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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान

प्रभाकरसिंह पीछे-पीछे चले आते थे, यकायक कैसे और कहाँ गायब हो गये? क्या उस सुरंग में कोई दुश्मन छिपा हुआ था जिसने उन्हें पकड़ लिया? या उन्होंने खुद हमें धोखा देकर हमारा साथ छोड़ दिया? इत्यादि तरह-तरह की बाते सोचती हुई इन्दु बहुत ही परेशान हुई, मगर इस आशा ने कि अभी-अभी भूतनाथ उनका पता लगा के सुरंग से लौटता ही होगा, उसे बहुत कुछ सम्हाला और वह एकदम सुरंग की तरफ टकटकी लगाये खड़ी देखती रही, परन्तु थोड़ी ही देर में उसकी यह आशा भी जाती रही जब उसने भूतनाथ को अकेले ही लौटते देखा और दुःख के साथ भूतनाथ ने बयान किया कि ‘उनसे मुलाकात नहीं हुई!

मेरी समझ मे नहीं आता कि क्या भेद है और उन्होंने हमारा साथ क्यों छोड़ा? क्योंकि अगर किसी छिपे हुए दुश्मन ने हमला किया होता तो कुछ मुँह से आवाज तो आई होती या चिल्लाते तो सही ’!

गुलाब० : नहीं भूतनाथ ऐसा तो नहीं हो सकता, प्रभाकरसिंह पर हम भागने का इलजाम तो नहीं लगा सकते।

भूत० : जी तो मेरा भी नहीं चाहता कि उनके विषय में मैं ऐसा कहूँ परन्तु घटना ऐसी विचित्र हो गई कि मैं किसी तरफ अपनी राय पक्की कर नहीं सकता।

हाँ इन्दुमति कदाचित इस विषय में कुछ कह सकती हों!

इतना कह कर भूतनाथ ने इन्दु की तरफ देखा मगर इन्दु ने कुछ जवाब न दिया, सिर झुकाये जमीन को देखती रही, मानों उसने कुछ सुना ही नहीं! अबकी दफे गुलाबसिंह ने उसे सम्बोधन किया जिससे वह चौकी और एकदम फूट-फूट कर रोने और कहने लगी, ‘‘बस मेरे लिए दुनिया इतनी ही थी, मालूम हो गया कि मेरी बदकिस्मती मेरा साथ न छोड़ेगी, मैं व्यर्थ ही आशा में पड़ कर दुःखी हुई और उन्हें भी दुःख दिया। मेरे ही लिए उन्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा और मुझ अभागिन के ही कारण उन्हें जंगल की खाक छाननी पडी। हाय, क्या अब मैं पूनः इस दुनिया में रह कर उनके दर्शन की आशा कर सकती हूँ? क्यों न इसी समय अपने दुखान्त नाटक का अन्तिम पर्दा गिरा कर निश्चिन्त हो जाऊँ?’’

इत्यादि इसी ढंग की बाते करती हुई इन्दु प्रलापावस्था को लांघ कर बेहोश हो गई और जमीन पर गिर पड़ी।

गुलाबसिंह और भूतनाथ को उसके विषय में बड़ी चिन्ता हुई और वे लोग उसे होश में लाकर समझाने-बुझाने तथा शान्त करने की चिन्ता करने लगे।

