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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान

अब हम थोड़ा हाल जमना, सरस्वती और इन्दुमति का बयान करते हैं। नकली हरदेई अर्थात् रामदास से जमना, सरस्वती और इन्दुमति की तरफ से प्रभाकर सिंह का दिल जिस तरह खट्टा कर दिया था उसे हमारे प्रेमी पाठक अच्छी तरह पढ़ ही चुके हैं, इसके बाद बाबाजी ने जब रामदास का असली भेद खोल कर सच्चाहाल प्रभाकर सिंह को बता दिया तब प्रभाकर सिंह चैतन्य हो गये और समझ गए कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति वास्तव में निर्दोष हैं और उनके बारे में जो कुछ हमने सोचा-समझा और किया वह सब अनुचित था अस्तु प्रभाकरसिंह को अपनी कार्रवाई पर बड़ा खेद हुआ।

यह सब कुछ था परन्तु जमना, सरस्वती और इन्दुमति के दिल पर जो गहरी चोट बैठी चुकी थी उसकी तकलीफ किसी तरह कम न हुई और न उन तीनों को इस बात का पता ही लगा कि किसी बाबाजी ने पहुँच कर हमारी तरफ से प्रभाकर सिंह का दिल साफ कर दिया।

अपने शागिर्द की मदद से प्रभाकर सिंह वाली तिलिस्म किताब पाकर भूतनाथ वहाँ की बहुत-सी बातों का जानकार हो चुका था जो सिर्फ काम चलाने और जरूरी कार्रवाई करने के लिए इन्द्रदेव ने तैयार करके प्रभाकरसिंह को दे दी थी, परन्तु भूतनाथ ऐसे धूर्त और शैतान के लिए वही बहुत थी।

उसी की मदद से भूतनाथ ने अपने कई शार्गिर्दों के साथ उस तिलिस्म के अन्दर पहुँच कर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को बेतरह सताया और दु:ख दिया जिसका हाल हम खुलासे तौर पर नीचे लिखते हैं।

ग्रहदशा की सताई हुई जमना, सरस्वती और इन्दुमति को जब भूतनाथ ने तिलिस्मी कूप में ढकेल दिया तो वहाँ उन्हें एक मददगार मिल गया जिसके सबब से तीनों की जान बच गई और उसी आदमी की मदद से वे तिलिस्म के अन्दर किसी कार्यवश स्वतन्त्रता के साथ घूम रही थीं। वह मददगार कौन था और उस कुएं के अन्दर ढकेल देने के बाद उन लोगों की जान क्योंकर बची इसका हाल फिर किसी मौके पर बयान किया जायगा, इस समय हम वहाँ से उन तीनों का हाल बयान करते हैं जहाँ से तिलिस्म के अन्दर प्रभाकरसिंह ने उन तीनों को देखा था।

जमना, सरस्वती और इन्दुमति का जो मददगार था वह बराबर अपने चेहरे पर नकाब डाले रहता था इससे उन तीनों ने उसकी सूरत नहीं देखी थी कि उनका मददगार किस सूरत का और कैसा आदमी है, यही सबब था कि जब भूतनाथ उस तिलिस्म के अन्दर गया तो उसने भी जमना और सरस्वती के मददगार को नहीं पहिचाना, हाँ पहिचानने के लिए उद्योग बराबर करता रहा।

एक दफे जमना ने मददगार से प्रार्थना भी की थी कि अपनी सूरत दिखा दे और अपना परिचय दे, परन्तु नकाबपोश ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की थी, हाँ इतना जरूर कह दिया था कि तुम लोग मुझे अपने बाप के बराबर समझो और जब कभी संबोधन करने की जरूरत पड़े तो नारायण के नाम से संबोधन किया करो अस्तु अब हम भी आगे चल कर मौका पड़ने पर उसे नारायण ही के नाम से संबोधन किया करेंगे।

जब मन्दिर की जालीदार दीवार के अन्दर से प्रभाकरसिंह ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति को देखा था और कुछ रूखी-सूखी बातचीत भी की थी उस समय जो आदमी उन तीनों को मारने के लिए आया था और जिसे हम बेताल के नाम से संबोधन कर चुके हैं, वास्तव में भूतनाथ ही था।

प्रभाकरसिंह को तो उसके हाथ से उन तीनों की रक्षा करने के लिए वहाँ तक पहुँचने में देर लगी परन्तु नारायण ने बहुत जल्द वहाँ पहुँच कर उस शैतान के हाथ से उन तीनों को बचा लिया। नारायण जानते थे कि वह वास्तव में भूतनाथ है और जमना, सरस्वती तथा इन्दुमति को भी शक हो चुका था कि वह भूतनाथ है क्योंकि उससे घंटे भर पहिले वह तीनों से मिल चुका था और अपना विचित्र ढंग दिखला कर अच्छी तरह धमका चुका था। मगर उस समय उसे काम करने का मौका नहीं मिला था। यही सबब था कि उसकी सूरत देखते ही वे तीनों चिल्ला उठीं और बिमला (जमना) ने आँसू गिराते हुए चिल्लाकर प्रभाकरसिंह से कहा था- ‘‘बचाइये, आप जल्दी यहाँ आकर हम लोगों की रक्षा कीजिये, यही दुष्ट हम लोगों के खून के प्यासा है!’’

