उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘यदि आपने कुछ रुपये
नहीं दिये तो अपना हार बेचकर भोजन सामग्री मँगवाई जायगी।’’
‘‘इस समय मेरे पास रुपये
नहीं है और मैं यह भी नही जानता कि लाऊँ कहाँ से?’’
‘‘घर
के खर्चे से अधिक मुसीबत एक और आ गई है। मुझे तुरन्त दस लाख रुपये के
ज़ामिन चाहिएँ। पाँच लाख के मेरे कागज़ हैं, जो ज़मानत के रूप में स्वीकार
कर लिये जायँगे। शेष का प्रबन्ध करना है। यदि एक मास तक प्रबन्ध न हुआ तो
जेल खाने की हवा खानी पड़ेगी।’’
लक्ष्मी इस समाचार को सुन
अवाक्
खड़ी रह गई। आज उसने रसोइये को भी जवाब दे दिया। वह स्वयं खाना बनाने लगी।
गजराज ने मुंशी को वेतन चुका छुट्टी दे दी। अब कोठी में केवल दो नौकर रह
गए–भंगी और चपरासी। इनके बिना काम नहीं चल सकता था। अभी आभूषण बेचकर काम
चलाने का निश्चय किया गया।
इसके एक सप्ताह बाद
मोहिनी का टेलीफोन आया। फोन गजराज ने उठाया। उसने पूछा, ‘‘आप किसे चाहते
हैं?’’
‘‘लक्ष्मीदेवी को।’’
‘‘ठहरिये, बुलाता हूँ।’’
‘‘लक्ष्मी रसोईघर में थी।
गजराज वहाँ गया और कहने लगा, ‘‘तुमको कोई फोन पर बुला रहा है।’’
‘‘कौन है, पूछा नहीं
आपने?’’
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