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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।19।।

जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है।।19।।

कुछ लोग आत्मा को हन्ता मानते हैं तो कुछ उसे हत हुआ मानते हैं। वास्तव में आत्मा न तो मारने वाला है और न मरने वाला। जन्म और मृत्यु तो केवल परमात्मा के व्यक्त रूप अर्थात् इस जगत् में जन्मे शरीर पर ही लगते हैं। इसलिए मरने और मारने की क्रिया शरीर के सापेक्ष होती है और उस परमात्मा पर नहीं लगती। विद्वान व्यक्ति जानते हैं कि परमात्मा न मारा जाता है और न मारने वाला होता है। किंचित लोग आत्मा शब्द का प्रयोग विभिन्न रुपों में करते हैं। जैसे यदि अत्यंत गर्मी के दिन हों तो वे कहेंगे कि “आत्मा तप गया है” अथवा बहुत ठंड के दिनों में वे कहेंगे कि “इतनी अधिक ठंड है कि आत्मा तक पहुँच गई है”। इसी प्रकार भरपेठ भोजन करने पर कहेंगे, “आत्मा तृप्त हो गई”। किसी गंभीर मानसिक दुःख की अवस्था में कहेंगे कि, “आत्मा भीतर तक दुःखी हो गया।” किसी मानसिक रूप से थकाने वाले काम के बाद कहेंगे, “आत्मा थक गया!” इस प्रकार हम देखते हैं कि जब हम बिना ठीक से विचार किये अपने कार्यकलापों के साथ परमात्मा को जोड़ते हैं तो उस समय हम परमात्मा को शरीर, मन अथवा बुद्धि ही समझते हैं। इसी प्रकार का ज्ञान धारण करने वाले लोग आत्मा को हत हुआ अथवा हन्ता मान लेते हैं। जबकि वास्तविकता मरना अथवा मारना ये दोनों क्रियायें केवल शरीर पर लगती हैं।

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।20।।

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न ही मरता है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।।20।।

जीवन और मृत्यु के चक्र में पहले जन्म होता है और फिर मृत्य होती है, तत्पश्तात् पुनः जन्म। यह नियम जायमानों (जिनका जन्म हो सकता है) पर लगता है, लेकिन परमात्मा कभी जन्म ले और पुनः मृत्यु को प्राप्त हो, ऐसा नहीं होता। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि परमात्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से परे हैं, परंतु उसके दृश्य रूप इस चक्र से नहीं बच पाते। परमात्मा अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन (सबसे पुराना अर्थात् सृष्टि के आरंभ से) है, शरीर तो उसके जीवन चक्र के आरंभ करने के बाद ही प्रगट होते हैं, इसी कारण जन्म और मृत्य को प्राप्त होते रहते हैं, परंतु परमात्मा नहीं।

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