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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।।

यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है।।12।।

इस सृष्टि में जो हमें बिना माँगे देते हैं, हम उन्हें ही देवता कहते हैं। देवता शब्द ही दिव् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है देना। अन्य प्राणियों की बात छोड़ भी दें, परंतु हम मनुष्यों के जीवन को चलाने के लिए वायु, जल, अग्नि सूर्य का प्रकाश आदि कितना आवश्यक है, यह हम सभी जानते हैं। कभी-कभी इस विषय में कतिपय लोग तर्क-कुतर्क कर सकते हैं कि वे इसके लिए न्यून या अधिक प्रयास करते हैं, तब कहीं जाकर उन्हें स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, पृथ्वी पर रहने के विशेष स्थान के अनुपात में सूर्य का प्रकाश और ताप मिलता है। परंतु हमारे शरीरों के सभी कार्यकलाप के लिए विकल्परहित अंतरिक्ष अथवा आकाश जिसे हम स्थान के रूप में भी जानते हैं, वह तो हमें निश्चय ही स्वतः मिला हुआ है। इसके लिए हममें से कोई भी मनुष्य इस बात का दावा तक नहीं कर सकता कि उसने इसके लिए कुछ किया है, या कभी कुछ कर सकेगा। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि देवता हमें जीवन सुचारु रूप से चलाने के लिए सभी आवश्यक वस्तुओं को स्वतः ही देते रहते हैं। हम इन देवताओं को उनके इस उपकार के लिए और कुछ तो नहीं दे सकते, परंतु उनके पोषित होने और यथा कार्य करते रहने के लिए यज्ञ और सद्विचार तो कर ही सकते हैं। यदि हम इनके इस दान के प्रति कृतज्ञ हुए बिना इस दान का उपभोग करते हैं, तो इस अवस्था में बिना कार्य किए वस्तु पाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को तो चोर ही कहा जाता है।

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