मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (लंकाकाण्ड) रामचरितमानस (लंकाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
0 |
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
पुष्पकविमान पर चढ़कर श्रीसीतारामजी का अवध के लिए प्रस्थान
अतिसय प्रीति देखि रघुराई।
लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो।
उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥
लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो।
उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥
श्रीरघुनाथजीने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनन्तर मन-ही-मन विप्रचरणोंमें सिर नवाकर उत्तर दिशाकी ओर विमान चलाया॥१॥
चलत बिमान कोलाहल होई।
जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर।
श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥
जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर।
श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥
विमानके चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई श्रीरघुवीरकी जय कह रहे हैं। विमानमें एक अत्यन्त ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उसपर सीताजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हो गये॥२॥
राजत रामु सहित भामिनी।
मेरु संग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर।
कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥
मेरु संग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर।
कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥
पत्नीसहित श्रीरामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरुके शिखरपर बिजलीसहित श्याम मेघ हो। सुन्दर विमान बड़ी शीघ्रतासे चला। देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलोंकी वर्षा की॥ ३॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी।
सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा।
मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥
सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा।
मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥
अत्यन्त सुख देनेवाली तीन प्रकारकी (शीतल, मन्द, सुगन्धित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियोंका जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुन्दर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं॥४॥
कह रघुबीर देखु रन सीता।
लछिमन इहाँ हत्यो इंद्रजीता।
हनूमान अंगद के मारे।
रन महि परे निसाचर भारे॥
लछिमन इहाँ हत्यो इंद्रजीता।
हनूमान अंगद के मारे।
रन महि परे निसाचर भारे॥
श्रीरघुवीरने कहा-हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मणने यहाँ इन्द्रको जीतनेवाले मेघनादको मारा था। हनुमान और अंगदके मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमिमें पड़े हैं॥५॥
कुंभकरन रावन द्वौ भाई।
इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥
इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥
देवताओं और मुनियोंको दुःख देनेवाले कुम्भकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गये॥६॥
दो०- इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥११९ (क)॥
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥११९ (क)॥
मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्रीशिवजीकी स्थापना की। तदनन्तर कृपानिधान श्रीरामजीने सीताजीसहित श्रीरामेश्वर महादेवको प्रणाम किया॥११९ (क)॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥११९ (ख)॥
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥११९ (ख)॥
वनमें जहाँ-जहाँ करुणासागर श्रीरामचन्द्रजीने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभुने जानकीजीको दिखलाये और सबके नाम बतलाये॥११९ (ख)॥
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा।
दंडक बन जहँ परम सुहावा॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना।
गए रामु सब के अस्थाना॥
दंडक बन जहँ परम सुहावा॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना।
गए रामु सब के अस्थाना॥
विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया जहाँ परम सुन्दर दण्डकवन था, और अगस्त्य आदि बहुत-से मुनिराज रहते थे। श्रीरामजी इन सबके स्थानोंमें गये॥१॥
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा।
चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा।
चला बिमानु तहाँ ते चोखा।
चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा।
चला बिमानु तहाँ ते चोखा।
सम्पूर्ण ऋषियोंसे आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर श्रीरामजी चित्रकूट आये। वहाँ मुनियोंको सन्तुष्ट किया। [फिर] विमान वहाँसे आगे तेजीके साथ चला॥२॥
बहुरि राम जानकिहि देखाई।
जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता।
राम कहा प्रनाम करु सीता॥
जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता।
राम कहा प्रनाम करु सीता॥
फिर श्रीरामजीने जानकीजीको कलियुगके पापोंका हरण करनेवाली सुहावनी यमुनाजीके दर्शन कराये। फिर पवित्र गङ्गाजीके दर्शन किये। श्रीरामजीने कहा-हे सीते! इन्हें प्रणाम करो॥३॥
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा।
निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी।
हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि।
त्रिविध ताप भव रोग नसावनि॥
फिर तीर्थराज प्रयागको देखो, जिसके दर्शनसे ही करोड़ों जन्मोंके पाप भाग जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणीजीके दर्शन करो, जो शोकोंको हरनेवाली और श्रीहरिके परम धाम [पहुँचने के लिये सीढ़ीके समान है। फिर अत्यन्त पवित्र अयोध्यापुरीके दर्शन करो, जो तीनों प्रकारके तापों और भव (आवागमनरूपी) रोगका नाश करनेवाली है॥ ४-५॥
दो०- सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥१२० (क)॥
यों कहकर कृपालु श्रीरामजीने सीताजीसहित अवधपुरीको प्रणाम किया। सजलनेत्र और पुलकितशरीर होकर श्रीरामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं।। १२० (क)।।
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनी हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥१२० (ख)॥
फिर त्रिवेणीमें आकर प्रभुने हर्षित होकर स्नान किया और वानरोंसहित ब्राह्मणोंको अनेकों प्रकारके दान दिये। १२० (ख)॥
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई।
धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु।
समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥
धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु।
समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥
तदनन्तर प्रभुने हनुमानजीको समझाकर कहा-तुम ब्रह्मचारीका रूप धरकर अवधपुरीको जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना॥१॥
तुरत पवनसुत गवनत भयऊ।
तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही।
अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥
तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही।
अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥
पवनपुत्र हनुमानजी तुरंत ही चल दिये। तब प्रभु भरद्वाजजीके पास गये। मुनिने [इष्टबुद्धिसे] उनकी अनेकों प्रकारसे पूजा की और स्तुति की और फिर [लीलाकी दृष्टिसे] आशीर्वाद दिया॥२॥
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी।
चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए।
नाव नाव कहँ लोग बोलाए।
चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए।
नाव नाव कहँ लोग बोलाए।
दोनों हाथ जोड़कर तथा मुनिके चरणोंकी वन्दना करके प्रभु विमानपर चढ़कर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराजने सुना कि प्रभु आ गये, तब उसने 'नाव कहाँ है ? नाव कहाँ है ?' पुकारते हुए लोगोंको बुलाया॥३॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो।
उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी।
बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥
उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी।
बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥
इतने में ही विमान गङ्गाजी को लाँघकर [इस पार] आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा। तब सीताजी बहुत प्रकार से गङ्गाजी की पूजा करके फिर उनके चरणोंपर गिरीं॥ ४॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा।
सुंदरि तव अहिवात अभंगा।
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल।
आयउ निकट परम सुख संकुल॥
सुंदरि तव अहिवात अभंगा।
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल।
आयउ निकट परम सुख संकुल॥
गङ्गाजीने मनमें हर्षित होकर आशीर्वाद दिया-हे सुन्दरी! तुम्हारा सुहाग अखण्ड हो। भगवान के तटपर उतरनेकी बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेममें विह्वल होकर दौड़ा। परम सुखसे परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया,॥५॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही।
परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई।
हरषि उठाइ लियो उर लाई॥
परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई।
हरषि उठाइ लियो उर लाई॥
और श्रीजानकीजीसहित प्रभुको देखकर वह [आनन्द-समाधिमें मन होकर] पृथ्वीपर गिर पड़ा, उसे शरीरकी सुधि न रही। श्रीरघुनाथजीने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्षके साथ हृदयसे लगा लिया॥६॥
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book