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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
सालिहा ने ही अपने वहाँ आने की बात बता दी। उसने ज्ञानस्वरूप से कहा, ‘‘यासीन बेटा! जब तुमने यह मंजूर किया है कि तुम इस काम को नगीना के लिए छोड़ बम्बई जाना मंजूर करते हो तो मैंने मुनासिब समझा कि मैं यहाँ दिल्ली में ही ठहर जाऊँ और किसी नेक दीनदार नौजवान से नगीना की शादी का बन्दोबस्त करूँ और फिर वह तुम्हारे काम को सम्भाल ले।’’
‘‘ठीक है अम्मी! यत्न करो। जब तक मेरी और उसकी जमानत है, उसकी शादी नहीं की जा सकती। पीछे यह जहाँ चाहे शादी कर सकती है। इसमें मैं दखल नहीं दूँगा। यह तुम जानो और तुम्हारी बेटी जाने।
‘‘मगर एक बात मैं कहूँगा। वह यह कि उस पर तुम्हारी या अब्बाजान की जबरदस्ती कार्यवाही नहीं होने दूँगा।’’
‘‘उसे मैं राजी कर लूँगी।’’
‘‘तू मैं इस मामले में दखल नहीं दूँगा।’’
मगर रात जब सोने के कमरे में ज्ञानस्वरूप और प्रज्ञा तैयारी कर रहे थे तो बाहर से धीरे से किसी ने द्वार खटखटाया।
‘‘कौन?’’ प्रज्ञा ने आवाज दी। बाहर से सरस्वती की आवाज आई, ‘‘मैं सरस्वती।’’
प्रज्ञा ने दरवाजा खोल दिया।
सरस्वती भीतर आई और द्वार बन्द कर दिया। तदनन्तर बैठ कर बोली, ‘‘ज्ञान! इस वक्त तुम्हारी छोटी अम्मी कमला के कमरे में भीतर से दरवाजा बन्द किये हुए है।’’
‘‘और कमला ने मना नहीं किया?’’
‘‘यह मुझे पता नहीं कि क्या हुआ है। घर की खादिमा ने मुझे यह बताया है कि बेटी सो रही थी कि वह उसके कमरे में चली गई और भीतर से चिटकनी चढ़ा ली है।’’
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