मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।
जानेहु तात संत संतत फुर।।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।4।।
जानेहु तात संत संतत फुर।।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।4।।
हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा
संत जानना। जो शम (मनके निग्रह), दम, (इन्द्रियों के निग्रह), नियम और नीति
से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते;।।4।।
दो.-निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।
जिन्हें निन्दा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे
चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे
प्राणों के समान प्रिय हैं।।38।।
चौ.-सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ।
भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।।
तिंन्ह कर संग सदा दुखदाई।
जिमि कपिलहि धालइ हरहाई।।1।।
भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।।
तिंन्ह कर संग सदा दुखदाई।
जिमि कपिलहि धालइ हरहाई।।1।।
अब असंतों (दुष्टों) का स्वभाव सुनो; कभी भूलकर भी उनकी संगति
नहीं करनी चाहिये। उनका संग सदा दुःख देनेवाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी
जातिकी) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गायको अपने संग से नष्ट कर डालती है।।1।
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी।
जरहिं सदा पर संपति देखी।।
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई।
हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।2।।
जरहिं सदा पर संपति देखी।।
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई।
हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।2।।
दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई सम्पत्ति
(सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निन्दा सुन पाते हैं,
वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्तेमें पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो।।2।।
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