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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘यह कहां से मंगवा लिया है?’’ यशोदा ने पूछा, ‘‘भूख तो लगी थी। चाय का समय भी हो गया है।’’
मैत्रेयी ने प्लेट में यशोदा के सम्मुख खाने का सामान लगा दिया और चाय बनाने लगी। यशोदा ने पेस्ट्री के एक टुकड़े को चम्मच से काट कांटे से उठा मुख में डालते हुए पूछ लिया, ‘‘निर्वाह का क्या प्रबन्ध है?’’
‘‘यहां विश्वविद्यालय में दो सौ पौण्ड मासिक पर पढ़ाने का कार्य मिल गया है। इससे मेरे शोध-प्रबन्ध के समाप्त होने में देर तो हो गयी है, परन्तु निर्वाह होने लगा है और साथ ही जीवन का उपकारी कार्य होने लगा है। मैं अपने ज्ञान का दान भी करने लगीं हूं।’’
‘‘और शोध-कार्य कहां तक पहुंचा है?’’
‘‘वैसे तो भारत जाने से पूर्व प्रबन्ध लिखकर पूर्ण कर गयी थी, परन्तु गाइड को उसमें कुछ स्थल ऐसे समझ में आये थे कि उन पर मत कुछ अधिक स्पष्ट नहीं था। उनका कहना था कि यहां विरोधी पक्ष की संख्या बहुत है और निरीक्षक कौंसिल में विरोधी पक्ष बहुसंख्या में होगा। इस कारण उन स्थलों को, जिन पर मतभेद है, अधिक व्याख्या और प्रमाण सहित प्रस्तुत करना चाहिये। इसी के करने में छः मास लग गये हैं। अब मेरा प्रबन्ध कौंसिल के पास चला गया है और जहां तक मैं समझती हूं कि वे लोग उसके विषय में मुझ पर प्रश्नों की भरमार करने वाले हैं। मैं भी उनको पूर्ण रूप में उत्तर-प्रत्युतर देने की तैयारी कर रही हूं।’’
‘‘लन्दन आने का अवकाश नहीं मिलता?’’
‘‘अभी तक तो सर्वथा अवकाश नहीं था। पढ़ाई कराने की तैयारी और पढ़ाने से जितना भी समय बचता था, वह अपने प्रबन्ध को परिमार्जित करने में व्यय करती थी। पिछले सप्ताह से काम से छुट्टी पायी है और अब प्रश्नों के बौछार के विरोध की तैयारी थी। मैं समझती हूं कि यह काम भी अगले सप्ताह में समाप्त हो जायेगा। उसके उपरान्त आशा करती हूं कि यहां से अवकाश के दिन लन्दन पिता जी का धन्यवाद करने आऊं।’’
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