उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘उनमें कोई खाली नहीं है
और फिर यह कोठी भी तो दो वर्ष से बेकार ही पड़ी है।’’
‘‘परन्तु जीजाजी! इसका
किराया तो बहुत ज्यादा होगा। इतना मैं दे नहीं सकूँगा।’’
‘‘किराया? अच्छा, तो
ट्यूशन का क्या लोगे?’’
‘‘ट्यूशन का तो मैं कुछ
नहीं लूँगा।’’
‘क्यों?’’
‘‘अपने बच्चों को पढ़ाने
की फीस लूँ, यह कैसे हो सकता है?’’
‘‘तो
क्या अपने बच्चों के पास रहने का किराया देना होता है?’’ यह कहते हुए
गजराज हँस पड़ा। लक्ष्मी भी हँस रही थी। कस्तूरी बोला, ‘‘मामाजी! अब
बताइए!’’
कस्तूरी समीप खड़ा अपने
पिता और मामा का वार्तालाप सुन रहा था।
‘‘यही तो कठिनाई है।’’
चरणदास ने कह दिया, ‘‘बहिन को दिया जाता है, उससे कुछ लिया नहीं जाता।’’
‘‘तुमको
देता कौन है! तुम बच्चों के ट्यूटर नियुक्त हुए और ट्यूटर को रहने के लिए
स्थान मिल रहा है। इसमें बहिन-भाई का जिक्र कैसे आ गया?’’
‘‘देखो
चरणदास! जब से तुम दिल्ली आये हो, मैं तुमको यहाँ लाकर ठहराने का विचार
करता था। परन्तु मैं नहीं चाहता था कि तुम बहिन के घर में रहो। अब इस
स्थिति में तो तुम अपने ‘वार्ड’ के पिता के घर पर रहोगे।
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