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रामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2088
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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन


हताश वानरों को जाम्बवान् का उपदेश और सम्पाती द्वारा सहायता


कह अंगद लोचन भरि बारी।
दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई।
उहाँ गएँ मारिहि कपिराई।


अंगदने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकारसे हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो सीताजी की सुध नहीं मिली और वहाँ जानेपर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे॥२॥

पिता बधे पर मारत मोही।
राखा राम निहोर न ओही।
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं।
मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥


वे तो पिताके वध होनेपर ही मुझे मार डालते। श्रीरामजीने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीवका कोई एहसान नहीं है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥३॥

अंगद बचन सुनत कपि बीरा।
बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे।
पुनि अस बचन कहत सब भए।


वानर वीर अंगदके वचन सुनते हैं; किन्तु कुछ बोल नहीं सकते। उनके नेत्रोंसे जल बह रहा है। एक क्षणके लिये सब सोचमें मग्न हो रहे। फिर सब ऐसा वचन कहने लगे-॥४॥

हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना।
नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना।
अस कहि लवन सिंधु तट जाई।
बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥


हे सुयोग्य युवराज! हमलोग सीताजीकी खोज लिये बिना नहीं लौटेंगे। ऐसा कहकर लवणसागरके तटपर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गये॥५॥

जामवंत अंगद दुख देखी।
कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु।
निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु।

जाम्बवान् ने अंगदका दुःख देखकर विशेष उपदेशकी कथाएँ कहीं। [वे बोले-] हे तात! श्रीरामजीको मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो॥६॥ हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥ हम सब सेवक अत्यन्त बड़भागी हैं, जो निरन्तर सगुण ब्रह्म (श्रीरामजी) में प्रीति रखते हैं॥७॥

दो०- निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥२६॥


देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों के लिये प्रभु अपनी इच्छा से [किसी कर्मबन्धनसे नहीं] अवतार लेते हैं। वहाँ सगुणोपासक [भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्टि और सायुज्य] सब प्रकारके मोक्षोंको त्यागकर उनकी सेवामें साथ रहते हैं॥ २६॥

एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती।
गिरि कंदरौं सुनी संपाती।
बाहेर होइ देखि बहु कीसा।
मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥


इस प्रकार जाम्बवान् बहुत प्रकारसे कथाएँ कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वतकी कन्दरामें सम्पातीने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत-से वानर देखे। [तब वह बोला-] जगदीश्वरने मुझको घर बैठे बहुत-सा आहार भेज दिया!॥१॥

आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ।
दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा।
आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा॥


आज इन सबको खा जाऊँगा। बहुत दिन बीत गये, भोजनके बिना मर रहा था। पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता। आज विधाताने एक ही बारमें बहुत-सा भोजन दे दिया॥२॥

डरपे गीध बचन सुनि काना।
अब भा मरन सत्य हम जाना॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी।
जामवंत मन सोच बिसेषी॥


गीधके वचन कानोंसे सुनते ही सब डर गये कि अब सचमुच ही मरना हो गया, यह हमने जान लिया। फिर उस गीध (सम्पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए। जाम्बवान् के मनमें विशेष सोच हुआ॥३॥

कह अंगद बिचारि मन माहीं।
धन्य जटायू सम कोउ नाहीं॥
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम बड़भागी॥


अंगदने मनमें विचारकर कहा-अहा! जटायुके समान धन्य कोई नहीं है। श्रीरामजीके कार्यके लिये शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान्के परमधामको चला गया॥४॥

सुनि खग हरष सोक जुत बानी।
आवा निकट कपिन्ह भय मानी।
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई।
कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई।


हर्ष और शोकसे युक्त वाणी (समाचार) सुनकर वह पक्षी (सम्पाती) वानरोंके पास आया। वानर डर गये। उनको अभय करके (अभय-वचन देकर) उसने पास जाकर जटायुका वृत्तान्त पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनायी॥५॥

सुनि संपाति बंधु कै करनी।
रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥

भाई जटायुकी करनी सुनकर सम्पातीने बहुत प्रकारसे श्रीरघुनाथजीकी महिमा वर्णन की॥६॥

दो०- मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥२७॥


[उसने कहा-] मुझे समुद्रके किनारे ले चलो, मैं जटायुको तिलाञ्जलि दे दूँ। इस सेवाके बदले मैं तुम्हारी वचनसे सहायता करूँगा (अर्थात् सीताजी कहाँ हैं सो बतला दूंगा) जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे।। २७॥

अनुज क्रिया करि सागर तीरा।
कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई।
गगन गए रबि निकट उड़ाई॥


समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा--हे वीर वानरो! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़कर सूर्य के निकट चले गये॥१॥

तेज न सहि सक सो फिरि आवा।
मैं अभिमानी रबि निअरावा॥
जरे पंख अति तेज अपारा।
परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥


वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया। (किन्तु) मैं अभिमानी था इसलिये सूर्यके पास चला गया। अत्यन्त अपार तेजसे मेरे पंख जल गये। मैं बड़े जोरसे चीख मारकर जमीनपर गिर पड़ा॥२॥

मुनि एक नाम चंद्रमा ओही।
लागी दया देखि करि मोही॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा।
देहजनित अभिमान छड़ावा॥


वहाँ चन्द्रमा नामके एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने बहुत प्रकारसे मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देहसम्बन्धी) अभिमानको छुड़ा दिया॥३॥

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही।
तासु नारि निसिचर पति हरिही।
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता।
तिन्हहि मिलें तें होब पुनीता॥

[उन्होंने कहा-] त्रेतायुग में साक्षात् परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जायगा। उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जायगा॥४॥

जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता।
तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू।
सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥


और तेरे पंख उग आयेंगे; चिन्ता न कर। उन्हें तू सीताजीको दिखा देना। मुनिकी वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभुका कार्य करो॥५॥

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका।
तहँ रह रावन सहज असंका॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई।
सीता बैठि सोच रत अहई।


त्रिकूट पर्वतपर लङ्का बसी हुई है। वहाँ स्वभाव ही से निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीताजी रहती हैं। [इस समय भी] वे सोचमें मग्न बैठी हैं॥६॥

दो०- मैं देखउँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार।
बूढ़ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार॥२८॥


मैं उन्हें देख रहा हूँ, तुम नहीं देख सकते; क्योंकि गीधकी दृष्टि अपार होती है (बहुत दूरतक जाती है)। क्या करूँ? मैं बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुम्हारी कुछ तो सहायता अवश्य करता॥ २८॥

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