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रामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2094
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

कुम्भकर्ण-युद्ध और उसकी परमगति



एतना कपिन्ह सुना जब काना।
किलकिलाइ धाए बलवाना॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर।
कटकटाइ डारहिं ता ऊपर॥

वानरोंने जब कानोंसे इतना सुना, तब वे बलवान् किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौड़े। वृक्ष और पर्वत [उखाड़कर] उठा लिये और [क्रोधसे] दाँत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे॥२॥

कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा।
करहिं भालु कपि एक एक बारा॥
मुस्यो न मनु तनु टरयो न टारयो।
जिमि गज अर्क फलनि को मारयो।

रीछ-वानर एक-एक बारमें ही करोड़ों पहाड़ोंके शिखरोंसे उसपर प्रहार करते हैं; परन्तु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा (विचलित हुआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदारके फलोंकी मारसे हाथीपर कुछ भी असर नहीं होता!॥३॥

तब मारुतसुत मुठिका हन्यो।
परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो।
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता।
घुर्मित भूतल परेउ तुरंता॥

तब हनुमानजीने उसे एक घूंसा मारा; जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और सिर पीटने लगा। फिर उसने उठकर हनुमानजीको मारा। वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वीपर गिर पड़े।॥ ४॥

पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि।
जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥
चली बलीमुख सेन पराई।
अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥

फिर उसने नल-नीलको पृथ्वीपर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओंको भी जहाँ तहाँ पटक-पटककर डाल दिया। वानरसेना भाग चली। सब अत्यन्त भयभीत हो गये, कोई सामने नहीं आता॥५॥

दो०- अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सीव॥६५॥

सुग्रीवसमेत अंगदादि वानरोंको मूछित करके फिर वह अपरिमित बलकी सीमा कुम्भकर्ण वानरराज सुग्रीवको काँखमें दाबकर चला।। ६५॥

उमा करत रघुपति नरलीला।
खेल गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भंग जो कालहि खाई।
ताहि कि सोहइ ऐसि लराई।

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्रीरघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। जो भौंहके इशारेमात्रसे (बिना परिश्रमके) कालको भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है ?॥१॥

जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं।
गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा।
सुग्रीवहि तब खोजन लागा।।

भगवान [इसके द्वारा] जगतको पवित्र करनेवाली वह कीर्ति फैलायेंगे जिसे गा गाकर मनुष्य भवसागरसे तर जायँगे। मूर्छा जाती रही, तब मारुति हनुमानजी जागे और फिर वे सुग्रीवको खोजने लगे॥२॥

सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती।
निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन नासिका काना।
गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना॥

सुग्रीवकी भी मूर्छा दूर हुई, तब वे [मुर्दे-से होकर] खिसक गये (काँखसे नीचे गिर पड़े)। कुम्भकर्णने उनको मृतक जाना। उन्होंने कुम्भकर्ण के नाक कान दाँतों से काट लिये और फिर गरजकर आकाशकी ओर चले, तब कुम्भकर्णने जाना॥ ३॥

गहेउ चरन गहि भूमि पछारा।
अति लाघव॑ उठि पुनि तेहि मारा।
पुनि आयउ प्रभु पहिं बलवाना।
जयति जयति जय कृपानिधाना॥

उसने सुग्रीवका पैर पकड़कर उनको पृथ्वीपर पछाड़ दिया। फिर सुग्रीवने बड़ी फुर्तीसे उठकर उसको मारा। और तब बलवान् सुग्रीव प्रभुके पास आये और बोले कृपानिधान प्रभुको जय हो, जय हो. जय हो॥ ४॥

नाक कान काटे जियँ जानी।
फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी।।
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा।
देखत कपि दल उपजी त्रासा॥

नाक-कान काटे गये, ऐसा मनमें जानकर बड़ी ग्लानि हुई; और वह क्रोध करके लौटा। एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयंकर था और फिर बिना नाक कानका होनेसे और भी भयानक हो गया। उसे देखते ही वानरोंकी सेनामें भय उत्पन्न हो गया॥५॥

