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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान

दिन पहर-भर से ज्यादा चढ़ चुका था जब भूतनाथ की बेहोशी दूर हुई और वह चैतन्य होकर ताज्जुब के साथ चारों तरफ निगाहें दौड़ाने लगा। उसने अपने को एक ऐसे कैदखाने में पाया जिसमें से उसकी हिम्मत और जवाँमर्दी उसे बाहर नहीं कर सकती थी।

यद्यपि यह कैदखाना बहुत छोटा और अंधकार से खाली था मगर तीन तरफ से उसकी दीवारें बहुत मजबूत और संगीन थीं तथा चौथी तरफ लोहे का मतबूत जंगला लगा हुआ था जिसमें आने के लिए छोटा दरवाजा भी था जो इस समय बहुत बड़े ताले से बन्द था, इस कैदखाने के अन्दर बैठा-बैठा भूतनाथ अपने सामने के दृश्य बहुत अच्छी तरह से देख सकता था।

थोड़ी देर इधर-उधर निगाह दौड़ाने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और जंगले के पास आकर बड़े गौर से देखने लगा। उसके सामने वही सुन्दर जमीन और खुसनुमा घाटी थी जिसका हाल हम ऊपर बयान कर चुके हैं, जो कला और बिमला के कब्जे में है, अथवा जहाँ की सैर अभी-अभी प्रभाकरसिंह कर आए हैं। बीच वाले सुन्दर कमरे को भूतनाथ बड़े गौर के साथ देख रहा था क्योंकि वह कैदखाना जिसमें भूतनाथ कैद था पहाड़ की उँचाई पर बना हुआ था जहाँ से इस घाटी का हर एक हिस्सा साफ-साफ दिखाई दे रहा था। उसकी चालाक चंचल निगाहें इस बात की जांच कर रही थीं कि वह किस जगह पर कैद है और उसको कैद करने वाला कौन है।

इस घाटी में न कभी वह आया था न इसे कभी देखा था और न इसका हाल ही कुछ जानता था, अतएव उसे किसी तरह का गुमान भी न हुआ कि यह उसके पड़ोस की घाटी है अथवा उसके पास ही में उसका निजी मकान है जहाँ वह रहता है।

थोड़ी देर तक बड़ी गौर से इधर-उधर देखने के बाद भूतनाथ हताश होकर बैठ गया और तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उसे इस बात का बहुत ही दुःख हुआ कि उसके हरबे छीन लिए गए थे और उसकी ऐयारी का बटुआ भी उसके पास न था मगर उसके जख्म में कोई तकलीफ न थी जिसकी बदौलत वह बेहोश होकर कैदखाने की हवा खा रहा था।

दोपहर की टनटनाती धूप भूतनाथ की आँखों के सामने चमक रही थी। भूख तो कोई बात नहीं मगर प्यास के मारे उसका गला चटका जाता था। वह सोच रहा था कि उसे दाना-पानी देने के लिए भी कोई आवेगा या वह भूखा ही पिंजरे में बन्द रहेगा क्योंकि अभी तक किसी आदमी की सूरत उसे दिखाई न पड़ी थी।

थोड़ी देर और बीत जाने के बाद एक औरत वहाँ आई जिसके पास भूतनाथ के लिए खाने-पीने का सामान था। उसने वह सामान बड़ी होशियारी से जंगले के अन्दर एक रास्ते से जो इसी काम के वास्ते बना हुआ था रख दिया और कहा, ‘‘लो गदाधरसिंह, तुम्हारे लिए खाने-पीने का सामान आ गया है। इसे खाओ और मौत का इन्तजार करो।’’

भूत० : (पानी का लोटा उठाकर) हाँ, ठीक है, बस मेरे लिए यही काफी है, मैं सिर्फ पानी ही पीकर मौत का इन्तजार करुँगा क्योंकि जब तक मैं जंगल-मैदान और स्नान इत्यादि कर्म न कर लूँ भोजन नहीं कर सकता।

औरत : खैर तुम्हारी खुशी, मेरा जो काम था उसे मैं पूरा कर चुकी। मगर मैं अपनी तरफ से यह पूछती हूँ कि तुम कै दिन तक इस तरह से गुजारा कर सकोगे? (कुछ सोचकर) नहीं, मेरा यह सवाल करना ही वृथा है क्योंकि मैं खूब जानती हूँ कि दो-तीन दिन के अन्दर ही तुम्हारा फैसला हो जायगा और तुम इस दुनिया से उठा दिए जाओगे।

भूत० : अगर ऐसा ही है तो यह दो-तीन दिन का विलम्ब भी क्यों?

