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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मैंने पूछा था, चाहे वह वचन भूल अथवा अज्ञानता में दिया गया हो तब भी?’’
‘‘उसका उत्तर था, मैं इसे न तो भूल समझती हूं और न ही अज्ञानवश दिया हुआ मानती हूं। इस पर भी यदि यह ऐसा होता तब भी मैं इसका पालन करती। इसका सम्बन्ध मेरी आत्मोन्नति से है और वही तो मैं हूं। शारीरिक कष्ट आत्मा की प्रगति में बाधा नहीं हो सकेंगे। ऐसा मैं यत्न कर रही हूं।’’
‘‘दो घण्टे के वार्त्तालाप में मैं उसे टस से मस नहीं कर सकी। मुझे सन्देह है कि वह अभी भी यह समझती है कि मैं तेज के लिए उसके मन में स्थान बना रही हूं। इसी से बचने के लिए मैंने नज़ीर की बात उसे नहीं बतायी। तेज के विषय में भी अब होटल में आकर ही उससे कहा था। इस पर भी उसने दो-तीन बार संकेत किया था कि तेजकृष्ण के साथ वचन भूल थी और इस भूल का ज्ञान तेज ने ही कराया है। प्रोफेसर से वह वैसी आशा नहीं कर सकती।’’
‘‘अन्त में उसने यह कहा कि इस संसार के संयोग-वियोग क्षणभंगुर हैं। उनके विषय में सोच-विचार करना, चिन्ता, जुगुप्सा समय का अपव्यय है। और अब तो इस पर अल्प जीवन का कार्यक्रम बन चुका है। मैं इसमें विघ्न-बाधा तथा परिवर्तन की आवश्यकता नहीं समझती।’’
‘‘बहुत हठी लड़की है।’’ करोड़ीमल का कहना था।
‘‘इसको हठ नहीं कहते। हठ तो अयुक्तिसंगत होता है। वह अपने कार्य की युक्तियुक्त मीमांसा भी करती है। कठिनाई यह है कि मैं उस जितना पढ़ी नहीं और उसके समान युक्ति नहीं कर सकी। इससे मैं उसको समझा नहीं सकी कि वह कुछ गलत कर रही है।’’
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