मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।6।।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।6।।
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से
रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी
अर्थात् दम्भी कहा जाता है।।6।।
व्यक्ति की इंद्रियाँ उसके इस संसार सें संपर्क करने का साधन होती हैं। नेत्र आस-पास की सभी वस्तुओं को देखने के लिए बने होते हैं। नासिका सूँघने का कार्य करती है, कान ध्वनि सुनने के लिए हैं, जिह्वा विभिन्न प्रकार के स्वादों को ग्रहण करने के लिए होती है। त्वचा इस शरीर की सीमाओँ को स्मरण करवाने के लिए होती है। जीवन के क्रमिक विकास में ये सभी हमें सहज रूप में प्राप्त हुई हैं। जीवन की सुरक्षा और संचालन के लिए इनसे अधिक की आवश्यकता नहीं और यदि इनमें से एक भी इंद्रिय मात्र कुछ ही क्षणों के लिए ठीक से काम न कर रही हो तो हमें तत्काल इनकी आवश्यकता का भरपूर ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह समझना तो सहज है कि इंद्रियाँ हमारे जीवन में अत्यावश्यक हैं। इन्हें कर्मेन्द्रियाँ कहते हैं। इन सभी कर्मेन्द्रियों के चलाने वाली इंद्रियों को ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। नेत्र को दिखने वाली वस्तुओं में से किन पर हमारा ध्यान जाता है, वहाँ से हमारी कर्मेन्द्रिय कार्य करती है। किस दृश्य से हम सुखी होते हैं, किससे दुःखी, किस दृश्य को हम बारम्बार देखना चाहते हैं और किस दृश्य को नहीं देखना चाहते हैं, यह हमारी कर्मेन्द्रिय का कार्यक्षेत्र है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की कर्मेन्द्रियाँ उनके मन और बुद्धि के अनुसार कार्य करती हैं। यही बात अन्य सभी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के बारे में कही जा सकती है। भगवान् कहते है कि हम कर्मेन्द्रियों का हठात् रोकने की चेष्टा करते हैं, तो कुछ सीमा और कुछ क्षणों के लिए हम उन पर नियंत्रण कर लेते हैं, परंतु यह नियंत्रण कुछ ही समय के लिए होता है। लेकिन यह नियंत्रण भी मात्र कर्मेन्द्रियों तक सीमित होता है। ज्ञानेन्द्रिय और मन पर तो इनका नियंत्रण लेशमात्र भी नहीं होता है। ध्यान करने वाले साधक को यह बात भली-भाँति ज्ञात होती है। इसलिए जो लोग यह दिखावा करते हैं कि उनका कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों तथा मन पर नियंत्रण करते हैं, वे वास्तव में दम (आंतरिक शक्ति) का केवल दिखावा करते हैं, इसलिए दम्भी कहलाते हैं। चूँकि वे सतत् अपना नियंत्रण नहीं रख सकते हैं, इसलिए उनका नियंत्रण मिथ्या है, इसलिए ऐसे लोग मिथ्याचारी कहलाते हैं।
व्यक्ति की इंद्रियाँ उसके इस संसार सें संपर्क करने का साधन होती हैं। नेत्र आस-पास की सभी वस्तुओं को देखने के लिए बने होते हैं। नासिका सूँघने का कार्य करती है, कान ध्वनि सुनने के लिए हैं, जिह्वा विभिन्न प्रकार के स्वादों को ग्रहण करने के लिए होती है। त्वचा इस शरीर की सीमाओँ को स्मरण करवाने के लिए होती है। जीवन के क्रमिक विकास में ये सभी हमें सहज रूप में प्राप्त हुई हैं। जीवन की सुरक्षा और संचालन के लिए इनसे अधिक की आवश्यकता नहीं और यदि इनमें से एक भी इंद्रिय मात्र कुछ ही क्षणों के लिए ठीक से काम न कर रही हो तो हमें तत्काल इनकी आवश्यकता का भरपूर ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह समझना तो सहज है कि इंद्रियाँ हमारे जीवन में अत्यावश्यक हैं। इन्हें कर्मेन्द्रियाँ कहते हैं। इन सभी कर्मेन्द्रियों के चलाने वाली इंद्रियों को ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। नेत्र को दिखने वाली वस्तुओं में से किन पर हमारा ध्यान जाता है, वहाँ से हमारी कर्मेन्द्रिय कार्य करती है। किस दृश्य से हम सुखी होते हैं, किससे दुःखी, किस दृश्य को हम बारम्बार देखना चाहते हैं और किस दृश्य को नहीं देखना चाहते हैं, यह हमारी कर्मेन्द्रिय का कार्यक्षेत्र है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की कर्मेन्द्रियाँ उनके मन और बुद्धि के अनुसार कार्य करती हैं। यही बात अन्य सभी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के बारे में कही जा सकती है। भगवान् कहते है कि हम कर्मेन्द्रियों का हठात् रोकने की चेष्टा करते हैं, तो कुछ सीमा और कुछ क्षणों के लिए हम उन पर नियंत्रण कर लेते हैं, परंतु यह नियंत्रण कुछ ही समय के लिए होता है। लेकिन यह नियंत्रण भी मात्र कर्मेन्द्रियों तक सीमित होता है। ज्ञानेन्द्रिय और मन पर तो इनका नियंत्रण लेशमात्र भी नहीं होता है। ध्यान करने वाले साधक को यह बात भली-भाँति ज्ञात होती है। इसलिए जो लोग यह दिखावा करते हैं कि उनका कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों तथा मन पर नियंत्रण करते हैं, वे वास्तव में दम (आंतरिक शक्ति) का केवल दिखावा करते हैं, इसलिए दम्भी कहलाते हैं। चूँकि वे सतत् अपना नियंत्रण नहीं रख सकते हैं, इसलिए उनका नियंत्रण मिथ्या है, इसलिए ऐसे लोग मिथ्याचारी कहलाते हैं।
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