औरत : इसलिए कि तुम्हारी मौत का ढंग निश्चय कर लिया जाय।

भूत० : ढंग कैसा मैं नहीं समझा!

औरत : मतलब यह है कि तुम एकदम से नहीं मार डाले जाओगे बल्कि तरह-तरह की तकलीफ देकर तुम्हारी जान ली जायेगी, अस्तु यह निश्चय किया जा रहा है कि किस तरह की तकलीफ तुम्हारे लिए उचित है?

भूत० : ये बातें कौन तजबीज कर रहा है?

औरत : हमारे मालिक लोग।

भूत० : मालूम होता है कि तुम्हारे मालिक लोग मर्द नहीं है हीजड़े हैं या औरत। ऐसे विचार मर्दों के नहीं होते!

औरत : बेशक ऐसा ही है, हमारे मालिक औरत हैं।

भूत० : (आश्चर्य से) औरत हैं!!

औरत : हाँ औरत।

भूत० : मगर मैंने किसी औरत के साथ कभी दुश्मनी नहीं की बल्कि कोई मर्द भी ऐसा न मिलेगा जो मुझे अपना दुश्मन बतावे और कहे कि गदाधरसिंह ने मुझे बर्बाद कर दिया।

औरत : जो हो, इस विषय में मैं नहीं कह सकती, आखिर कोई बात होगी ही तो!!

भूत० : क्या तुम बता सकती हो कि तुम्हारी मालकिन का नाम क्या है अथवा वह कौन है? तुम यकीन रखो कि इसके बदले में तुम्हें इतनी दौलत दूँगा कि कभी तुमने आँखों से न देखी होगी।

औरत : मैं ऐसा नहीं कर सकती कि तुम्हें इस कैद से छुड़ा दूँ और तब तुम मुझे बेअन्दाज दौलत देकर मालामाल कर दो, इसके अतिरिक्त इस कैदखाने की ताली खुद मालकिन के कब्जे में है।

भूत० : नहीं नहीं, मैं यह नहीं कहता तुम मुझे इस कैदखाने से बाहर कर दो।

औरत : अगर ऐसा नहीं है तो तुम मुझे किस काम के लिए और कहाँ से दौलत दे सकते हो!

भूत० : मेरे मकान में जो कुछ दौलत है उसका कोई ठिकाना ही नहीं, मगर मेरे पास भी हरदम बटुए में दो-चार लाख रुपये की जमा मौजूद रहती है। तुम कह सकती हो कि इस समय तो तुम्हारे पास तुम्हारा बटुआ भी नहीं है....

औरत : हाँ-हाँ, मैं यही कहने वाली थी, बल्कि यह भी समझ रखना चाहिए कि इस समय वह बटुआ जिसके कब्जे में होगा उसने वह रकम भी जरूर निकाल ली होगी।

भूत० : (बनावटी हँसी के साथ) नहीं नहीं, इसका तो तुम गुमान भी न करो कि वह रकम निकाली गई होगी, क्योंकि उसमें कोई जवाहिरात की डिबिया नहीं है या कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई देखते ही दौलत समझ ले, बल्कि उस बटुए में कोई ऐसी चीज है जिसे मेरे सिवाय कोई बता नहीं सकता कि यह दौलत है और जो किसी अनजान की निगाह में बिलकुल रद्दी चीज है, बल्कि यों समझो कि जहाँ वह दौलत रखी हुई है वहाँ की ताली उस बटुए में है जिसकी कलई मेरे सिवाय कोई खोल नहीं सकता और न मेरे बताए बिना कोई पा सकता है।

वह दौलत जो लगभग चार-पाँच लाख रुपये की होगी मैं सिर्फ इतने ही काम के बदले में दे देना चाहता हूँ कि मेरा बटुआ मुझे ला दिया जाय और बता दिया जाय यह स्थान किसका है और मैं किसका कैदी हूँ। मैं समझता हूँ कि मैं जरूर मार ही डाला जाऊँगा, अस्तु ऐसी अवस्था में अगर वह दौलत किसी नेक, रहमदिल और गरीब के काम आ जाय तो इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है।

