मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (लंकाकाण्ड) रामचरितमानस (लंकाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
भरतजी के बाण से हनुमान का मूर्च्छित होना, भरत-हनुमान-संवाद
परेउ मुरुछि महि लागत सायक।
सुमिरत राम राम रघुनायक।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।
कपि समीप अति आतुर आए।
सुमिरत राम राम रघुनायक।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।
कपि समीप अति आतुर आए।
बाण लगते ही हनुमानजी 'राम, राम, रघुपति' का उच्चारण करते हुए मूछित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावलीसे हनुमानजीके पास आये॥१॥
बिकल बिलोकि कीस उर लावा।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी॥
जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी॥
हनुमानजीको व्याकुल देखकर उन्होंने हृदयसे लगा लिया। बहुत तरहसे जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरतजीका मुख उदास हो गया। वे मनमें बड़े दुःखी हुए और नेत्रोंमें [विषादके आँसुओंका] जल भरकर ये वचन बोले-॥२॥
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा।।
जौं मोरें मन बच अरु काया।
प्रीति राम पद कमल अमाया॥
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा।।
जौं मोरें मन बच अरु काया।
प्रीति राम पद कमल अमाया॥
जिस विधाताने मुझे श्रीरामसे विमुख किया, उसीने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीरसे श्रीरामजीके चरणकमलोंमें मेरा निष्कपट प्रेम हो,॥ ३॥
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।
कहि जय जयति कोसलाधीसा॥
जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।
कहि जय जयति कोसलाधीसा॥
और यदि श्रीरघुनाथजी मुझपर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ासे रहित हो जाय! यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमानजी 'कोसलपति श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो, जय हो' कहते हुए उठ बैठे॥४॥
सो०- लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥५९॥
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥५९॥
भरतजी ने वानर (हनुमानजी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें [आनन्द तथा प्रेमके आँसुओंका] जल भर आया। रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदयमें प्रीति समाती न थी॥५९॥
तात कुसल कहु सुखनिधान की।
सहित अनुज अरु मातु जानकी।
कपि सब चरित समास बखाने।
भए दुखी मन महुँ पछिताने॥
सहित अनुज अरु मातु जानकी।
कपि सब चरित समास बखाने।
भए दुखी मन महुँ पछिताने॥
- [भरतजी बोले-] हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकीसहित सुखनिधान श्रीरामजीकी कुशल कहो। वानर (हनुमानजी) ने संक्षेपमें सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मनमें पछताने लगे॥१॥
अहह दैव मैं कत जग जायउँ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥
प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥
हा दैव! मैं जगतमें क्यों जन्मा? प्रभुके एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मनमें धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमानजीसे बोले-॥२॥
तात गहरू होइहि तोहि जाता।
काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढ़ मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता।।
काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढ़ मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता।।
हे तात! तुमको जानेमें देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जायगा। [अत:] तुम पर्वतसहित मेरे बाणपर चढ़ जाओ. मैं तुमको वहाँ भेज दूं जहाँ कृपाके धाम श्रीरामजी हैं॥ ३॥
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।
मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥
मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥
भरतजीकी यह बात सुनकर [एक बार तो] हनुमानजीके मनमें अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझसे बाण कैसे चलेगा? [किन्तु] फिर श्रीरामचन्द्रजीके प्रभावका विचार करके वे भरतजीके चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर बोले-॥४॥
दो०- तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥६० (क)॥
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥६० (क)॥
हे नाथ! हे प्रभो ! मैं आपका प्रताप हृदयमें रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजीके चरणोंकी वन्दना करके हनुमानजी चले॥६० (क)।
भरत बाहुबल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥६० (ख)॥
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥६० (ख)॥
भरतजीके बाहुबल, शील (सुन्दर स्वभाव), गुण और प्रभुके चरणोंमें अपार प्रेमकी मन-ही-मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति श्रीहनुमानजी चले जा रहे हैं।६० (ख)॥
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