मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
चौ.-एक बार रघुनाथ बोलाए।
गुर द्विज पुरबासी सब आए।।
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन।
बोले बचन भगत भव भंजन।।1।।
गुर द्विज पुरबासी सब आए।।
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन।
बोले बचन भगत भव भंजन।।1।।
एक बार श्रीरघुनाथजीके बुलाये हुए गुरु वसिष्ठजी, ब्राह्मण और
अन्य सब नगरनिवासी सभामें आये। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन
यथा योग्य बैठ गये, तब भक्तोंके जन्म-मरणको मिटानेवाले श्रीरामजी वचन
बोले-।।1।।
सुनहु सकल पुरजन मम बानी।
कहउँ न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।2।।
कहउँ न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।2।।
हे समस्त नगर निवासियों! मेरी बात सुनिये। यह बात मैं हृदय में
कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीति की बात ही करता हूँ और न इससे कुछ
प्रभुता ही है इसलिये [संकोच और भय छोड़कर ध्यान देकर] मेरी बातों को सुन लो
और [फिर] यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उनके अनुसार करो!।।2।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।3।।
मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।3।।
वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। हे
भाई! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक
देना।।3।।
बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा
है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम
और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
दो.-सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।43।।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।43।।
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा [अपना
दोष न समझकर] काल पर, कर्म पर और ईश्वरपर मिथ्या दोष लगाता है।।43।।
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