मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (लंकाकाण्ड) रामचरितमानस (लंकाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
मन्दोदरी-विलाप, रावण की अन्त्येष्टि-क्रिया
पति सिर देखत मंदोदरी।
मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बूंद रोवत उठि धाईं।
तेहि उठाइ रावन पहिं आईं।
मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बूंद रोवत उठि धाईं।
तेहि उठाइ रावन पहिं आईं।
पति के सिर देखते ही मन्दोदरी व्याकुल और मूछित होकर धरतीपर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई उठ दौड़ी और उस (मन्दोदरी) को उठाकर रावणके पास आयीं॥१॥
पति गति देखि ते करहिं पुकारा।
छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना।
रोवत करहिं प्रताप बखाना॥
छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना।
रोवत करहिं प्रताप बखाना॥
पतिकी दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गये, देह की सँभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकारसे छाती पीटती हैं और रोती हुई रावणके प्रतापका बखान करती हैं॥२॥
तव बल नाथ डोल नित धरनी।
तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा।
सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥
तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा।
सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥
[वे कहती हैं-] हे नाथ! तुम्हारे बलसे पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूलमें भरा हुआ पृथ्वीपर पड़ा है !॥३॥
बरुन कुबेर सुरेस समीरा।
रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं।
आजु परेहु अनाथ की नाईं।
रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं।
आजु परेहु अनाथ की नाईं।
वरुण, कुबेर, इन्द्र और वायु, इनमेंसे किसीने भी रणमें तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी ! तुमने अपने भुजबलसे काल और यमराजको भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथकी तरह पड़े हो॥४॥
जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई।
सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा।
रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥
सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा।
रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥
तुम्हारी प्रभुता जगतभरमें प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियोंके बलका हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्रीरामचन्द्रजीके विमुख होनेसे ही तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुलमें कोई रोनेवाला भी न रह गया।॥५॥
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा।
सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं।
राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥
सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं।
राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥
हे नाथ! विधाताकी सारी सृष्टि तुम्हारे वशमें थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे। किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओंको गीदड़ खा रहे हैं। रामविमुखके लिये ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात् उचित ही है)॥६॥
काल बिबस पति कहा न माना।
अग जग नाथु मनुज करि जाना।
अग जग नाथु मनुज करि जाना।
हे पति ! कालके पूर्ण वशमें होनेसे तुमने [किसीका] कहना नहीं माना और चराचरके नाथ परमात्माको मनुष्य करके जाना॥७॥
छं०- जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं।
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥
दैत्यरूपी वनको जलानेके लिये अग्निस्वरूप साक्षात् श्रीहरिको तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवानको हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्मसे ही दूसरोंसे द्रोह करनेमें तत्पर तथा पापसमूहमय रहा! इतनेपर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्रीरामजीने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।
दो०- अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान।।१०४॥
जोगि बंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान।।१०४॥
अहह ! नाथ! श्रीरघुनाथजीके समान कृपाका समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवानने तुमको वह गति दी जो योगिसमाजको भी दुर्लभ है॥ १०४॥
मंदोदरी बचन सुनि काना।
सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥
अज महेस नारद सनकादी।
जे मुनिबर परमारथबादी॥
सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥
अज महेस नारद सनकादी।
जे मुनिबर परमारथबादी॥
मन्दोदरीके वचन कानोंसे सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभीने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्माके तत्त्वको जानने और कहनेवाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥१॥
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी।
प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी।
गयउ बिभीषनु मन दुख भारी॥
प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी।
गयउ बिभीषनु मन दुख भारी॥
वे सभी श्रीरघुनाथजीको नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गये और अत्यन्त सुखी हुए। अपने घरकी सब स्त्रियोंको रोती हुई देखकर विभीषणजीके मनमें बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गये॥२॥
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा।
तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो।
बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥
तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो।
बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥
उन्होंने भाईकी दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु श्रीरामजीने छोटे भाईको आज्ञा दी [कि जाकर विभीषणको धैर्य बँधाओ]। लक्ष्मणजीने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया तब विभीषण प्रभुके पास लौट आये॥३॥
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका।
करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी।
बिधिवत देस काल जियँ जानी॥
करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी।
बिधिवत देस काल जियँ जानी॥
प्रभुने उनको कृपापूर्ण दृष्टिसे देखा [और कहा-] सब शोक त्यागकर रावणकी अन्त्येष्टि क्रिया करो। प्रभुकी आज्ञा मानकर और हृदयमें देश और कालका विचार करके विभीषणजीने विधिपूर्वक सब क्रिया की॥४॥
दो०- मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि।
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥१०५॥
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥१०५॥
मन्दोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावणको) तिलाञ्जलि देकर मनमें श्रीरघुनाथजीके गुणसमूहोंका वर्णन करती हुई महलको गयीं॥१०५॥
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो।
कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला।
जामवंत मारुति नयसीला॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।
सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ।
आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥।
कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला।
जामवंत मारुति नयसीला॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।
सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ।
आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥।
सब क्रिया-कर्म करनेके बाद विभीषणने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपाके समुद्र श्रीरामजीने छोटे भाई लक्ष्मणजीको बुलाया। श्रीरघुनाथजीने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील, जाम्बवान और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषणके साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजीके वचनोंके कारण मैं नगरमें नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाईको भेजता हूँ॥१-२॥
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