मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (सुंदरकाण्ड) रामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
हनुमान से भगवान श्रीराम की सीताजी के विषय में पूछताछ
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की।
[वे चरित्र] सुनने पर कृपानिधि श्रीरामचन्द्रजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमानजी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा-हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणोंकी रक्षा करती हैं ?॥ ४॥
दो०- नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥३०॥
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥३०॥
(हनुमानजीने कहा---) आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रोंको अपने चरणोंमें लगाये रहती हैं, यही ताला लगा है; फिर प्राण जायँ तो किस मार्गसे?॥ ३०॥
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि [उतारकर] दी। श्रीरघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। [हनुमानजीने फिर कहा-] हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे-॥ १॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी।
दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी।
छोटे भाईसमेत प्रभुके चरण पकड़ना [और कहना कि] आप दीनबन्धु हैं, शरणागतके दुःखोंको हरनेवाले हैं और मैं मन, वचन और कर्मसे आपके चरणोंकी अनुरागिणी हूँ। फिर स्वामी (आप)ने मुझे किस अपराधसे त्याग दिया?॥२॥
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।
[हाँ] एक दोष मैं अपना [अवश्य] मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गये। किन्तु हे नाथ! यह तो नेत्रोंका अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं।। ३॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरें न पाव देह बिरहागी।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरें न पाव देह बिरहागी।
विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है; इस प्रकार [अग्नि और पवनका संयोग होनेसे] यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है। परन्तु नेत्र अपने हित के लिये (प्रभु का स्वरूप देखकर सुखी होने के लिये) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती॥ ४॥
सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
सीताजीकी विपत्ति बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु ! वह बिना कही ही अच्छी है (कहनेसे
आपको बड़ा क्लेश होगा)॥५॥ बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
दो०- निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभुआनिअ भुज बल खल दल जीति॥३१॥
बेगि चलिअ प्रभुआनिअ भुज बल खल दल जीति॥३१॥
हे करुणानिधान ! उनका एक-एक पल कल्पके समान बीतता है। अतः हे प्रभु! तुरंत चलिये और अपनी भुजाओंके बलसे दुष्टोंके दलको जीतकर सीताजीको ले आइये॥३१॥
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति की ताही॥
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति की ताही॥
सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमलनेत्रों में जल भर आया [और वे बोले-] मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?॥१॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
हनुमानजीने कहा-हे प्रभो! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसोंकी बात ही कितनी है? आप शत्रुको जीतकर जानकीजीको ले आवेंगे॥२॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइन सकत मन मोरा।।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइन सकत मन मोरा।।
[भगवान कहने लगे-] हे हनुमान ! सुन; तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदलेमें उपकार) तो क्या करूँ, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता॥३॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।
हे पुत्र! सुन; मैंने मनमें [खब] विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देवताओंके रक्षक प्रभु बार-बार हनुमानजीको देख रहे हैं। नेत्रोंमें प्रेमाश्रुओंका जल भरा है और शरीर अत्यन्त पुलकित है॥४॥
दो०- सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥३२॥
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥३२॥
प्रभु के वचन सुनकर और उनके [प्रसन्न] मुख तथा [पुलकित] अंगों को देखकर हनुमानजी हर्षित हो गये और प्रेममें विकल होकर 'हे भगवन ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' कहते हुए श्रीरामजीके चरणों में गिर पड़े॥३२॥
बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥
प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परन्तु प्रेममें डूबे हुए हनुमानजीको चरणोंसे उठना सुहाता नहीं। प्रभुका कर-कमल हनुमानजीके सिरपर है। उस स्थितिका स्मरण करके शिवजी प्रेममन हो गये॥१॥
सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥
लागे कहन कथा अति सुंदर।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥
फिर मन को सावधान करके शङ्करजी अत्यन्त सुन्दर कथा कहने लगे-हनुमानजी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यन्त निकट बैठा लिया॥२॥
कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।
हे हनुमान ! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लङ्का और उसके बड़े बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया? हनुमानजी ने प्रभुको प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले-॥३॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डालपर चला जाता है। मैंने जो समुद्र लाँधकर सोनेका नगर जलाया और राक्षसगणको मारकर अशोकवनको उजाड़ डाला,॥४॥
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
यह सब तो हे श्रीरघुनाथजी! आपहीका प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥ ५॥
दो०- ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥३३॥
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥३३॥
हे प्रभु! जिसपर आप प्रसन्न हों, उसके लिये कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभावसे रूई [जो स्वयं बहुत जल्दी जल जानेवाली वस्तु है] बड़वानलको निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असम्भव भी सम्भव हो सकता है)॥३३।।
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
हे नाथ! मुझे अत्यन्त सुख देनेवाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिये। हनुमानजीकी अत्यन्त सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥१॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना।
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
ताहि भजनु तजि भाव न आना।
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
हे उमा! जिसने श्रीरामजीका स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती। यह स्वामी-सेवकका संवाद जिसके हृदयमें आ गया, वही श्रीरघुनाथजीके चरणोंकी भक्ति पा गया॥ २॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिळदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
प्रभुके वचन सुनकर वानरगण कहने लगे-कृपालु आनन्दकन्द श्रीरामजी की जय हो, जय हो, जय हो! तब श्रीरघुनाथजी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा चलने की तैयारी करो॥३॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी।
अब विलम्ब किस कारण किया जाय? वानरों को तुरंत आज्ञा दो। [भगवानकी] यह लीला (रावणवधकी तैयारी) देखकर, बहुत-से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले॥४॥
दो०- कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥३४॥
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥३४॥
वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गये। वानर-भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है।। ३४॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
वे प्रभुके चरणकमलोंमें सिर नवाते हैं। महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्रीरामजीने वानरोंकी सारी सेना देखी। तब कमलनेत्रोंसे कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली॥१॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
रामकृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गये। तब श्रीरामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया। अनेक सुन्दर और शुभ शकुन हुए॥२॥
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
जिनकी कीर्ति सब मङ्गलोंसे पूर्ण है, उनके प्रस्थानके समय शकुन होना, यह नीति है (लीलाकी मर्यादा है)। प्रभुका प्रस्थान जानकीजीने भी जान लिया। उनके बायें अङ्ग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे [कि श्रीरामजी आ रहे हैं]॥३॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहि सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
असगुन भयउ रावनहि सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
जानकीजीको जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावणके लिये अपशकुन हुए। सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है ? असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं॥४॥
नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।
नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलनेवाले रीछ वानर पर्वतों और वृक्षोंको धारण किये कोई आकाशमार्गसे और कोई पृथ्वीपर चले जा रहे हैं। वे सिंहके समान गर्जना कर रहे हैं। [उनके चलने और गर्जनेसे] दिशाओंके हाथी विचलित होकर चिग्घाड़ रहे हैं॥५॥
छं०-- चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
दिशाओंके हाथी चिग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चञ्चल हो गये (काँपने लगे) और समुद्र खलबला उठे। गन्धर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब-के-सब मनमें हर्षित हुए कि [अब] हमारे दुःख टल गये। अनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। 'प्रबलप्रताप कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो' ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहोंको गा रहे हैं॥१॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छपकी कठोर पीठको दाँतोंसे पकड़ते हैं। ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दाँतोंको गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर-सी खींचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्रीरामचन्द्रजी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथाको सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों॥२॥
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