दो०- जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह॥६६॥

'रघुवंशमणिकी जय हो, जय हो, जय हो' ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौड़े और सबने एक ही साथ उसपर पहाड़ और वृक्षोंके समूह छोड़े॥६६॥

कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा।
सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई।
जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई।

रण के उत्साहमें कुम्भकर्ण विरुद्ध होकर [उनके] सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड-करोड वानरोंको एक साथ पकड-पकडकर खाने लगा! [वे उसके मुँहमें इस तरह घुसने लगे] मानो पर्वतकी गुफामें टिड्डियाँ समा रही हों॥१॥

कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा।
कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा।
मुख नासा श्रवनन्हि की बाटा।
निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा।

करोड़ों (वानरों) को पकड़कर उसने शरीरसे मसल डाला। करोड़ोंको हाथोंसे मलकर पृथ्वीकी धूलमें मिला दिया। [पेटमें गये हुए] भालू और वानरोंके ठट्ट-के ठट्ट उसके मुख, नाक और कानोंकी राहसे निकल-निकलकर भाग रहे हैं॥२॥

रन मद मत्त निसाचर दर्पा।
बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे।
सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥

रणके मदमें मत्त राक्षस कुम्भकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाताने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो, और उसे वह ग्रास कर जायगा। सब योद्धा भाग खड़े हुए, वे लौटाये भी नहीं लौटते। आँखोंसे उन्हें सूझ नहीं पड़ता और पुकारनेसे सुनते नहीं!॥३॥

कुंभकरन कपि फौज बिडारी।
सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखी राम बिकल कटकाई।
रिपु अनीक नाना बिधि आई।

कुम्भकर्ण ने वानर-सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस-सेना भी दौड़ी। श्रीरामचन्द्रजी ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गयी है॥४॥

दो०- सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥६७॥

तब कमलनयन श्रीरामजी बोले-हे सुग्रीव! हे विभीषण ! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को सँभालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेनाको देखता हूँ॥६७॥

कर सारंग साजि कटि भाथा।
अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कोन्हि प्रभु धनुष टॅकोरा।
रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥

हाथमें शार्ङ्गधनुष और कमरमें तरकस सजकर श्रीरघुनाथजी शत्रुसेनाको दलन करने चले। प्रभुने पहले तो धनुषका टंकार किया जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रुदल बहरा हो गया॥१॥

सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा।
कालसर्प जनु चले सपच्छा।
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा।
लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥

फिर सत्यप्रतिज्ञ श्रीरामजीने एक लाख बाण छोड़े। वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों। जहाँ-तहाँ बहुत-से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे॥२॥

कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा।
बहुतक बीर होहिं सत खंडा॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं।
उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं।

उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं। बहुत-से वीरोंके सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वीपर पड़ रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर सँभलकर उठते और लड़ते हैं॥३॥

लागत बान जलद जिमि गाजहिं।
बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं।
धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं॥

बाण लगते ही वे मेघकी तरह गरजते हैं। बहुत-से तो कठिन बाणको देखकर ही भाग जाते हैं। बिना मुण्ड (सिर) के प्रचण्ड रुण्ड (धड़) दौड़ रहे हैं और 'पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो' का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं॥४॥

दो०- छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥६८॥

प्रभुके बाणोंने क्षणमात्रमें भयानक राक्षसोंको काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण लौटकर श्रीरघुनाथजीके तरकसमें घुस गये॥६८॥

कुंभकरन मन दीख बिचारी।
हति छन माझ निसाचर धारी॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा।
कियो मगनायक नाद गंभीरा॥

कुम्भकर्णन मनमें विचारकर देखा कि श्रीरामजीने क्षणमात्रमें राक्षसी सेनाका संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने गम्भीर सिंहनाद किया॥१॥

कोपि महीधर लेइ उपारी।
डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥
आवत देखि सैल प्रभु भारे।
सरन्हि काटि रज सम करि डारे॥

वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहाँ डाल देता है। बड़े-बड़े पर्वतोंको आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूलके समान (चूर-चूर) कर डाला॥२॥

पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक।
छाँड़े अति कराल बहु सायक।
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं।
जिमि दामिनि घन माझ समाहीं।

फिर श्रीरघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत-से अत्यन्त भयानक बाण छोड़े। वे बाण कुम्भकर्ण के शरीर में घुसकर [पीछेसे इस प्रकार] निकल जाते हैं [कि उनका पता नहीं चलता], जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं॥ ३॥

सोनित स्त्रवत सोह तन कारे।
जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए।
बिहँसा जबहिं निकट कपि आए॥

उसके काले शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसी शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरू के पनाले बह रहे हों। उसे व्याकुल देखकर रीछ-वानर दौड़े। वे ज्यों ही निकट आये, त्यों ही वह हँसा॥ ४॥

दो०- महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥६९॥

और बड़ा घोर शब्द करके गरजा। तथा करोड़-करोड़ वानरोंको पकड़कर वह गजराजकी तरह उन्हें पृथ्वीपर पटकने लगा और रावणकी दुहाई देने लगा॥६९॥

भागे भालु बलीमुख जूथा।
बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा।
चले भागि कपि भालु भवानी।
बिकल पुकारत आरत बानी॥

यह देखकर रीछ-वानरोंके झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़ियेको देखकर भेड़ोंके झुंड! [शिवजी कहते हैं-] हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणीसे पुकारते हुए भाग चले॥१॥

यह निसिचर दुकाल सम अहई।
कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर राम खरारी।
पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥

[वे कहने लगे--] यह राक्षस दुर्भिक्षके समान है, जो अब वानरकुलरूपी देशमें पड़ना चाहता है। हे कृपारूपी जलके धारण करनेवाले मेघरूप श्रीराम! हे खरके शत्र! हे शरणागतके दुःख हरनेवाले ! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये!॥ २॥

सकरुन बचन सुनत भगवाना।
चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज पाछे घाली।
चले सकोप महा बलसाली।

करुणाभरे वचन सुनते ही भगवान धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली श्रीरामजीने सेनाको अपने पीछे कर लिया और वे [अकेले] क्रोधपूर्वक चले (आगे बढ़े)॥३॥

बैंचि धनुष सर सत संधाने।
छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा।
कुधर डगमगत डोलति धरा॥

उन्होंने धनुषको खींचकर सौ बाण सन्धान किये। बाण छुटे और उसके शरीरमें समा गये। बाणोंके लगते ही वह क्रोधमें भरकर दौड़ा। उसके दौड़नेसे पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी॥४॥

लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी।
रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी।
धावा बाम बाहु गिरि धारी।
प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥

उसने एक पर्वत उखाड़ लिया। रघुकुलतिलक श्रीरामजीने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बायें हाथमें पर्वतको लेकर दौड़ा। प्रभुने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वीपर गिरा दी।।५।।

काटें भुजा सोह खल कैसा।
पच्छहीन मंदर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका।
ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका।।

भुजाओंके कट जानेपर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंखका मन्दराचल पहाड़ हो। उसने उग्र दृष्टिसे प्रभुको देखा। मानो तीनों लोकोंको निगल जाना चाहता हो॥६॥

दो०- करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि॥७०॥

वह बड़े जोरसे चिग्घाड़ करके मुँह फैलाकर दौड़ा। आकाशमें सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस प्रकार पुकारने लगे। ७०॥

सभय देव करुनानिधि जान्यो।
श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो।
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ।
तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥

करुणानिधान भगवानने देवताओंको भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुषको कानतक तानकर राक्षसके मुखको बाणोंके समूहसे भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वीपर न गिरा॥१॥

सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा।
काल त्रोन सजीव जनु आवा॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा।
धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥

मुखमें बाण भरे हुए वह [प्रभुके] सामने दौड़ा। मानो कालरूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब प्रभुने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिरको धड़से अलग कर दिया॥२॥

सो सिर परेउ दसानन आगें।
बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा।
तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा॥

वह सिर रावणके आगे जा गिरा। उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणिके छूट जानेपर सर्प। कुम्भकर्णका प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धंसी जाती थी। तब प्रभुने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिये॥३॥

