उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘यह तो तब बताऊँगा जब
तुम मेरी शर्तों को मंजूर करोगी।’’
‘‘मैं तो हमेशा आपके
हुक्म की तामील करती रही हूँ।’’
‘‘अच्छा मैं कल आऊँगा।’’
गजराज
चला गया और शरीफन को एक विचित्र उलझन में डाल गया। आज से पूर्व कभी ऐसा
नहीं हुआ था। कुछ-न-कुछ तो वह हर बार देकर ही जाता था। साथ ही शर्त की बात
आज नई थी। शरीफन समझ रही थी कि चरणदास का एकाएक चला जाना और गजराज का शर्त
करने लगना अवश्य ही परस्पर सम्बन्धित बातें हैं। वह सोच रही थी कि क्या
इसको चरणदास से सम्बन्ध का ज्ञान हो गया है?’’
‘‘यदि ज्ञान हो गया
है तो उस स्थिति में उसको क्या करना चाहिये? यह बात उसके मस्तिष्क में
चक्कर काट रही थी। यह तो वह जानती थी कि अब तक उसके पास अपने बीमा की दस
हज़ार की रकम अतिरिक्त तीस-बत्तीस हज़ार रुपया जमा हो गया है, और यदि वह
समझदारी से काम ले तो ज़िन्दगी मज़े से निकल सकती है। कठिनाई बच्चे की थी।
उसका पालन और शिक्षा किस प्रकार होगी? यह बात विचारणीय थी। चरणदास ने
संकेत से उसको कहा था कि बच्चा होने के बाद वह उसको अपने घर पर ले जाकर रख
लेगा। यह एक बहुत बड़ा प्रलोभन था। वह जानती थी कि इस प्रबन्ध से उसके
बच्चे की शिक्षा-दीक्षा भले घरों के बच्चों की भाँति हो जायगी।
दूसरी
ओर यह भी विचार करती थी कि गजराज अफसर है, चरणदास उसका मातहत। यदि गजराज
नाराज़ हो गया तो वह चरणदास को तंग कर सकता है, और साथ ही उसको भी। इस
कारण वह गजराज को नाराज करने में अपना हित नहीं समझती थी।
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