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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :59
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 538
आईएसबीएन :000000000

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तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।26।।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।


इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहदों को भी देखा।।26 और 27वेंका पूर्वार्ध।।

इस युद्ध में कौरवों और पाण्डवों दोनों के पक्ष में अधिकतर योद्धा परिवार या कुटुम्ब-जन या उनके मित्र राजा थे। जो कौरवों के पक्ष में लड़ रहे थे वे पाण्डवों के भी पारिवारिक, कुटुम्ब-जन अथवा मित्र थे। चूँकि यह पारिवारिक कलह थी, जो कि एक विशाल युद्ध का रूप धारण कर चुकी थी, इस कारण युद्ध के केन्द्र में अर्जुन को दिखने वाले सभी उसके सम्बन्धी अथवा मित्र रहे थे। यहाँ अर्जुन को पार्थ अर्थात् पृथा का पुत्र के नाम से कहने के पीछे महामुनि व्यास पाठकों को स्मरण करवाना चाहते हैं कि अर्जुन पृथा अर्थात् वह एक ऐसी माँ का पुत्र है जिसने अपने पुत्रों का समुचित विकास किया है। उसकी माँ पृथा जीवनदायिनी शक्ति की द्योतक है न कि जीवन के विनाश की शक्ति की! संस्कृत की पृ धातु का अर्थ होता है जो पोषण करे, सुखकर हो अथवा विकास करे। इस भाव से अर्जुन की माँ इन सभी सकारात्मक गुणों को प्रत्यक्ष करती है। इस नाम को सुनकर अर्जुन को जीवन की विकास करने वाली शक्ति का ध्यान आ सकता है। युद्ध के समय यदि किसी को जीवन की विकासमयी शक्ति पर ध्यान जायेगा तब यह भी स्वाभाविक है कि तदुपरांत उसे यह विचार भी आ सकता है कि अब वह उसी जीवन को नष्ट करने का कार्य करने जा रहा है।

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