मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
आप मिले हुए-से वचनों (परस्पर विपरीत अथवा अलग-अलग अर्थों
वाली भाषा) से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिये उस एक बात को
निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।।2।।
अर्जुन कहते हैं, भगवान् दोनों पक्षों की बात कह रहे हैं, इस कारण वह स्पष्ट समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके लिए क्या श्रेयस्कर है। इसलिए अर्जुन भगवान् से अनुरोध करते हैं कि वह स्पष्ट रूप से एक पक्ष में अपना मत दें ताकि अर्जुन को सही मार्ग मिले और उनका कल्याण हो। हम अधिकांशतः अनुभव करते हैं कि कभी-कभी कोई राजनेता, समाजसेवी अथवा विद्वान व्यक्ति किसी अत्यंत गंभीर तथ्य के विषय में व्याख्यान देते समय उसके पक्ष-विपक्ष में कई तर्क प्रस्तुत करता है। इस प्रकार की बातें सुनते समय हम कभी-कभी दिग्भ्रमित होने लगते हैं। इसलिए विषय वस्तु को भली-भाँति समझने के लिए हम ऐसे प्रश्न पूछते हैं, जिससे हमारा संशय दूर हो सके। धनुर्धारी अर्जुन मन-मस्तिष्क से युद्ध और युद्ध नीतियों के विषय में विचार करने में अभ्यासरत रहा है, अब अचानक भगवान् उसे कर्मयोग और सांख्ययोग के बारे में समझाने लगते हैं, जो कि सामान्यतः बौद्धिक व्यक्ति के विचार का विषय होता है। स्वाभाविक है कि अर्जुन भगवान् की बात में अपना हित देख रहा है, लेकिन तब उसे यह शंका होती है कि जब भगवान् के अनुसार सांख्ययोग अच्छा है तो फिर उसे श्रेयस्कर कार्य करने की बजाय निम्नतर कर्मयोग करने को कह रहे हैं।
अर्जुन कहते हैं, भगवान् दोनों पक्षों की बात कह रहे हैं, इस कारण वह स्पष्ट समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके लिए क्या श्रेयस्कर है। इसलिए अर्जुन भगवान् से अनुरोध करते हैं कि वह स्पष्ट रूप से एक पक्ष में अपना मत दें ताकि अर्जुन को सही मार्ग मिले और उनका कल्याण हो। हम अधिकांशतः अनुभव करते हैं कि कभी-कभी कोई राजनेता, समाजसेवी अथवा विद्वान व्यक्ति किसी अत्यंत गंभीर तथ्य के विषय में व्याख्यान देते समय उसके पक्ष-विपक्ष में कई तर्क प्रस्तुत करता है। इस प्रकार की बातें सुनते समय हम कभी-कभी दिग्भ्रमित होने लगते हैं। इसलिए विषय वस्तु को भली-भाँति समझने के लिए हम ऐसे प्रश्न पूछते हैं, जिससे हमारा संशय दूर हो सके। धनुर्धारी अर्जुन मन-मस्तिष्क से युद्ध और युद्ध नीतियों के विषय में विचार करने में अभ्यासरत रहा है, अब अचानक भगवान् उसे कर्मयोग और सांख्ययोग के बारे में समझाने लगते हैं, जो कि सामान्यतः बौद्धिक व्यक्ति के विचार का विषय होता है। स्वाभाविक है कि अर्जुन भगवान् की बात में अपना हित देख रहा है, लेकिन तब उसे यह शंका होती है कि जब भगवान् के अनुसार सांख्ययोग अच्छा है तो फिर उसे श्रेयस्कर कार्य करने की बजाय निम्नतर कर्मयोग करने को कह रहे हैं।
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