भूतनाथ का यह स्थान कुछ विचित्र ढंग का था। इसमें भूतनाथ की कोई कारीगरी न थी, इसे प्रकृति ही ने कुछ अनूठा और सुन्दर बनाया हुआ था। इसके विषय में अगर भूतनाथ की कुछ कारीगरी थी तो केवल इतनी ही कि उसने इसे खोज निकाला था, जिसका रास्ता बहुत ही कठिन और भयानक था। जिस जगह इन्दुमति, भूतनाथ और गुलाबसिंह खड़े हैं वहाँ से दिन के समय यदि आप आँख उठा कर चारों तरफ देखिये तो आपको मालूम होगा कि लगभग चौदह या पन्द्रह बिगहे की चौरस जमीन, चारों तरफ से ऊँचे-ऊँचे और सरसब्ज पहाड़ों से सुन्दर और सुहावने सरोवर के जल से घिरी हुई है। जिस तरह चारों तरफ के पहाड़ों पर खुशरंग फूल-पत्ती की बहुतायत दिखाई दे रही है उसी तरह यह जमीन भी नर्म घास की बदौलत सब्ज मखमली फर्श का नमूना बन रही हैं और जगह-जगह पर पहाड़ से गिरे हुए छोटे-छोटे चश्मे भी बह रहे हैं। यद्यपि आजकल पहाड़ों के लिये सरसब्जी का मौसम नहीं हैं मगर यहाँ पर कुछ ऐसी कुदरती तरावट है कि जिसके सबब से ‘पतझड़’ के मौसम का कुछ पता नहीं लगता, यों समझ सकते हैं कि बरसात के मौसिम में आजकल से कहीं बढ़-चढ़ कर खूबी खूबसूरती और सरसब्जी नजर आती होगी।

इस स्थान में किसी तरह की इमारत बनी हुई न थी मगर चारों तरफ के पहाड़ों में सुन्दर और सुहावनी गुफाओं और कन्दराओं की इतनी बहुतायत थी कि हजारों आदमी बड़ी खुशी और आराम के साथ यहाँ गुजारा कर सकते थे।

इन्हीं गुफाओं में भूतनाथ तथा उसके तीस-चालीस संगी-साथियों का डेरा था और इन्हीं गुफाओं में उसके जरूरत की सब चीजें और हर्बे इत्यादि रहा करते थे, तथा उसके पास जो कुछ दौलत थी वह भी कहीं इन्हीं जगहों में होगी, जिसका ठीक-ठीक पता उसके साथियों को भी न था, भूतनाथ का कथन है कि ऐसे-ऐसे कई स्थान उसके कब्जे में हैं और इस बात का कोई निश्चय नहीं हैं कि कब या कितने दिनों तक वह किस स्थान में अपना डेरा रखता है या रखेगा।

सुबह की सफेदी अच्छी तरह फैल चुकी थी भूतनाथ और गुलाबसिंह के उद्योग से इन्दुमति होश में आई। यद्यपि वह खुद इस खोह के बाहर होकर प्रभाकरसिंह की खोज में जान तक देने के लिए तैयार थी और ऐसा करने के लिए वह जिद्द भी कर रही थी मगर भूतनाथ और गुलाबसिंह ने उसे बहुत समझा-बुझा कर ऐसा करने से बाज रक्खा और वादा किया कि बहुत जल्द उनका पता लगाकर उनके दुश्मनों को नीचा दिखाएँगे।

ये सब बातें हो ही रही थीं कि भूतनाथ के आदमी गुफाओं और कन्दराओं मे से निकल कर वहाँ आ पहुँचे जिन्हें भूतनाथ ने अपनी ऐयारी भाषा में कुछ समझा-बुझा कर बिदा किया। इसके बाद एक स्वच्छ और प्रशस्त गुफा में जो उसके डेरे के बगल में थी इन्दुमति का डेरा लगा कर और गुलाबसिंह को उसके पास छोड़ कर वह भी उन दोनों से बिदा और अपने एक शागिर्द को साथ लेकर उसी सुरंग की राह अपनी इस दिलचस्प पहाड़ी के बाहर हो गया।

जब भूतनाथ सुरंग के बाहर हुआ तो सूर्य भगवान उदय हो चुके थे। उसे जरूरी कामों अथवा नहाने –धोने, खाने-पीने की कुछ भी फिक्र न थी, वह केवल प्रभाकरसिंह का पता लगाने की धुन में था।

यह वह जमाना था जब चुनार की गद्दी पर महाराज शिवदत्त को बैठे दो वर्ष का समय बीत चुका था, उसकी ऐयाशी की चर्चा घर-घर में फैल रही थी और बहुत से नालायक तथा लुच्चे शोहदे उसकी जात से फायदा उठा रहे थे।

