मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड) रामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन
वर्षा-ऋतु में भगवान् द्वारा प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन
दो०- लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥१३॥
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥१३॥
[श्रीरामजी कहने लगे-] हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥१३॥
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥
आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥१॥
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ।
जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें।
खल के बचन संत सह जैसें॥
जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें।
खल के बचन संत सह जैसें॥
बादल पृथ्वीके समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥२॥
छुद्र नदी भरि चलीं तोराई।
जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनु जीवहि माया लपटानी॥
जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनु जीवहि माया लपटानी॥
छोटी नदियाँ भरकर [किनारोंको] तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धनसे भी दुष्ट इतरा जाते हैं (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वीपर पड़ते ही पानी गँदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गयी हो॥३॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा।
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण [एक-एककर] सज्जनके पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्रीहरिको पाकर अचल (आवागमनसे मुक्त) हो जाता है॥४॥
दो०- हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥१४॥
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥१४॥
पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गयी है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखण्ड-मतके प्रचार से सद्ग्रन्थ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं॥ १४॥।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका॥
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका॥
चारों दिशाओं में मेढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नये पत्ते आ गये हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गये हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होनेपर हो जाता है॥१॥
अर्क जवास पात बिनु भयऊ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी।
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
जस सुराज खल उद्यम गयऊ।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी।
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गये (उनके पत्ते झड़ गये)। जैसे श्रेष्ठ राज्यमें दुष्टोंका उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती)। धूल कहीं खोजनेपर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्मको दूर कर देता है (अर्थात् क्रोधका आवेश होनेपर धर्मका ज्ञान नहीं रह जाता)॥२॥
ससि संपन्न सोह महि कैसी।
उपकारी के संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा।
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
उपकारी के संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा।
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
अन्नसे युक्त (लहलहाती हुई खेतीसे हरी-भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुषकी सम्पत्ति। रातके घने अन्धकारमें जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो॥३॥
महाबृष्टि चलि फूटि किआरी।
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारी॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारी॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
भारी वर्षासे खेतोंकी क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतन्त्र होनेसे स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतोंको निरा रहे हैं (उनमेंसे घास आदिको निकालकर फेंक रहे हैं)। जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मानका त्याग कर देते हैं॥४॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊपर बरषइ तृन नहिं जामा।
जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊपर बरषइ तृन नहिं जामा।
जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥
चक्रवाक पक्षी दिखायी नहीं दे रहे हैं; जैसे कलियुगको पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसरमें वर्षा होती है, पर वहाँ घासतक नहीं उगती। जैसे हरिभक्तके हृदयमें काम नहीं उत्पन्न होता॥५॥
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा।
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना।
जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना।
जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥
पृथ्वी अनेक तरहके जीवोंसे भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजाकी वृद्धि होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होनेपर इन्द्रियाँ [शिथिल होकर विषयोंकी ओर जाना छोड़ देती हैं]॥६॥
दो०- कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥१५ (क)॥
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥१५ (क)॥
कभी-कभी वायु बड़े जोरसे चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्रके उत्पन्न होनेसे कुलके उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं॥१५ (क)॥
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥१५ (ख)॥
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥१५ (ख)॥
कभी [बादलोंके कारण] दिनमें घोर अन्धकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥१५ (ख)॥
बरषा बिगत सरद रितु आई।
लछिमन देखहु परम सुहाई॥
फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥
लछिमन देखहु परम सुहाई॥
फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥
हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गयी और परम सुन्दर शरद्-ऋतु आ गयी। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गयी। मानों वर्षा-ऋतुने [कासरूपी सफेद बालोंके रूपमें] अपना बुढ़ापा प्रकट किया है।॥१॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।
जिमि लोभहि सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा।
संत हृदय जस गत मद मोहा॥
जिमि लोभहि सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा।
संत हृदय जस गत मद मोहा॥
अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे सन्तोष लोभको सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥२॥
रस रस सूख सरित सर पानी।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।
नदी और तालाबोंका जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममताका त्याग करते हैं। शरद्-ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गये। जैसे समय पाकर सुन्दर सुकृत आ जाते हैं (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥३॥
पंक न रेनु सोह असि धरनी।
नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना।
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥
नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना।
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥
न कीचड़ है न धूल; इससे धरती [निर्मल होकर] ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजाकी करनी! जलके कम हो जानेसे मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेकशून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धनके बिना व्याकुल होता है।॥ ४॥
बिनु घन निर्मल सोह अकासा।
हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी।
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी॥
हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी।
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी॥
बिना बादलोंका निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानोंमें) शरद् ऋतुकी थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥ ५॥
दो०- चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥१६॥
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥१६॥
[शरद्-ऋतु पाकर] राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी [क्रमश: विजय, तप, व्यापार और भिक्षाके लिये] हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्रीहरिकी भक्ति पाकर चारों आश्रमवाले [नाना प्रकारके साधनरूपी] श्रमोंको त्याग देते हैं।। १६॥
सुखी मीन जे नीर अगाधा।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा॥
फूले कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा॥
फूले कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥
जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्रीहरि की शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है॥१॥
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा।
सुंदर खग रव नाना रूपा।
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी।
जिमि दुर्जन पर संपति देखी।
सुंदर खग रव नाना रूपा।
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी।
जिमि दुर्जन पर संपति देखी।
भौरे अनुपम शब्द करते हुए गूंज रहे हैं, तथा पक्षियोंके नाना प्रकारके सुन्दर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मनमें वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरेकी सम्पत्ति देखकर दुष्टको होता है॥२॥
चातक रटत तृषा अति ओही।
जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई।
संत दरस जिमि पातक टरई॥
जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई।
संत दरस जिमि पातक टरई॥
पपीहा रट लगाये है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्रीशङ्करजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुखके लिये झीखता रहता है)। शरद्-ऋतु के ताप को रात के समय चन्द्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं॥३॥
देखि इंदु चकोर समुदाई।
चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा।
जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥
चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा।
जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥
चकोरों के समुदाय चन्द्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाये हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके [निर्निमेष नेत्रोंसे] दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गये जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥४॥
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