मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड) रामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन
लक्ष्मणजी द्वारा सुग्रीव का राज्याभिषेक
राम कहा अनुजहि समुझाई।
राज देहु सुग्रीवहि जाई॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा।
चले सकल प्रेरित रघुनाथा॥
राज देहु सुग्रीवहि जाई॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा।
चले सकल प्रेरित रघुनाथा॥
तब श्रीरामचन्द्रजीने छोटे भाई लक्ष्मणको समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीवको राज्य दे दो। श्रीरघुनाथजीकी प्रेरणा (आज्ञा) से सब लोग श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें मस्तक नवाकर चले॥५॥
दो०- लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥११॥
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥११॥
लक्ष्मणजीने तुरंत ही सब नगरनिवासियोंको और ब्राह्मणोंके समाजको बुला लिया और [उनके सामने] सुग्रीवको राज्य और अंगदको युवराज-पद दिया॥११॥
उमा राम सम हित जग माहीं।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
हे पार्वती ! जगत्में श्रीरामजीके समान हित करनेवाला गुरु, पिता, माता, बन्धु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थके लिये ही सब प्रीति करते हैं॥१॥
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती।
तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती॥
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ।
अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ॥
तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती॥
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ।
अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ॥
जो सुग्रीव दिन-रात बालि के भय से व्याकुल रहता था, जिसके शरीर में बहुत से घाव हो गये थे और जिसकी छाती चिन्ताके मारे जला करती थी, उसी सुग्रीवको उन्होंने वानरों का राजा बना दिया। श्रीरामचन्द्रजीका स्वभाव अत्यन्त ही कृपालु है॥२॥
जानतहूँ अस प्रभु परिहरहीं।
काहे न बिपति जाल नर परहीं।
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई।
बहु प्रकार नृपनीति सिखाई।
काहे न बिपति जाल नर परहीं।
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई।
बहु प्रकार नृपनीति सिखाई।
जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभुको त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्तिके जालमें फँसें? फिर श्रीरामजीने सुग्रीवको बुला लिया और बहुत प्रकारसे उन्हें राजनीतिकी शिक्षा दी॥३॥
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा।
पुर न जाउँ दस चारि बरीसा॥
गत ग्रीषम बरषा रितु आई।
रहिहउँ निकट सैल पर छाई॥
पुर न जाउँ दस चारि बरीसा॥
गत ग्रीषम बरषा रितु आई।
रहिहउँ निकट सैल पर छाई॥
फिर प्रभुने कहा-हे वानरपति सुग्रीव! सुनो, मैं चौदह वर्षतक गाँव (बस्ती) में नहीं जाऊँगा। ग्रीष्म-ऋतु बीतकर वर्षा-ऋतु आ गयी। अत: मैं यहाँ पास ही पर्वतपर टिक रहूँगा॥ ४॥
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