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उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘पूछने की आवश्यकता नहीं
प्रतीत हुई। मोहिनी लगती है।’’
‘‘तब तक आप ये रोटियाँ
सेकिये। देखिये, जल न जायँ। मैं बात करके आती हूँ।’’
लक्ष्मी
पति को रसोईघर में छोड़ टेलीफोन सुनने के लिए चली गई। गजराज तवे पर रोटी
घुमाने लगा और देखने लगा कि कहीं जल न जाय। वह बहुत सावधानी से रोटी की
उलट-पलट करता रहा। फिर भी जब जलने लगी, तो जल ही गई।
गजराज को
क्रोध चढ़ आया। उसने रोटी को तवे से उतार रोटियों के नीचें छिपाकर रख
दिया। तवे को स्टोव पर से उतार मेज पर रख, वह लक्ष्मी की प्रतीक्षा करने
लगा। जब चार-पाँच मिनट तक वह नहीं आई तो गजराज स्वयं ड्राइंगरूम में चला
आया।
लक्ष्मी सुन रही थी और
आँखों से अविरल आँसुओं की धारा
प्रवाहित हो रही थी। गजराज इसका अर्थ नहीं समझ सका। वह उसके सम्मुख बैठ
गया। लक्ष्मी स्वयं बहुत कम बोल रही थी। बातचीत के अंत में लक्ष्मी ने
केवल इतना ही कहा, ‘‘मेरे मन की अवस्था इस समय ऐसी है कि मैं उनको शब्दों
में व्यक्त नहीं कर सकती। मैं आज कुछ देर से आऊँगी और फिर अपने पापों का
प्रायश्चित्त करूँगी।’’
इतना कह उसने फोन रख
दिया। अपने आँचल से आँखें पोंछते हुए उसने पूछा, ‘‘आप क्यों चले आये? रोटी
जल गई होगी?’’
‘‘एक रोटी तो मैं जलाकर आ
गया हूँ, शेष जलाने की इच्छा नहीं हुई, इसलिए चला आया हूँ।’’
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