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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।


जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।।20।।

जब व्यक्ति किसी एक ही विषय पर बार-बार विचार करता है तब यह समझा जाता है कि उसे उस विषय में आसक्ति है। राज्य चलाने के लिए व्यक्ति को युद्ध में कुशल, वीर और नियंत्रण करने में समर्थ होना आवश्यक होता है। एक ही प्रकार के कार्य लगातार करते रहने से स्वाभाविक है उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। चूँकि अर्जुन स्वयं राजपरिवार के सदस्य हैं, बल्कि सर्वथा राजा बनने के योग्य हैं। यदि अर्जुन के महाभारत के युद्ध से पहले के जीवन पर ध्यान दें तो उन्होंने कई महत्वपूर्ण युद्ध पाण्डवों के लिए जीते हैं। इसलिए स्वाभाविक है यदि उन्हें जीवन के बारे में कोई प्रेरणात्मक उदाहरण दिया जाए तो किसी अन्य राजा का ही उदाहरण देना उचित होगा। सम्भवतः इसी उद्देश्य भगवान् उन्हें राजा जनक का उदाहरण देते हैं। यहाँ एक विशेष बात यह है कि जनक उन राजाओं में से एक हैं, जिन्हें राजा होने के साथ-साथ ज्ञानी के रूप में भी जाना जाता है। उपनिषदों और पुराणों में राजा जनक और उनकी तथा याज्ञवल्क्य, अष्टावक्र आदि ऋषियों की तत्त्त्वज्ञान पर चर्चा बार-बार आती है। भगवान् कहते हैं कि जनक यह भली-भाँति जानते हैं कि राजाओं के लिए आसक्ति के कई कारण होते हैं, इसीलिए वे उन सभी आसक्तियों की उपेक्षा करके आसक्ति रहित कर्म करते हैं। इसके अतिरिक्त लोकसंग्रह अथवा समाज के हित में किसी एक आसक्ति में लिप्त होने की अपेक्षा व्यक्तिगत आसक्तियों को छोड़कर समाजहित में कर्म करना अधिक श्रेष्ठ है।

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