उधर जमानिया में दारोगा साहब की बदौलत तरह-तरह की साजिशें हो रही थीं और उनकी कमेटी का दौरदौरा खूब अच्छी तरह तरक्की कर रहा था१ अस्तु इस समय खड़े होकर सोचते हुए भूतनाथ का ध्यान एक दफे जमानिया की तरफ और फिर दूसरी दफे चुनारगढ़ की तरफ गया।

सुरंग से बाहर निकल कर एक घने पेड़ के नीचे भूतनाथ बैठ गया और उसने अपने शागिर्द से, जिसका नाम भोलासिंह था, कहा–

भूत० : भोलासिंह, मुझे इस बात का शक होता है कि किसी दुश्मन ने इस खोह का रास्ता देख लिया और मौका पाकर उसने प्रभाकरसिंह को पकड़ लिया।

भोला० : मगर गुरु जी, मेरे चित्त में तो यह बात नहीं बैठती। क्या प्रभाकरसिंह इतने कमजोर थे कि आपके पीछे आते समय एक आदमी ने उन्हें पकड़ लिया और उनके मुँह से आवाज तक न निकली? इसके अतिरिक्त यह तो सम्भव ही न था कि बहुत से आदमी आपके पीछे-पीछे आते और आपको आहट भी न मिलती।

१. इसका खुलासा हाल ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ में लिखा जा चुका है.


भूत० : तुम्हारा कहना ठीक है और इन्हीं बातों को सोच कर मैं कह रहा हूँ कि दुश्मन के आने का शक होता है, यह नहीं कहता कि निश्चय होता है अस्तु जो कुछ हो, मैं प्रभाकरसिंह का पता लगाने के लिए जाता हूँ और तुमको इसी जगह छोड़ कर ताकीद कर जाता हूँ कि जब तक मैं लौट कर न आऊँ तब तक सूरत बदले हुए यहाँ पर रहो और चारों तरफ घूम-फिर कर टोह लो कि किसी दुश्मन ने इस सुरंग का पता तो नहीं लगा लिया हैं। अगर ऐसा हुआ होगा तो कोई-न-कोई यहाँ आता-जाता तुम्हें जरूर दिखाई देगा। यदि कोई जरूरत पड़े तो तुम निःसन्देह अपने डेरे (सुरंग के अन्दर) चले जाना, मैं इसके लिए तुम्हें मना नहीं करता मगर जो कुछ मेरा मतलब है उसे तुम जरूर अच्छी तरह समझ गए होगे।

भोला० : जी हाँ मैं अच्छी तरह समझ गया, जहाँ तक हो सकेगा मैं इस काम को होशियारी के साथ करूँगा, आप जहाँ इच्छा हो जाइए और इस तरफ से बेफिक रहिए।

भूत० : अच्छा तो अब मैं जाता हूँ।

इतना कहकर भूतनाथ भोलासिंह से बिदा हुआ और उसी घूमघुमौवे रास्ते से होता हुआ पहाड़ी के नीचे उतर आया, और इधर भोलासिंह देहाती ब्राहाण की सूरत बना जंगल में इधर-उधर घूमने लगा।

ठीक दोपहर का समय था धूप खूब कड़ाके की और गर्म-गर्म लू के झपेटे बदन को झुलसा रहे थे। ऐसे समय में भूतनाथ का शागिर्द भोलासिंह गर्मी से परेशान होकर एक घने पेड़ के नीचे बैठा आराम कर रहा था। यह स्थान यद्यपि उस सुरंग से लगभग दो-ढाई सौ कदम की दूरी पर होगा परन्तु यहाँ से घूमघुमौवे रास्ते और जंगली पेड़ों तथा लताओं की झाड़ियों के कारण बहुत ध्यान देने पर भी उस सुंरग का मुहाना दिखाई नहीं देता था। भोलासिंह बैठा सोच रहा था कि यकायक उसके कान में कुछ आदमियों के बोलने की आहट मालूम हुई।

हमारे पाठकों में से जो महाशय जंगल की हवा खा चुके या पहाड़ों की सैर कर चुके हैं उन्हें यह बात जरूर मालूम होगी कि जंगल में सन्नाटे के समय मुसाफिरों के बातचीत करते हुए चलने की आहट बहुत दूर-दूर तक के लोगों को मिल जाती है।

