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रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2087
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना ।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई।
सो मम भगति भगत सुखदाई॥

धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योगसे ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्षका देनेवाला है--ऐसा वेदोंने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तोंको सुख देनेवाली है ॥ १॥

सो सुतंत्र अवलंब न आना ।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला।
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥

वह भक्ति स्वतन्त्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधनका सहारा (अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात ! भक्ति अनुपम एवं सुखकी मूल है; और वह तभी मिलती है जब संत अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं ॥२॥

भगति कि साधन कहउँ बखानी ।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥

अब मैं भक्तिके साधन विस्तारसे कहता हूँ—यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणोंके चरणों में अत्यन्त प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने [वर्णाश्रमके] कर्मों में लगा रहे ॥३॥

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा ।
तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं ।
मम लीला रति अति मन माहीं॥

इसका फल, फिर विषयोंसे वैराग्य होगा। तब (वैराग्य होनेपर) मेरे धर्म (भागवतधर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकारकी भक्तियाँ दृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यन्त प्रेम होगा॥४॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥

जिसका संतोंके चरणकमलोंमें अत्यन्त प्रेम हो; मन, वचन और कर्मसे भजनका दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवामें दृढ़ हो;॥५॥

मम गुन गावत पुलक सरीरा।
गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें ।
तात निरंतर बस मैं ताकें॥

मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाय, वाणी गदगद हो जाय और नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वशमें रहता हूँ॥६॥

प्रभु के दर्शन अर्थात् परमात्म तत्त्व की अनुभूति ऐसी विशेष अनुभूति है कि इसका स्मरण मात्र ही व्यक्ति को पुलकित कर देता है, जब व्यक्ति परमात्मतत्त्व में पूरी तरह स्थित हो तब उस समय की अनुभूति का तो वर्णन के परे हैं।

दो०- बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥१६॥

जिनको कर्म, वचन और मनसे मेरी ही गति है; और जो निष्काम भावसे मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय-कमलमें मैं सदा विश्राम किया करता हूँ। १६॥

भगति जोग सुनि अति सुख पावा।
लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा।।
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती ।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥

इस भक्तियोगको सुनकर लक्ष्मणजीने अत्यन्त सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गये ॥१॥

सूपनखा रावन कै बहिनी ।
दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पंचबटी सो गइ एक बारा।
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥

सूर्पणखा प्रकरण


शूर्पणखा नामक रावणकी एक बहिन थी, जो नागिनके समान भयानक और दुष्ट हृदयकी थी। वह एक बार पञ्चवटीमें गयी और दोनों राजकुमारोंको देखकर विकल (कामसे पीड़ित) हो गयी॥२॥

भ्राता पिता पुत्र उरगारी ।
पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी।
जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी॥


(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! (शूर्पणखा-जैसी राक्षसी, धर्मज्ञानशून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुषको देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मनको नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्यको देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वालासे पिघल जाती है)॥३॥

रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई।
बोली बचन बहुत मुसुकाई॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी।
यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥

वह सुन्दर रूप धरकर प्रभुके पास जाकर और बहुत मुसकराकर वचन बोली न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री! विधाताने यह संयोग (जोड़ा) बहुत विचारकर रचा है।४।।

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं।
देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं॥
तातें अब लगि रहिउँ कुमारी।
मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥

मेरे योग्य पुरुष (वर) जगत्भरमें नहीं है, मैंने तीनों लोकोंको खोज देखा। इसीसे मैं अबतक कुमारी (अविवाहित) रही। अब तुमको देखकर कुछ मन माना (चित्त ठहरा) है॥५॥

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता।
अहइ कुआर मोर लघु भ्राता॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी।
प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥

सीताजीकी ओर देखकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह लक्ष्मणजीके पास गयी। लक्ष्मणजी उसे शत्रुकी बहिन समझकर और प्रभुकी ओर देखकर कोमल वाणीसे बोले-॥६॥

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा ।
पराधीन नहिं तोर सुपासा॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा ।
जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥

हे सुन्दरी! सुन, मैं तो उनका दास हूँ। मैं पराधीन हूँ, अतः तुम्हें सुभीता (सुख) न होगा। प्रभु समर्थ हैं, कोसलपुरके राजा हैं, वे जो कुछ करें, उन्हें सब फबता है॥७॥

सेवक सुख चह मान भिखारी ।
ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥
लोभी जसु चह चार गुमानी ।
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥

सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी (जिसे जूए, शराब आदिका व्यसन हो) धन और व्यभिचारी शुभगति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल-अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चाहे, तो ये सब प्राणी आकाशको दुहकर दूध लेना चाहते हैं (अर्थात् असम्भव बातको सम्भव करना चाहते हैं)॥८॥

पुनि फिरि राम निकट सो आई।
प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई।
जो तृन तोरि लाज परिहरई॥

वह लौटकर फिर श्रीरामजीके पास आयी। प्रभुने फिर उसे लक्ष्मणजीके पास भेज दिया। लक्ष्मणजीने कहा- तुम्हें वही बरेगा जो लज्जाको तृण तोड़कर (अर्थात् प्रतिज्ञा करके) त्याग देगा (अर्थात् जो निपट निर्लज्ज होगा) ॥९॥

तब खिसिआनि राम पहिं गई।
रूप भयंकर प्रगटत भई॥
सीतहि सभय देखि रघुराई।
कहा अनुज सन सयन बुझाई॥

* तब वह खिसियायी हुई (क्रुद्ध होकर) श्रीरामजीके पास गयी और उसने अपना भयङ्कर रूप प्रकट किया। सीताजीको भयभीत देखकर श्रीरघुनाथजीने लक्ष्मणजीको इशारा देकर कहा ॥१०॥

दो०- लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥१७॥

लक्ष्मणजीने बड़ी फुर्तीसे उसको बिना नाक-कान की कर दिया। मानो उसके हाथ रावणको चुनौती दी हो! ॥ १७॥

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