इसके बाद जब प्रभाकरसिंह दूसरी पहाड़ी पर चढ़ कर ऊपर-ही-ऊपर वहाँ पहुँचे तो देखा कि बैताल अर्थात् भूतनाथ से एक नकाबपोश मुकाबला कर रहा है। यही नकाबपोश नारायण था। नारायण ने वहाँ पहुँच कर उन तीनों औरतों को भाग जाने का इशारा करके भूतनाथ का मुकाबला किया और बड़ी खूबी के साथ लड़ा। जब प्रभाकरसिंह वहाँ पहुँचे और नारायण के कहे मुताबिक जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पीछे चले तब पुन: भूतनाथ और नारायण से लड़ाई होने लगी। भूतनाथ का कोई हर्बा नारायण के बदन पर कारगर नहीं होता था बल्कि नारायण के मोढ़े पर बैठ कर भूतनाथ की तलवार टूट चुकी थी, अन्त में नारायण के हाथ से जख्मी होकर भूतनाथ ने मुकाबले से मुंह फेर लिया।

उसे विश्वास हो गया कि अगर थोड़ी देर तक और मुकाबला करूँगा तो बेशक मारा जाऊँगा, अस्तु वह धोखा देकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ और नारायण ने भी उसका पीछा किया।

नारायण यद्यपि लड़ाई में भूतनाथ से ज्यादा ताकतवर और होशियार था मगर दौड़ने में उसका मुकाबला किसी तरह नहीं कर सकता था इसलिए भूतनाथ को पकड़ न सका और वह भाग कर नारायण की आँखों की ओट हो गया।

प्रभाकरसिंह ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति का पीछा किया। वे तीनों दीवार के दूसरी तरफ चली गईं मगर दरवाजा बन्द हो जाने के कारण प्रभाकरसिंह उसके अन्दर न जा सके।

उसी समय बाहर ही खड़े-खड़े सुना कि सरस्वती से और किसी गैर आदमी से बातचीत हो रही है। गैर आदमी जमना, सरस्वती और इन्दुमति को बदकार साबित किया चाहता था और उसकी बातों से प्रभाकरसिंह के दिल की खटाई और भी बढ़ गई थी। मगर वास्तव में मामला दूसरा ही था। वह आदमी जो प्रभाकरसिंह को सुना-सुना कर सरस्वती से बातें कर रहा था असल में भूतनाथ का एक शागिर्द था और उसका मतलब यही था कि अपनी बातों से प्रभाकरसिंह का दिल जमना, सरस्वती और इन्दुमति की तरफ से फेर दे, साथ ही उसके उस ऐयार ने यह भी चालाकी की थी कि अपनी सूरत में उन औरतों के पास न जाकर उसने एक जमींदार की सूरत बनाई थी और बातचीत करने के बाद बिना किसी तरह की तकलीफ दिए जमना, सरस्वती और इन्दुमति के सामने से चला गया।

इसके बाद प्रभाकरसिंह स्वयं जमना, सरस्वती और इन्दुमति से जाकर मिले और जिस तरह से बातचीत करके इन्दु का परित्याग किया आप लोग पढ़ ही चुके हैं, अब हमें इस जगह केवल उन औरतों ही का हाल लिखना है।

जब प्रभाकरसिंह इन्दुमति का त्यागकर उन तीनों के सामने से चले गए तब इन्दुमति बहुत ही उदास हुई और देर तक बिलख-बिलखकर रोती रही। अन्त में उसने जमना से कहा, ‘‘बहिन, अब मेरे लिए जिन्दगी अपार हो गई, जब पति ने ही मुझे त्याग कर दिया तब इस पापमय शरीर को लेकर इस दुनिया में रहना और चारों तरफ मारे-मारे फिरना मुझे पसन्द नहीं, अस्तु मैं इस शरीर को इसी जगह त्याग कर बखेड़ा तै करूँगी।’’

जमना : नहीं बहिन, तुम इस काम में जल्दी मत करो और इस तरह यकायक हताश भी मत हो जाओ। मालूम होता है कि किसी दुश्मन ने उन्हें भड़का दिया है और इसी से उनका मिजाज बदल गया है। मगर यह बात बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकती। धर्म हमारी सहायता करेगा और एक-न-एक दिन असल भेद खुल जाने से वे अपने लिए पश्चात्ताप करेंगे।

इन्दुमति : मगर बहिन, मैं कब तक उस दिन का इन्तजार करूँगी?

