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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611
आईएसबीएन :9781613011102

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।

प्रारब्ध है पूर्व जन्म के कर्मों का फल। फल तो भोगना ही पड़ता है, परन्तु पुरुषार्थ से उसकी तीव्रता को कम किया जा सकता है अथवा यह भी कह सकते हैं कि उसको सहन करने की शक्ति बढ़ाई जा सकती है। ‘‘प्रारब्ध और पुरुषार्थ’’ का यही कथानक है। अकबर के जीवन के एक पृष्ठ को आधार बनाकर रचा गया अत्यन्त रोचक उपन्यास।

मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है। इस कारण भाग्य (प्रारब्ध) के विरुद्ध जब वह पुरुषार्थ करता है तो उसके परिणाम (शुभ अथवा अशुभ) का उत्तरदायित्व उसका अपना होना है। तब वह भाग्य पर दोषारोपण नहीं कर सकता।

प्रथम परिच्छेद

1

आगरा से दस मील उत्तर की ओर मथुरा की सड़क के किनारे भटियारिन की सराय नाम का एक स्थान था जिसके आज भग्नांश ही शेष रह गए हैं। अकबर के काल में वहाँ एक सराय थी और अकबर के पोते शहंशाह शाहजहाँ के काल में वहाँ एक भरा-पूरा गाँव था। इस पर भी इस निर्धनों के गाँव में महल और अटारियाँ थीं, सड़कें और उद्यान थे। आज उस स्थान पर एक टीला है जो प्रकट करता है कि वह किसी गाँव के मलबे का ढेर है।

अकबर अभी बीस-इक्कीस वर्ष की वयस् का ही था और अपने गुरु और सरपरस्त बहरामखाँ के शिकंजे से छूट कर खुदमुखत्यार शहंशाह के रूप में आए उसे दस-बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। अकबर दिल्ली और आगरा प्रायः आता-जाता रहता था। उसका स्वभाव था कि घोड़े पर सवार हो दिल्ली से एक दिन में मथुरा और मथुरा से आधे दिन में आगरा आ जाया करता था। मार्ग में भटियारिन की सराय एक नगण्य स्थान था। सरपट दौड़ते घोड़े पर सवार हो जाते हुए उसका इस सराय की ओर कभी ध्यान भी नहीं गया था। साथ ही उसने आगरा से तीन कोस उत्तर की ओर एक विशेष आरामगाह बना रखी थी। कभी आगरा पहुँचने में देर हो जाती तो रात इस आरामगाह में आराम कर वह प्रातः तरोताजा हो आगरा पहुँचने में लाभ समझता था। इस आरामगाह का नाम ‘नगर चैन’ विख्यात था। वहाँ शाही सुख-आराम की सुविधा रहती थी। इस कारण ‘नगर चैन’ के समीप होने से भटियारिन की सराय की ओर शहंशाह का कभी ध्यान भी नहीं गया था।

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