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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘क्या नाम रख लूँ?’’
प्रज्ञा ने कुछ क्षण विचार किया और कह दिया, ‘‘देखिए! मेरा नाम है प्रज्ञा। इसके मायने हैं अक्ल और अक्ल इल्म के सहारे काम करती है। मैं हूँ आपके सहारे। इस कारण आप हैं इल्म। उस जबान में इल्म का मतलब है ज्ञान। इसलिए आप हैं ज्ञानस्वरूप।’’
‘‘बहुत खूब! तुम अक्ल हो जो मुझ इल्म के सहारे है।’’
‘‘जी!’’
‘‘तब ठीक है। क्या नाम बताया है?’’
‘‘ज्ञानस्वरूप।’’
‘‘तो इसको भी लिखकर याद कर लूँ?’’
‘‘जरूरत नहीं। अब मैं आपको इसी नाम से बुलाया करूँगी तथा आपका दूसरों से परिचय इसी नाम से दिया करूँगी। कुछ ही दिनों में यह नाम आपको याद हो जाएगा।’’
फिर एक दिन यह भी बात हुई कि क्यों इसी जबान में बातचीत और नाम रखे जाएँ? जब यह बात चली तो प्रज्ञा ने इस जबान के बनने की कहानी बता दी।
उसने बताया कि यह जबान सबसे पहले पैदा हुई। इसमें वस्तुओं के जो नाम हैं, वे उनके कार्यों से सम्बन्ध रखते हैं। कोई भी नाम ऐसा नहीं जो मायने न रखता हो। इससे हकीकी इल्म (ज्ञान) इसी जबान को जानने से पता चलता है। बाकी जबानें इसी में से बिगड़कर निकली हैं। उनसे अक्सर मायने भी गलत समझ आने लगते हैं।’’
‘‘तो?’’
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