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उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘यह मेरे मन में किसी की स्मृति हरी-भरी कर रही है। मैं उससे बहुत प्रेम करता था।’’
‘‘वह आपकी लड़की थी क्या?’’
‘‘नहीं।’’ बड़ौज ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, ‘‘वह मेरी पत्नी थी।’’
‘‘तो उसका क्या हुआ।’’
बड़ौज खिल-खिलाकर हँस पड़ा। इस समय तक दोनों बरामदे में पहुँच गए थे। बिन्दू आशा कर रही थी कि उसका पति किसी भी समय उसके पीछे-पीछे आ सकता है, उसके आने से पहले ही वह बात कर लेना चाहती थी। इस कारण उसने बैठते ही कहा, ‘‘देखो बड़ौज! अब मुझसे आँखमिचौली नहीं खेली जा सकती। प्रातःकाल से ही यह खेल खेलते-खेलते मैं थक गई हूँ। पहले तो मैं समझ नहीं सकी थी कि मैं क्या खेल खेल रही हूँ। अब समझ गई हूँ। बताओ, तुम यहाँ क्यों आए हो?’’
‘‘तुम्हें ले चलने के लिए।’’
‘‘क्या यह सम्भव है?’’
‘‘मैं बताती हूँ। वह यहाँ का मजिस्ट्रेट है। इस सर्दी की ऋतु में कचहरी बन्द है। फिर भी उसको मजिस्ट्रीयल-पावर उसके पास है। वह तुमको कैद करा सकता है। यहाँ से धक्के दे-देकर निकलवा सकता है।
‘‘मैं उसके ऐसा करने से पहले उसका काम तमाम कर दूँगा।’’
‘‘तब क्या होगा? तुमको पकड़कर फाँसी पर लटकवा दिया जाएगा और ये बच्चे अनाथ हो जाएँगे। मैं तो विधवा हो ही जाऊँगी।’’
‘‘उसके पाप का फल उसको मिल जाएगा।’’
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