उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘उस समय रिवाज़ था कि
बहू जब ससुराल में आती थी तो अपने
पति से बड़ों के सामने घूँघट करती थी। यदि किसी को घूँघट उतरवाना हो तो वह
बहू को भेंट स्वरूप कुछ देता था। मेरे श्वशुर को यह घूँघट की प्रथा पसन्द
नहीं थी, अतः उन्होंने पूछ लिया। उनका विचार था कि मैं अँगूठी अथवा
रत्नजड़ित हार माँगूँगी। परन्तु मेरे मन में आया कि आभूषण लेकर क्या
करूँगी। अतः मैंने माँग लिया, पिता का वात्सल्य दे दीजिये तो घूँघट हटा
दूँगी।
‘‘मेरे श्वशुर ने मेरे
कथन का आशय समझकर मेरे सिर पर हाथ
रखकर कहा, ‘‘वचन देता हूँ बेटी! कि मरण-पर्यन्त तुम मेरी बेटी से भी अधिक
प्यारी रहोगी।’’ मैंने घूँघट उठा लिया और उनके चरणों में सिर रख दिया।’’
‘‘उनकी
आँखों में आँसू भर आये थे। तब से वे मेरा मान करते रहे, मेरे माता-पिता की
प्रशंसा करते रहे, अपने पुत्र को भाई की रक्षा के लिए कहते रहे।’’
‘‘यह है श्वशुर के स्नेह
का परिणाम।’’
सुमित्रा इस समय भी मौन
ही रही।
एक
और दिन लक्ष्मी ने बताया, ‘‘जब कस्तूरी उत्पन्न हुआ तो मैं बीमार पड़ गई।
एक दिन तो डॉक्टर जवाब दे गया। मेरे श्वशुर पूजा के आसन पर बैठ
महामृत्युञ्जय जाप करने लगे। उन्होंने कह दिया था कि जब तक वे स्वयं न
कहें उनको खाने के लिए पूछा जाय और न ही किसी अन्य बात के लिए।
‘‘डॉक्टर
की चिकित्सा के स्थान पर एक वैद्य की चिकित्सा आरम्भ हो गई। मुझे नियम से
औषधि दी जाने लगी। परन्तु मेरे श्वशुर जब आसन लगाकर बैठे तो बैठे ही रहे।
छत्तीस घण्टे तक वह एक ही स्थिति में बैठ कर जाप करते रहे।
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