| उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
    ‘‘कुछ दिन आकर जब रह
      जायगी तो सब पता चल जायगा।’’
    
    ‘‘तो तुम क्यों उनको
      बुलाना चाहती हो?’’
    
    ‘‘उनका कोई भाई नहीं है
      न, तुम उनके भाई बन जाओगे, इसलिए।’’
    
    ‘‘बात तो फिर वही हुई, जो
      मैं कह रहा था।’’
    
    ‘‘नहीं बेटा, तुमको बहिन
      की आवश्यकता इतनी अधिक नहीं, जितनी उनको भाई की आवश्यकता है।’’
    
    ‘‘पर माँ, मैं तो यमुना
      को अपनी बहिन जैसी नहीं देखता।’’
    
    ‘‘क्यों?’
    
    ‘‘बताया तो है। वह मुझसे
      बोलती तक नहीं।’’
    
    माँ
      हँस पड़ी। उसने कहा, ‘‘देखो कस्तूरी, अगले सप्ताह यमुना का जन्म-दिन है।
      उस अवसर पर तुम उसको कुछ भेंट में देना तो वह तुमसे बोला करेगी। बहिनें
      तभी प्रसन्न रहती हैं, जब भाई उनको भेंट में कुछ दिया करते हैं।’’
    
    ‘‘मामा जी तुमको क्या
      भेंट में देते हैं?’’
    
    ‘‘तुम्हारे
      नाना और मामा ने अपना सब कुछ मेरे विवाह पर मुझको दे दिया था। अब उनके पास
      कुछ अधिक नहीं है। मैं कभी-कभी विचार करती हूँ कि उन्होंने अपनी सामर्थ्य
      से अधिक दिया है। उसमें से कुछ तो मुझको लौटा देना चाहिए।’’
    
    ‘‘कितना दिया था नानाजी
      ने?’’
    			
		  			
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