उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
इस
सब प्रक्रिया में चरणदास को बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ रही थी और इस भाग-दौड़
में भाँति-भाँति के अनुभव हो रहे थे। गजराज चरणदास से दौड़ में आगे-ही-आगे
जा रहा था। गजराज दान-दक्षिणा भी देता था परन्तु आय तो बहुत अधिक हो रही
थी।
सन् १९३॰ में अपनी ‘शुगर
मिल’ का निरीक्षण कर गजराज लखनऊ से
अमृतसर आ रहा था। वह स्टेशन के वेटिंग-रूम में बैठा पंजाब मेल की
प्रतीक्षा कर रहा था। इस समय एक औरत अपने साथ स्टेशन की कुरसी पर एक आदमी
को उठवाये हुए वेटिंग-रूम में पहुँची। स्वाभाविक रूप में गजराज की दृष्टि
उस ओर गई। स्त्री तीस-बत्तीस वर्ष की प्रतीत होती थी। वह अति सुन्दर थी,
किन्तु उसने श्रृंगार नहीं किया हुआ था। बाल भी अस्त-व्यस्त थे। जब गजराज
की दृष्टि उस पुरुष पर गई तो उसके विस्मय का ठिकाना न रहा। उसके मुख, सिर,
हाथ और पैरों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं।
गजराज के मन में उस
स्त्री के प्रति सहानुभूति उमड़ आई। वह जानना चाहता था कि यह पुरुष इस
स्त्री का क्या लगता है और इसको हुआ क्या है? वह कहाँ कि रहने वाली है और
कहाँ जा रही है? इस पर भी एक अपरिचित स्त्री से, आते ही बात करना उसे ठीक
नहीं प्रतीत हुआ। अपने मन की उत्सुकता को दबाये हुए वह चुप बैठा रहा।
पंजाब
मेल आई तो वे स्त्री-पुरुष भी उसी डिब्बे में जा बैठे, जिसमें गजराज बैठा
था। उनके आये देख वह कहीं अन्यत्र जाने का विचार करने लगा। एक स्त्री के
साथ इस अवस्था में यात्रा करने में उसे संकोच होता था। जब वह उतरकर एक
अन्य डिब्बे में अपने लिए खाली बर्थ देखकर अपना सामान उतरवाने के लिए कुली
बुलाने लगा, तो उस औरत ने विस्मय से पूछ लिया, ‘‘आप नहीं चल रहे हैं
क्या?’’
‘‘जा तो रहा हूँ। विचार
था कि मेरे यहाँ रहने से कहीं आपको कोई कष्ट न हो?’’
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