यहाँ तक कि आध कोस की दूरी पर भी यदि दो-चार आदमी बातचीत करते चले जाते हों तो ऐसा मालूम होगा कि थोड़ी दूर पर कुछ आदमी बातें कर रहे हैं परन्तु शब्द साफ-साफ सुनाई न देंगे, साथ ही इसके इस बात का पता लगाना भी जरा कठिन होगा कि ये बातचीत करते हुए जाने वाले आदमी किधर और कितनी दूर होगे, अस्तु जब भोलासिंह को कुछ आदमियों के बोलने की आहट मालूम हुई तो ठीक-ठीक पता लगाने और जाँच करने की नीयत से वह उस पेड के ऊपर चढ़ गया और चारों तरफ गौर से देखने लगा मगर कुछ पता न लगा और न कोई आदमी ही दिखाई पड़ा। लाचार वह पेड़ के नीचे उतर आया और उसी आहट की सीध पर खूब गौर करता हुआ उत्तर की तरफ चल पड़ा जिधर के जंगली पेड़ बहुत घने और गुजान थे।

कुछ दूर तक चले जाने पर भी भोलासिंह को किसी आदमी का तो पता न लगा मगर एक छोटे से पेड के नीचे बेहोश प्रभाकरसिंह पड़े जरूर दिखाई दिए यद्यपि उसने आज रात के समय प्रभाकरसिंह को देखा न था क्योंकि उस घाटी में जहाँ भूतनाथ का डेरा था पहुँचने के पहिले ही वह गायब हो चुके थे, परन्तु प्रभाकरसिंह एक अमीर बहादुर और नामी आदमी थे इसलिए भोलासिंह उन्हें पहिचानता जरूर था और कई दफे ऐयारी की धुन में शहर में घूमते हुए उसने प्रभाकरसिंह को देखा भी था, इसके अतिरिक्त आज भूतनाथ ने उसे यह भी बता दिया था कि जिस समय प्रभाकरसिंह हमारे साथ से गायब हुए हैं उस समय उनकी पोशाक फलाने ढंग की थी तथा उनके पास अमुक हर्बे थे।

इन सब कारणों से भोलासिंह को उनके पहिचानने में किसी तरह की कोई दिक्कत न हुई और वह उन्हें ऐसी अवस्था में पड़े हुए देखते ही चौंक पड़ा वह उनके पास बैठ गया और गौर से देखने लगा कि क्या उन्हें किसी तरह की चोट आई है या कोई आदमी जान से मार कर छोड़ गया हैं किसी तरह की चोट का पता तो न लगा मगर इतना मालूम हो गया कि मरे नहीं बल्कि बेहोश पड़े हैं।

भोलासिंह ने अपने ऐयारी के बटुए में से लखलखा निकाल और सुंघाने लगा थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह होश में आ गए और उन्होंने अपने सामने एक देहाती ब्राहाण को बैठे देखा।

प्रभा० : आप कौन हैं? कृपा कर अपना परिचय दीजिए मैं आपका बड़ा ही कृतज्ञ हूँ क्योंकि आज निःसन्देह आपने मेरी जान बचाई है।

भोला० : मैं एक गरीब देहाती ब्राहाण हूँ। इस राह से जा रहा था कि यकायक आपको इस तरह पड़े हुए देखा, फिर जो कुछ बन सका किया।

प्रभा० :(सिर हिला कर) नहीं, कदापि नहीं, आप ब्राहाण भले ही हों परन्तु देहाती और गरीब नहीं हो सकते, आप जरूर कोई ऐयार हैं।

भोला० : यह शक आपको कैसे हुआ?

प्रभा० : यद्यपि मैं ऐयारी नहीं जानता परन्तु ऐसे मौके पर आपको पहिचान लेना कोई कठिन काम न था क्योंकि आपने बहुत उम्दा लखलखा सुँघा कर मेरी बेहोशी दूर की है जिसकी खुशबू अभी तक मेरे दिमाग में गूँज रही है, क्या कोई आदमी जो ऐयारी नहीं जानता हो ऐसा लखलखा बना सकता हैं? आप ही बताइये!