अहा, दुनिया में रुपया भी अजीब चीज है! इसकी आँच को सह जाना हँसी-खेल नहीं है, इसे देखकर जिसके मुँह में पानी न भर आवे समझ लो कि वह पूरा महात्मा है, पूरा तपस्वी है और सचमुच का देवता है। इस कम्बख्त की बदौलत बड़े-बड़े घर सत्यानाश हो जाते हैं, भाई-भाई में बिगाड़ हो जाता है, दोस्तों की दोस्ती में बट्टा लग जाता है, जोरू और खसम का रिश्ता कच्चे धागे से भी ज्यादे कमजोर होकर टूट जाता है, और ईमानदारी की साफ और सफेद चादर में ऐसा धब्बा लग जाता है जो किसी तरह छुड़ाए नहीं छूटता।

इसे देखकर जो धोखे में न पड़ा, इसे देखकर जिसका ईमान न टला, और इसे जिसने हाथ-पैर का मैल समझा, बेशक कहना पड़ेगा कि उस पर ईश्वर की कृपा है और वही मुक्ति का वास्तविक पात्र है.

इसकी आँच के सामने एक लौंडी का दिल भला कब तक कड़ा रह सकता था?

यद्यपि उस औरत ने अपने चेहरे के उतार-चढ़ाव को बहुत सम्हाला फिर भी भूतनाथ जान ही गया कि यह लालच के फन्दे में फँस गई.

भूत० : सच तो यों है कि उस दौलत को मैं बहुत ही सस्ते दाम में बल्कि मुफ्त मोल बेच रहा हूँ, अब भी अगर तुम न खरीदो तो मैं जोर देकर कहूँगा कि तुमसे बढ़कर बदनसीब इस दुनिया में दूसरा कोई नहीं है. क्या वह दौलत कम है? क्या उसे पाकर फिर भी किसी को नौकरी की जरूरत रह सकती है? क्या उसकी बदौलत सुख का सामान इकट्ठा होने में किसी तरह की त्रुटि हो सकती है? बिलकुल नहीं फिर सोच-विचार करना क्यों और विलम्ब कैसा? केवल हमारी ऐयारी का बटुआ ला देना और बता देना कि मैं किसका कैदी हूँ और इस स्थान का मालिक कौन है. सिर्फ इतने के बदले में अभी-अभी यह रकम तुम्हें मिल सकती है सो भी ऐसी कि उसे कोई छीन भी न सकेगा.

औरत : तुम यकीन करो कि मैं एक अमीर की लौंडी हूँ, और मेरी मालकिन बेअन्दाज दौलत लुटाने वाली हैं, और उसकी बदौलत मुझे किसी की परवाह नहीं है.

भूत० : (बात काट कर) मगर लौंडीपन का तौक गले में जरूर पड़ा हुआ है. स्वतन्त्र नहीं, लापरवाह और बेफिक्र नहीं.

औरत : हाँ, यह सच है मगर उनकी नौकरी मुझे गढ़ाती नहीं और वे मुझसे बहिनापे का-सा बर्वताब करती है, मगर फिर भी तुम खुशी से दोगे तो मैं उस दौलत को जरूर लूँगी लेकिन सिर्फ ऐसी अवस्था में जब कि मुझ पर नमकहरामी का धब्बा न लग सके.

ग्रंथकर्ता : सत्यवचन! नमकहराम!! भला ऐसी भी कोई बात है!!

भूत० : नहीं नहीं, तुम पर नमकहरामी का धब्बा नहीं लग सकेगा और तुम्हारी मालकिन का भी कुछ नुकसान नहीं होगा क्योंकि मैं इस कैदखाने से छूटकर भाग नहीं जाना चाहता, केवल इतना ही जानना चाहता हूँ कि मैं किसकी कैद में हूँ और अपना बटुआ केवल इतने ही के लिए माँगता हूँ कि उस खजाने की ताली निकालकर तुम्हें दे दूँ और तुम्हें बता दूँ कि वह खजाना कहाँ है।

औरत : अच्छा पहिले मैं बटुआ लाकर तुम्हें दे दूँ तब पीछे बता दूँगी कि तुम किसके कैदी हो, सब्र करो और दिन बीत जाने दो, देखो वह दूसरी लौंडी आती है, अब मैं बिदा होती हूँ।

