु देखें तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा ।
प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥
मुनिने प्रगाढ़ प्रेमाभक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु श्रीरामजी वृक्षकी आड़में छिपकर [भक्तकी प्रेमोन्मत्त दशा] देख रहे हैं। मुनिका अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमनके भय) को हरनेवाले श्रीरघुनाथजी मुनिके हृदयमें प्रकट हो गये॥७॥
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा।
पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए।
देखि दसा निज जन मन भाए।
पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए।
देखि दसा निज जन मन भाए।
[हृदयमें प्रभुके दर्शन पाकर] मुनि बीच रास्तेमें अचल (स्थिर) होकर बैठ गये। उनका शरीर रोमाञ्चसे कटहलके फलके समान [कण्टकित] हो गया। तब श्रीरघुनाथजी उनके पास चले आये और अपने भक्तकी प्रेमदशा देखकर मनमें बहुत प्रसन्न हुए॥८॥
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा ।
जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा ।
हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥
जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा ।
हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥
श्रीरामजीने मुनिको बहुत प्रकारसे जगाया, पर मुनि नहीं जागे; क्योंकि उन्हें प्रभुके ध्यानका सुख प्राप्त हो रहा था। तब श्रीरामजीने अपने राजरूपको छिपा लिया और उनके हृदयमें अपना चतुर्भुजरूप प्रकट किया॥९॥
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें ।
बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगे देखि राम तन स्यामा।
सीता अनुज सहित सुख धामा॥
बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगे देखि राम तन स्यामा।
सीता अनुज सहित सुख धामा॥
तब (अपने इष्ट-स्वरूपके अन्तर्धान होते ही) मुनि कैसे व्याकुल होकर उठे, जैसे श्रेष्ठ (मणिधर) सर्प मणिके बिना व्याकुल हो जाता है। मुनिने अपने सामने सीताजी और लक्ष्मणजीसहित श्यामसुन्दर-विग्रह सुखधाम श्रीरामजीको देखा ॥ १० ॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी ।
प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई।
परम प्रीति राखे उर लाई॥
प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई।
परम प्रीति राखे उर लाई॥
प्रेममें मग्न हुए वे बड़गी श्रेष्ठ मुनि लाठीकी तरह गिरकर श्रीरामजीके चरणों में लग गये। श्रीरामजीने अपनी विशाल भुजाओंसे पकड़कर उन्हें उठा लिया और बड़े प्रेमसे हृदयसे लगा रखा ॥११॥
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला ।
कनक तरुहि जनु भेंट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा ।
मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा॥
कनक तरुहि जनु भेंट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा ।
मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा॥
कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मुनिसे मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो सोनेके वृक्षसे तमालका वृक्ष गले लगकर मिल रहा हो। मुनि [निस्तब्ध] खड़े हुए [टकटकी लगाकर] श्रीरामजीका मुख देख रहे हैं, मानो चित्रमें लिखकर बनाये गये हों॥१२॥
दो०- तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥१०॥
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥१०॥
तब मुनिने हृदयमें धीरज धरकर बार-बार चरणोंको स्पर्श किया। फिर प्रभुको अपने आश्रममें लाकर अनेक प्रकारसे उनकी पूजा की॥१०॥
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