भोला० : आपका कहना ठीक है मगर मैं।।

प्रभा० : (बात काट कर) नहीं-नहीं इसमें कुछ सोचने और बात बनाने की जरूरत नहीं है, मैं आपसे मिल कर बड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप जरूर मेरे दोस्त भूतनाथ के ऐयार हैं जिनसे सिवाय भलाई के बुराई की आशा हो ही नहीं सकती।

भोला० : (कुछ सोच कर) बात तो बेशक ऐसी ही है, मैं जरूर भूतनाथ का ऐयार हूँ और वे आपका पता लगाने के लिए गए हैं, मगर यह तो बताइए कि आप यकायक गायब क्यों हो गए और आपकी ऐसी दशा किसने की हैं?

प्रभा० : मैं यह सब हाल तुमसे बयान करूँगा और यह भी बताऊँगा कि क्यों कर मेरी जान बच गई, मगर इस समय नहीं क्योंकि दुश्मनों के हाथ से तकलीफ उठाने के कारण मैं बहुत ही कमजोर हो रहा हूँ और अब मुझमें ज्यादा बात करने की भी ताकत नहीं हैं।

अस्तु जिस तरह हो सके मुझे अपने डेरे पर ले चलो, वहाँ सब कुछ सुन लेना और उसी समय इन्दुमति तथा गुलाबसिंह को भी मेरा हाल मालूम हो जायगा. यद्यपि मुझमें चलने की ताकत नहीं हैं मगर तुम्हारे मोढ़े का सहारा लेकर धीरे-धीरे वहाँ तक पहुँच ही जाऊँगा.

भोला० : अच्छी बात है, मैं तो आपकी पीठ पर लाद कर भी ले जा सकता हूँ.

प्रभा० : ठीक है मगर इसकी कोई जरूरत नहीं हैं, अच्छा अब अपना नाम तो बता दो.

भोला० : मेरा नाम भोलासिंह हैं.

इतना कह कर भोलासिंह उठ खड़ा हुआ और उसने हाथ का सहारा देकर प्रभाकरसिंह को भी उठाया. वह बहुत ही सुस्त और कमजोर मालूम हो रहे थे इसलिये भोलासिंह उन्हे टेकाता और सहारा देता हुआ बड़ी कठिनता से सुरंग के मुहाने पर ले आया. वहाँ पर प्रभाकरसिंह ने बैठ कर कुछ देर तक सुस्ताने की इच्छा प्रकट की अस्तु उन्हें बैठा कर भोलासिंह भी उनके पास बैठ गया.

इस समय दिन पहर भर के लगभग रह गया होगा. आह, यहां पर भोलासिंह ने बेढब धोखा खाया. यह जो प्रभाकरसिंह उसके साथ भूतनाथ की घाटी में जा रहे हैं वह वास्तव में प्रभाकरसिंह नहीं हैं बल्कि उनके दुश्मनों में से एक ऐयार है जिसका खुलासा हाल आगे के किसी बयान में मालूम होगा, यह उसे तथा भूतनाथ और उसके ऐयारों को धोखा दिया चाहता है और इन्दुमति पर कब्जा कर लेने की धुन में हैं.

यद्यपि भोलासिंह भी ऐयार और बुद्धिमान हैं मगर साथ ही इसके उसे भांग का बहुत शौक है. सुबह दोपहर और शाम तीनों वक्त छाने बिना उसका जी नहीं मानता. इतने पर भी लगा लिया करता है और यही सबब है कि वह कभी-कभी बेढब धोखा खा जाता है. मगर यह ऐयार भी बड़ा ही मक्कार है जो उसके साथ जा रहा है, देखना चाहिए दोनों में क्योंकर निपटती है. भोलासिंह तो खुश है कि हमने प्रभाकरसिंह को खोज निकाला, और वह ऐयार सोचता है कि अब इन्दुमति पर कब्जा करना कौन बड़ी बात है?

कुछ देर के बाद दोनों आदमी उठ खडे हुए और भोलासिंह उस नकली प्रभाकरसिंह को साथ लिए हुए सुरंग के अन्दर चला गया।

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