इतना कहकर वह लौंडी भूतनाथ के दिल में खुशी और उम्मीद का पौधा जमाकर चली गई।

भूतनाथ बड़ा ही कट्टर और दुःख-सुख बर्दाश्त करने वाला ऐयार था। कठिन से कठिन समय आ पड़ने पर भी उसकी हिम्मत टूटती न थी और वह अपनी कार्रवाई से बाज नहीं आता था।

खाने-पीने का सामान जो कुछ उसके सामने आ गया था उसमें से पानी के सिवाय बाकी सब कुछ ज्यों-का-त्यों पड़ा रह गया।

भूतनाथ को सिर्फ इस बात का इन्तजार था कि दिन बीते, अंधेरा हो और वह लौंडी आवे। इस बीच में बारी-बारी से आठ-दस लौंडियाँ उसके पास आईं; उन्होंने तरह-तरह की बातें कीं और खाने के लिए समझाया बल्कि यहाँ तक कहा कि तुम्हारे मैदान जाने और नहाने का भी सामान किया जा सकता है मगर भूतनाथ ने कुछ भी न माना बल्कि उनकी बातों का जवाब तक न दिया और वे सब निराश होकर लौटती गईं।

दिन बीत गया, संध्या हुई और अंधकार ने अपना दखल जमाना शुरू किया। दो घंटे रात जाते-जाते तक निशादेवी का शून्यमय राज्य हो गया। उस कैदखाने के पास जिसमें भूतनाथ बन्द था पेड़ों की बहुतायत होने के कारण इतना अंधकार था कि किसी का आना-जाना दूर से मालूम नहीं हो सकता था।

भूतनाथ जंगले का सीखचा पकड़े हुए खड़ा कुछ सोच रहा था कि वही लौंडी जिसके ऊपर भूतनाथ का मोहिनी मंत्र चल चुका था और जो लालच के सुनहरे जाल में फँस चुकी थी हाथ में भूतनाथ का ऐयारी का बटुआ लिए आ पहुँची और जंगले के सुराख से हाथ बढ़ाकर धीरे से बोली, ‘‘लो गदाधरसिंह, यह तुम्हारा बटुआ हाजिर है। इसके लिए मुझे बहुत तकलीफें उठानी पड़ीं।’’ (१. जिसे खोल कर खाने-पीने की चीजें अन्दर रखी जाती थीं।)

भूत० : बेशक, हमारा और तुम्हारा दोनों का काम चल गया। (संभलकर, क्योंकि उसके मुँह से हमारा नाम निकल गया यह शब्द भी खुशी के मारे निकल आये थे जो कि वह निकालना नहीं चाहता था) मेरा काम तो सिर्फ इतना ही कि मुझे अपने कैद करने वालों का पता लग जाएगा मगर तुम अब हर तरफ से प्रसन्न और स्वतन्त्र हो जाओगी।

इतना कहकर भूतनाथ ने बटुआ उसके हाथ से ले लिया और कहा, ‘‘क्या इसमें मेरा सामान ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है?’’

लौंडी : बेशक।

भूत० : तब मैं रोशनी करके देखूँ और वह ताली निकालूँ?

लौंडी : नहीं नहीं, रोशनी करने का मौका नहीं है, जो कुछ तुम्हें करना है अंधेरे ही में करो और जो कुछ निकालना है उसे टटोलकर निकालो, मैं तुम्हें फिर भी विश्वास दिलाती हूँ कि तुम्हारी सब चीजें इसमें ज्यों-की-त्यों रक्खी हैं।

भूत० : खैर कोई चिन्ता नहीं, मैं सब काम अँधेरे ही में कर सकूँगा, अगर मेरी चीजें ज्यों-की-त्यों रक्खी हैं और इझर-उधर नहीं की गईं तो मुझे रोशनी की कोई भी जरूरत नहीं है। अच्छा अब वह असल काम हो जाना चाहिए अर्थात् मुझे मालूम हो जाना चाहिए कि मैं किसका कैदी हूँ।

लौंडी : हाँ मैं बताती हूँ (कुछ सोचकर) मगर मैं फिर सोचती हूँ कि यह काम मेरे लिए बिलकुल अनुचित होगा, मालिक का नाम तुम्हें बता देना। निःसन्देह मालिक के साथ दुश्मनी करना है।

भूत० : यह सोचना तुम्हारी बुद्धिमानी नहीं है बल्कि बेवकूफी है, हाँ यदि मैं स्वतंत्र होता और मैदान में तुमसे मुलाकात हुई होती तो तुम्हारा यह सोचना कुछ उचित भी हो सकता था। तुम देख रही हो कि मैं किस अवस्था में हूँ और मेरी तकदीर में क्या लिखा हुआ है। फिर मैं इस समय कर ही क्या सकता हूँ, सोचो तो....

