उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘अच्छा बूआजी! मैं अब उस
समय की अपनी माँ की तुलना में कैसी लगती हूँ?’’
‘‘रुपये में बारह आने।’’
सुमित्रा
का मुख उतर गया। वह कुछ गम्भीर हो, विचार करने लगी। उसे पुनः चुप होते देख
लक्ष्मी ने कहा, ‘बेटी, वे मूर्ख हैं, जो किसी लड़की से इसलिए विवाह करते
हैं कि वह सुन्दर है। शरीर अच्छा, पूर्ण और स्वस्थ होना आवश्यक है। सुन्दर
हो तो और भी अच्छा, परन्तु विवाह के लिए कुछ अन्य गुण हैं जिनका होना
बुद्धिमान लोग अत्यन्त आवश्यक समझते हैं। सौन्दर्य और धन-वैभव तो मिट जाने
वाली वस्तुएँ हैं। पत्नी में जिन गुणों की आवश्यकता मानी जाती है, वे तो
इनसे अधिक स्थायी होनी चाहिएँ। वे कम-से-कम जीवन पर्यन्त साथ रहने चाहिएँ।
विवाह-बन्धन तो एक स्थायी, मरण तक रहने वाली वस्तु है। इसका आधार भी उसी
प्रकार स्थायी होना चाहिए।’’
आज सुमित्रा अपने मन में
हलचल अनुभव
करने लगी थी। वह अपने मन का सन्तुलन खो बैठी थी। उसने अब फिर पूछ लिया,
‘‘बूआजी! वे कौन से गुण हैं जिनका स्त्री में होना आवश्यक है?’’
‘‘पति
में पूर्ण निष्ठा। इसी को पतिव्रत धर्म भी कहते हैं। यह विशेष गुण है।
इसके अतिरिक्त मधुर तथा सत्य भाषण, परस्पर समानुयोजन, क्षमा, दया इत्यादि
गुण हैं, जो विवाहित जीवन में सर्वोपरि हैं।’’
‘‘क्या पति में कोई गुण
नहीं होना चाहिए?’’
‘‘वही
जो स्त्री में आवश्यक हैं। फिर भी पुरुष कुछ सीमा तक क्षम्य हैं। वे
दुनिया में जीवकोपार्जन के लिए घूमते रहते हैं, अतः उनका बाहरी व्यवहार
कभी भिन्न हो जाता है। भीतर से तो उनको भी वैसा ही होना चाहिए, जैसा पत्नी
को।’’
‘‘और यदि दोनों में से
कोई क्रूर, असहनशील और असत्यभाषी हो तो?’’
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