परे भूमि जिमि नभ तें भूधर।
हेठ दाबि कपि भालु निसाचर।
तासु तेज प्रभु बदन समाना।
सुर मुनि सबहिं अचंभव माना।

वानर-भालू और निशाचरोंको अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वीपर ऐसे पड़े जैसे आकाशसे दो पहाड़ गिरे हों। उसका तेज प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके मुख में समा गया। [यह देखकर] देवता और मुनि सभीने आश्चर्य माना॥४॥

सुर दुंदुभी बजावहिं हरषहिं।
अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए।
तेही समय देवरिषि आए।

देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत-से फूल बरसा रहे हैं। विनती करके सब देवता चले गये। उसी समय देवर्षि नारद आये॥५॥

गगनोपरि हरि गुन गन गाए।
रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए।
राम समर महि सोभत भए॥

आकाशके ऊपरसे उन्होंने श्रीहरिके सुन्दर वीररसयुक्त गुणसमूहका गान किया, जो प्रभुके मनको बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गये कि अब दुष्ट रावणको शीघ्र मारिये। [उस समय] श्रीरामचन्द्रजी रणभूमिमें आकर [अत्यन्त] सुशोभित हुए॥६॥

छं०- संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने॥


अतुलनीय बलवाले कोसलपति श्रीरघुनाथजी रणभूमिमें सुशोभित हैं। मुखपर पसीनेकी बूंदें हैं, कमलके समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं। शरीरपर रक्तके कण हैं, दोनों हाथोंसे धनुष-बाण फिरा रहे हैं। चारों ओर रीछ-वानर सुशोभित हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभुकी इस छबिका वर्णन शेषजी भी नहीं कर सकते जिनके बहुत-से (हजार) मुख हैं।

दो०- निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम॥७१॥

[शिवजी कहते हैं-] हे गिरिजे! कुम्भकर्ण, जो नीच राक्षस और पापकी खान था, उसे भी श्रीरामजीने अपना परमधाम दे दिया। अत: वे मनुष्य [निश्चय ही] मन्दबुद्धि हैं जो उन श्रीरामजीको नहीं भजते॥७१॥

दिन के अंत फिरीं द्वौ अनी।
समर भई सुभटन्ह श्रम घनी।
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा।
जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा॥

दिनका अन्त होनेपर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं। [आजके युद्धमें] योद्धाओंको बड़ी थकावट हुई। परन्तु श्रीरामजीकी कृपासे वानरसेनाका बल उसी प्रकार बढ़ गया जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ़ जाती है॥ १॥

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती।
निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप दसकंधर करई।
बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई।

उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं जिस प्रकार अपने ही मुखसे कहनेपर पुण्य घट जाते हैं। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कुम्भकर्ण) का सिर कलेजेसे लगाता है॥२॥

रोवहिं नारि हृदय हति पानी।
तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ।
कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥

स्त्रियाँ उसके बड़े भारी तेज और बलको बखान करके हाथोंसे छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत-सी कथाएँ कहकर पिताको समझाया॥३॥

देखेहु कालि मोर मनुसाई।
अबहिं बहुत का करौं बड़ाई।
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ।
सो बल तात न तोहि देखायउँ॥

[और कहा-] कल मेरा पुरुषार्थ देखियेगा। अभी बहुत बड़ाई क्या करूँ? हे तात! मैंने अपने इष्टदेवसे जो बल और रथ पाया था वह बल [और रथ] अबतक आपको नहीं दिखलाया था॥४॥

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना।
चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इत कपि भालु काल सम बीरा।
उत रजनीचर अति रनधीरा॥

इस प्रकार डींग मारते हुए सबेरा हो गया। लंकाके चारों दरवाजोंपर बहुत-से वानर आ डटे। इधर कालके समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यन्त रणधीर राक्षस॥५॥
 
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू।
बरनि न जाइ समर खगकेतू॥

दोनों ओरके योद्धा अपनी-अपनी जयके लिये लड़ रहे हैं। हे गरुड़! उनके युद्धका वर्णन नहीं किया जा सकता॥६॥

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