लौंडी : हाँ, एक तौर पर तुम्हारा कहना भी ठीक है, अच्छा मैं बताए देती हूँ कि तुम्हारा दुश्मन कौन है और तुम्हें किसने कैद किया।

भूत० : बस मैं इतना ही सुनना चाहता हूँ।

लौंडी : तुम्हें उसी ने कैद किया है जिसके पति को तुमने बेईमानी और नमक-हरामी करके बड़ी निर्दयता के साथ बेकसूर मारा है। दयाराम को मार कर तुम इस दुनिया में सुखी नहीं हो सके और न भविष्य में तुम्हारे सुखी होने की आशा है।

भूत० : (चौंक कर ताज्जुब के साथ) हैं, क्या दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जीती हैं? और उनको इस बात का विश्वास है कि दयाराम को मैंने ही मार डाला है।

भूत० : मगर यह बात सच नहीं है, अपने प्यारे मित्र दयाराम को मैंने नहीं मारा बल्कि किसी दूसरे ने ही मारा है।

लौंडी : खैर इन बातों से तो मुझे कोई सम्बन्ध नहीं, मैं तो लौंडी ठहरी, जो कुछ सुनती हूँ वही जानती हूँ!!

भूत०: अच्छा-अच्छा, मुझे इन बातों से कुछ फायदा भी नहीं है, बस विश्वास इसी बात का हो जाना चाहिए कि तुम सच कहती हो और वास्तव में दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जीती हैं, मुझे खूब याद है कि उनके मर जाने की खबर बड़ी सचाई के साथ उड़ी थी और उनके क्रियाकर्म में बहुत ज्यादा रुपया खर्च किया गया था जिसे मैं निजी तौर पर बहुत अच्छी तरह जानता हूँ, इस बारे में तुम मुझे क्योंकर धोखा दे सकती हो!!

लौंडी : तुम जो चाहो समझो और कहो, मैं तुमसे बहस करने के लिए नहीं आई हूँ और न इन रहस्यों को जानती हूँ, बात जो सच है वही कह दी है।

भूत० : मगर मुझे विश्वास नहीं आता।

लौंडी : विश्वास नहीं आता तो जाने दो।

भूत० :ऐसी अवस्था में मैं इनाम भी नहीं दे सकता।

लौंडी : मुझे इसकी परवाह नहीं है।

भूत० : अच्छा तो जाओ अपना काम देखो।

लौडी : बटुआ मुझे वापस कर दो जहाँ से मैं लाई वहाँ रख आऊँ और बदनामी से बचूँ।

भूतनाथ उस लौडी से बातें करता ही जाता था और अपने बटुए में से जिसे लौंडी ने ला कर दिया था अंधेरे में टटोल-टटोल कर कुछ निकालता भी जाता था जिसकी खबर लौंडी को कुछ भी न थी और न अंधकार के कारण वह कुछ देख ही सकती थी, अस्तु लौंडी की बात का भूतनाथ ने पुनः यों उत्तर दिया।

भूत० : बदनामी से तो तुम किसी तरह बच नहीं सकती हो, अगर मैं यह बटुआ तुम्हें वापस न दूँ तो तुम क्या करोगी?

