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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान

बेचारी इन्दुमति बड़े ही संकट में पड़ गई है। प्रभाकरसिंह का इस तरह यकायक गायब हो जाना उसके लिए बड़ा ही दुःखदायी हुआ इस समय उसके आगे दुनिया अंधकार हो रही है। उसे कहीं भी किसी तरह का सहारा नहीं सूझता। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता कि अब उसका भविष्य कैसा होगा, उसे न तो तनोबदन की सुध है और न नहाने-धोने की फिक्र। वह सिर झुकाए अपने प्यारे पति की चिन्ता में डूबी हुई है।

गुलाबसिंह उसके पास बैठे हुए तरह-तरह की बातों से उसे सन्तोष दिलाना चाहते हैं मगर किसी तरह भी उसके चित्त को शान्ति नहीं होती और वह अपने मन की दो-चार बातें कह कर चुप हो जाती है! हाँ जब-जब उसके कान में ये शब्द पड़ जाते हैं कि ‘भूतनाथ का उद्योग कदापि वृथा नहीं हो सकता, वह जरूर प्रभाकरसिंह को खोज निकालेंगे और यह अपने साथ ले कर ही आवेंगे’ तब-तब वह चौंक पड़ती हैं। आशा के फेर में पड़ कर उसका ध्यान सुरंग के मुहाने की तरफ जा पड़ता है और कुछ देर के लिए उधर की टकटकी बंध जाती हैं

इस बीच में इन्दु ने कई दफे गुलाबसिंह से कहा, ‘‘तुम मुझे साथ लेकर इस सुरंग के बाहर निकलो, मैं खुद मर्दाना भेष बना कर उसका पता लगाऊँगी’’, मगर गुलाबसिंह ने ऐसा करना स्वीकार न किया जिससे उसका चित्त और भी दुःखी हो गया और उसने रोते कलपते ही बची हुई रात और अगला दिन बिता दिया।

अन्त में दिन बीत जाने पर संध्या के समय जब सूर्य भगवान अस्त हो रहे थे लाचार होकर गुलाबसिंह ने इन्दु से वादा किया कि अच्छा अगर कल तक भूतनाथ लौट कर न आ जायेंगे तो मैं तुम्हें साथ लेकर सुरंग के बाहर निकल चलूंगा और फिर जैसा तुम कहोगी वैसा ही करूँगा।

गुलाबसिंह के इस वादे से इन्दु को कुछ थोड़ी-सी ढाढ़स मिल गई और उसने साहस करके अपने को सम्हाला। इसके बाद गुलाबसिंह से बोली कि ‘इस समय तो मैं स्नान इत्यादि कुछ भी नहीं करूँगी, हाँ यदि तुम आज्ञा दो तो मैं थोडी देर के लिए नीचे उतर कर मैदान में टहलूँ और दिल बहलाऊँ। गुलाबसिंह ने उसकी इस बात को भी गनीमत समझा और घूमने-फिरने की इजाजत दे दी।

इन्दुमति का घूमने-फिरने के लिए गुलाबसिंह से आज्ञा ले लेना केवल इसी अभिप्राय से न था कि वह अपना दिल बहलावे बल्कि उसका असल मतलब यह था कि वह अकेले में बैठ कर या घूम-फिर कर इस विषय पर विचार करे कि अब उसे क्या करना चाहिए क्योंकि वह गुलाबसिंह की समझाने-बुझाने वाली बातों से दुःखी हो गई थी। उसका हरदम पास बैठे रह कर दिलासा देना या ढाढंस बंधाना उसे बहुत बुरा मालूम हुआ इस बहाने से उसने अपना पीछा छुड़ाया।

उदास और पति की जुदाई से व्याकुल इन्दुमति गुलाबसिंह के पास से उठी और धीरे-धीरे चल कर नीचे वाले सरसब्ज मैदान में पहुँच कर टहलने लगी, उधर गुलाबसिंह भी दिन भर का भूखा-प्यासा था अतः जरूरी कामों से निपटने और कुछ खाने-पीने की फिक्र में लगा।

