उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘मैं वहाँ नहीं जा रही।
यहाँ से
फव्वारे जाऊँगी। वहाँ से ट्राम में हौजकाजी और वहाँ से बारहखम्भा तक।
कम्पनी के कार्यालय में पिताजी मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वहाँ से उनके
साथ घर जाऊँगी।’’
‘‘तो मेरा प्रस्ताव मान
लो। इस ताँगे में ही हम बारहखम्भा रोड अपनी कोठी पर चलें। वहाँ मम्मी से
अपने विवाह की स्वीकृति ले लें।’’
‘‘मुझे पिताजी ने आज्ञा
दी है कि मैं उस कोठी में पग भी न धरूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तुमको भी तो आज्ञा हुई
है कि हमारे घर पर न आया करो।’’
‘‘मैं उसी आज्ञा को वापस
कराने के लिए कह रहा हूँ। तुम मेरे साथ चलो तो काम बन जाय।’’
‘‘मैं पिताजी की आज्ञा का
उल्लंघन नहीं करूँगी।’’
इस समय तक ताँगा आ
पहुँचा। दो सवारियाँ उसमें पहले ही बैठी हुई थीं। कस्तूरीलाल ने पूछा,
‘‘कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘फव्वारे।’’
‘‘क्या लोगे?’’
‘‘चार-चार आने।’’
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