लौंडीः मैं खूब चिल्लाऊँगी कि किसी लौंडी ने यह बटुआ लाकर भूतनाथ को दे दिया है।

भूत० : लेकिन लोगों के इकट्ठा हो जाने पर मैं यह कह दूँगा कि इसी लौंडी ने ला दिया है।

लौंडी : मगर इस बात का किसी को विश्वास नहीं होगा।

भूत० : (हँसकर) मालूम होता है कि तुम विश्वास पात्र समझी जाती हो। खैर तुम नहीं तो कोई दूसरी साथिन पकड़ी जाएगी।

लौंडी : जो होगा देखा जाएगा।

भूत० : मगर नहीं, मैं ऐसा बेईमान नहीं हूँ, लो यह बटुआ देता हूँ, जहाँ से लाई हो रख आओ। क्या कहूँ, मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास ही नहीं होता नहीं तो मैं वह खजाना जरूर तुम्हें दे देता।

इतना कहकर भूतनाथ ने वह बटुआ लौंडी की तरफ बढ़ाया। उसने जिस तरह दिया था उसी तरह ले लिया और यह कहती हुई वहाँ से चली गई, ‘‘बुरे लोगों से बातचीत करना भी बुरा ही है, इस काम के लिए मुझे जिन्दगी-भर पछताना पड़ेगा।’’

जब लौंडी कुछ दूर चली गई तो भूतनाथ ने धीरे-से यह जवाब दिया जिसे वह खुद ही सुन सकता था—‘‘तुम्हारे लिए चाहे जो हो मगर मेरा काम निकल ही गया। अब मैं इस पेंचीले मामले की गुत्थी अच्छी तरह सुलझा लूँगा।’’

भूतनाथ ने बात करते-करते उस बटुए में से जो कई चीजें निकाल लीं थीं उनमें कुछ शीशियाँ भी थीं जिनमें किसी तरह का अर्क था। एक शीशी का अर्क किसी ढंग से भूतनाथ ने कैदखाने के कई सीखचों की जड़ में लगाया और उससे कुछ देर बाद दूसरी शीशी का अर्क भी उसी जगह पर लगाया जिससे उतनी जगह का लोहा गल कर मोमबत्ती की तरह हो गया और भूतनाथ ने बड़ी आसानी से हटा कर अपने निकलने लायक रास्ता बना लिया। बात की बात में भूतनाथ कैदखाने के बाहर हो गया और मैदान की हवा खाने लगा।

भूतनाथ कैदखाने के बाहर हो गया सही मगर उसके लिए इस घाटी से बाहर हो जाना बड़ा ही कठिन था, एक तो अँधेरी रात दूसरे पहाड़ की ढालवीं और अनगढ़ ढोकों वाली पथरीली जमीन, तिस पर पगडंडी और रास्ते का कुछ पता नहीं। मगर खैर जो होगा देखा जायगा, भूतनाथ को इन बातों की कुछ भी परवाह न थी।

अब हम थोड़ा-सा हाल उस लौंडी का बयान करेंगे जो भूतनाथ के हाथ से बटुआ लेकर चली गई थी।

उसे अपने किये पर बड़ा ही पछतावा था। उसे इस बात का बड़ा ही दुःख था कि उसने भूतनाथ से अपने मालिकों का नाम बता दिया जो अपने को बहुत ही छिपा कर इस घाटी में रहती थीं। अब वह इस बात को बखूबी समझने लगी कि अगर भूतनाथ किसी तरह छूट कर निकल गया तो मेरे इस कर्म का बहुत ही बुरा नतीजा निकलेगा और भेद खुल जाने के कारण मेरे मालिकों को सख्त तकलीफ उठानी पड़ेगी।

वह यही सोचती जा रही थी कि मैंने बहुत बुरा किया जो लालच में पड़ कर अपने बेकसूर मालिकों के साथ ऐसी बेईमानी का बर्ताव किया! अब क्या किया जाय और मैं इस पाप का क्या प्रायश्चित करूँ?

साथ ही इसके उसने यह भी सोचा कि भूतनाथ का यह बटुआ कुछ हल्का मालूम पड़ता है। इसमें अब वह वजन नहीं है जो पहिले था जब मैं लाई थी। मालूम होता है, भूतनाथ ने अंधेरे में टटोलकर अपने मतलब की चीज निकाल ली। अपने हाथ की रखी हुई चीज निकालने के लिए बुद्धिमान आदमी को रोशनी की जरूरत नहीं पड़ती। भूतनाथ ने बड़ी चालाकी की, अपना काम कर लिया और मुझे बेवकूफ बना कर विदा किया! मैं ही ऐसी कम्बख्त थी जो उसके फन्दे में आ गई, अब मुझे जरूर अपने इस पाप का प्रायश्चित करना पड़ेगा!!

इसी तरह की बातें सोचती वह लौंडी वहाँ से चली गई।

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