धीरे-धीरे घूमती-फिरती इन्दुमति उस संरग के मुहाने के पास आ पहुँची जो यहाँ आने-जाने का रास्ता था और पहाड़ी के साथ एक पत्थर की साफ चट्टान पर बैठ कर सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए उसका मुँह सुरंग की तरफ था और इस आशा से बराबर उसी तरफ देख रही थी कि प्रभाकरसिंह को लिए हुए भूतनाथ अब आता ही होगा, उसी समय नकली प्रभाकर सिंह को लिए भोलासिंह वहाँ आ पहुँचा और सुरंग के बाहर निकलते ही इन्दु की निगाह उन पर पड़ी तथा उन दोनों ने भी इन्दु को देखा।

इस समय भोलासिंह अपनी असली सूरत में था और उसे भूतनाथ के साथ जाते हुए इन्दु ने देखा भी था इसलिए वह जानती थी कि भूतनाथ का ऐयार है।

अस्तु निगाह पड़ते ही उसे विश्वास हो गया कि भूतनाथ ने मेरे पति को भोलासिंह के साथ वहाँ भेज दिया है और भोलासिंह सुरंग से निकल कर पाँच कदम आगे न बढ़े होंगे कि प्रभाकरसिंह को देखते ही इन्दुमति पागलों की तरह दौड़ती हुई उनके पास पहुँची और उनके पैरों पर गिर पड़ी।

हाय, बेचारी इन्दु को क्या खबर थी कि यह वास्तव में मेरा पति नहीं बल्कि कोई मक्कार उसकी सूरत बना मुझे धोखा देने के लिए यहाँ आया है। तिस पर भोलासिंह के साथ रहने से उसे इस बात पर शक करने का मौका भी न मिला। वह उसे अपना पति समझ कर उसके पैरों पर गिर पड़ी और वियोग के दुख को दूर करती हुई प्रसन्नता ने उसे गदगद कर दिया। कण्ठ रूद्ध हो जाने के कारण वह कुछ बोल न सकी, केवल गरम-गरम आँसू गिराती रही। भोलासिंह भी चुपचाप खड़ा आश्चर्य के साथ उसकी इस अवस्था को देखता रहा।

नकली प्रभाकरसिंह ने इन्दुमति से कुछ न कह कर भोलासिंह से कहा, ‘‘भाई भोलासिंह अब तो मैं बिल्कुल ही थक गया हूँ। मेरी कमजोरी अब एक कदम भी आगे नहीं चलने देती। इन्दु से मिलने का उत्साह मुझे यहाँ तक साहस देकर ले आया यही गनीमत है, नहीं दुश्मनों के लिए हुए जहर की बदौलत बिल्कुल ही कमजोर हो गया हूँ।

इत्तिफाक की बात है कि इन्दु मुझे इसी जगह मिल गई। अब मैं कुछ देर तक सुस्ताए बिना एक कदम भी आगे नहीं चल सकता अस्तु तुम जाओ, गुलाबसिंह को भी खुशखबरी देकर इसी जगह बुला लाओ तब तक मैं भी अच्छी तरह आराम कर लूँ।''

‘‘बहुत अच्छा’’ कह कर भोलासिंह वहाँ से चला गया। यहाँ से गुलाबसिंह का डेरा सैकड़ों कदम की दूरी पर था, तमाम मैदान पार करने के बाद पहाड़ी पर चढ़ कर वह गुफा थी जिसमें गुलाबसिंह का डेरा था, अस्तु वहाँ तक जाने और आने में घड़ी भर से भी ज्यादा देर लग सकती थी तथापि भोलासिंह दौड़ा-दौड़ा जाकर गुलाबसिंह से मिला और उन्हें प्रभाकरसिंह के आने की खुशखबरी सुनाई। उस समय गुलाबसिंह रसोई बनाने की फिक्र में थे मगर यह खबर सुनते ही उन्होंने सब काम छोड़ दिया और प्रभाकरसिंह से मिलने के लिए भोलासिंह के साथ चल पड़े।

जिस समय गुलाबसिंह को साथ लिए हुए भोलासिंह सुरंग के मुहाने पर पहुँचा तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था। न तो प्रभाकरसिंह दिखाई पड़े और न इन्दुमति ही नजर आई। ऐसी अवस्था देख भोलासिंह सन्नाटे मे आ गया और अब उसे मालूम हुआ कि उसने धोखा खाया। वह घबड़ा कर चारों तरफ देखने के बाद यह कहता हुआ जमीन पर बैठ गया -‘‘हाय, मैंने बुरा धोखा खाया। प्रभाकरसिंह के साथ ही-साथ इन्दुमति को भी हाथ से खो बैठा।''

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