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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘यह मेरी लड़की समान है और यह देखिये, मेरे साथ मिसेज बागड़िया हैं। वास्तव में आप मैत्रेयी से माता समान स्नेह रखती हैं और इनके द्वारा ही मेरा मैत्रेयी से सम्पर्क बना है। मैत्रेयी अति प्रिय लड़की है। हमने इसके विवाह का निमन्त्रण-पत्र पढ़ा तो हम चले आए हैं जिससे लड़की को यदि किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो तो पता करें।’’
‘‘अब तो मैं मैत्रेयी की ओर से आपका धन्यवाद कर सकता हूं।’’ यह कह साइमन ने मैत्रेयी से पूछ लिया, ‘‘क्यों, मैत्रेयी! किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता अनुभव करती हो क्या?’’
मैत्रेयी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘हमारे सब प्रबन्ध पूर्ण हो चुके हैं। यद्यपि मैं अगले सप्ताह माता जी के दर्शन की आशा करती थी। यह इनकी अति अनुकम्पा ही माननी चाहिए जो समय से पहले ही चली आयी हैं। मैं समझती हूं कि हमारी बात तो समाप्त हो गयी है। फिर कल किस समय दर्शन हो सकेंगे?’’
‘‘मैं इसी समय आऊंगा जिस समय आज आया था। अब मैं चलता हूं।’’ इतना कह साइमन उठ खड़ा हुआ। मिस्टर बागड़िया भी उठा और साइमन के साथ ही कमरे से निकल गया। दोनों क्वार्टर से निकले तो फिर तीन घन्टे तक उनमें से कोई नहीं लौटा।
यशोदा और करोड़ीमल लगभग साढ़े पांच बजे सायंकाल आये थे। उसी समय मिस्टर बागड़िया और प्रोफेसर साइमन गये तो फिर तीन घन्टे तक करोड़ीमल नहीं लौटा। साढ़े आठ बजे वह अकेला लौटा। इस समय तक यशोदा और मैत्रेयी में बहुत लम्बी बातचीत हो चुकी थी और उस बातचीत पर दोनों विचार करती हुई मौन बैठी थीं। करोड़ीमल आया तो दोनों को अपने-अपने विचार में लीन देख पूछने लगा, ‘‘तो मां बेटी लड़ पड़ी हैं जो इस प्रकार चिन्ताग्रस्त बैठी हैं?’’
‘‘नहीं जी!’’ यशोदा ने कह दिया, ‘‘पिता-पुत्र तो लड़ सकते है, परन्तु मां-बेटी कभी लड़ती नहीं देखी गयीं।’’
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