उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘जी नहीं। मामी के
दामाद, सुमित्रा के पति, जो केवल एक प्रतिशत हिस्से के मालिक हैं, इस समय
डायरेक्टर बन गये हैं।’’
गजराज
ने अपने अधिकार की मुद्रा मनसाराम को दे दी और सेक्रेटरी से पूछा, ‘‘कोई
बात सन्देहात्मक अथवा न समझ में आने वाली हो तो पूछ लो।’’
‘‘ऐसी कोई बात नहीं, यदि
भविष्य में कोई हुई तो आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।’’
इस प्रकार गजराज की
कम्पनी मनसाराम की कम्पनी बन गई।
गजराज
कम्पनी से घर लौट आया। इस परिवर्तित परिस्थिति से वह बहुत परेशानी अनुभव
कर रहा था। वह अभी तक समझ नहीं सका था कि यह सब-कुछ हुआ कैसे? जब वह पिछले
तीन-चार वर्ष की बातें स्मरण करने का यत्न करने लगा तो उसका यह जीवन और उस
में घटित घटनाएँ कोहरे में घुस गयी-सी प्रतीत होने लगी, मानो किसी ने उस
समय धुएँ के बादल छोड़ दिये हों और उस समय की रूपरेखा अस्पष्ट तथा
धुंधली-सी ही दिखाई देती थी।
आज गजराज अपने पूर्ण जीवन
का
पुनरावलोकन कर रहा था–कैसे वह लाहौर का काम समेट, लाखों का बैंक-बैलेंस
लेकर दिल्ली पहुँचा था, कैसे वह ठेकेदारी का काम आरम्भ कर फलने-फूलने लगा
था। ठेकेदारी में बिना बेईमानी के कार्य चलता न देख उसने बीमा कम्पनी चलाई
थी। सबकुछ ठीक चलता रहा, परन्तु उसने शरीफन का बहिष्कार किया और उसकी मति
भ्रष्ट हुई। वह मद्य का सेवन करने लगा। पहले तो क्लब में, फिर घर पर,
तदननन्तर वेश्याओं के अड्डों पर मद्य पीकर उत्तेजित हो वह जुआ खेलने लगा।
जीतता-हारता और फिर सन्तोषी और उसकी चेलियाँ उसको लूट लेतीं।
इस काल में जो कुछ भी
उसने किया, मद्य के नशे में किया। इसी कारण उसको स्पष्टतः कुछ भी स्मरण
नहीं था। सब-कुछ धुंधला-सा था।
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