जमना : इन बातों का फैसला बहुत जल्द हो जायगा, हम लोगों को ज्यादे इन्तजार न करना पड़ेगा।

इन्दुमति : खैर अगर तुम्हारी बात मान ली जाय तो भी दुश्मन के हाथ से बचे रहने की क्या तरकीब हो सकती है जो बार-बार हम लोगों का पीछा करके भी शान्त नहीं होता। अगर नारायण की मदद न होती तो वह....

इन्दुमति इसके आगे कुछ कहने ही को थी कि उसने सामने से अपने मददगार नारायण को आते देखा। इस समय नारायण की पीठ पर एक गठरी थी जिसमें कोई आदमी बंधा था।

नारायण तेजी के साथ कदम बढ़ाता हुआ जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास आया। गठरी जमीन पर रख तथा अपना परिचय देकर इन्दुमति से बोला, ‘‘इन्दु, मुझे मालूम हो गया है कि तेरे दुश्मनों ने तुझे, बल्कि जमना-सरस्वती को भी व्यर्थ बदनाम किया है और तुम लोगों की तरफ से प्रभाकरसिंह का दिल फेर दिया है। यह काम भूतनाथ के खास ऐयार का है जिसने हरदेई की सूरत बनकर तुमको और प्रभाकरसिंह को धोखा दिया। आजकल में जरूर उसकी खबर लूँगा। इस समय मैं तुम्हारे जिस दुश्मन से लड़ रहा था वह वास्तव में ही भूतनाथ था।’’

इन्दुमति : (ताज्जुब से बात काटकर) क्या वह भूतनाथ है? मगर इस तिलिस्म के अन्दर वह क्योंकर आ पहुँचा?

नारायण : हाँ, वह भूतनाथ ही है। इन्द्रदेव ने प्रभाकरसिंह को हाथ की लिखी हुई एक छोटी-सी किताब दी थी, उसी किताब को पढ़कर प्रभाकरसिंह इस तिलिस्म के अन्दर आये थे, भूतनाथ के उसी ऐयार ने जो हरदेई बना हुआ था धोखा देकर वह किताब प्रभाकरसिंह की जेब से निकाली और अपने गुरु भूतनाथ को दे आया। उस किताब की मदद से भूतनाथ इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुँचा है और तुम तीनों को तथा प्रभाकरसिंह को मारने का उद्योग कर रहा है। खैर कोई चिन्ता नहीं जहाँ तक हो सकेगा मैं तुम लोगों की मदद करूँगा।

अफसोस इसी बात का है कि इस समय मैं यहाँ अकेला हूँ मगर भूतनाथ अपने कई ऐयारों को साथ लेकर आया हुआ है और तुम लोगों की मदद करते हुए इस समय मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि घर जाकर अपने आदमियों के ले आऊँ या इन्द्रदेव को ही इस मामले की खबर करूँ, अगर चार पहर की भी मोहलत मिल जाय तो मैं इन्द्रदेव को खबर पहुँचा सकता हूँ, वह अगर यहाँ आ जायगा तो फिर किसी दुश्मन के लिए कुछ न हो सकेगा।

इन्दु० : तो हम लोगों को आप अपने साथ इन्द्रदेव के पास क्यों नहीं ले चलते?

नारायण : हाँ, तुम लोगों को मैं अपने साथ वहाँ ले जा सकता हूँ मगर प्रभाकरसिंह की मदद भी तो करनी है। अगर उन्हें इसी अवस्था में छोड़कर तुम लोगों को साथ लेकर चला जाऊँ तो भूतनाथ का ऐयार उन्हें जरूर मार डालेगा क्योंकि वह अभी हरदेई की सूरत में है और प्रभाकरसिंह उस पर विश्वास करते हैं।

जमना : तो उन्हें इस मामले की खबर कर देनी चाहिए।

नारायण : मैं इसी फिक्र में हूँ। तुम्हारे जिस दुश्मन से मैं लड़ रहा था वह अर्थात् भूतनाथ जख्मी होकर मेरे सामने से भाग गया, मैं उसी के पीछे दौड़ा हुआ चला गया था मगर उसे पकड़ न सका क्योंकि बीच में उसका एक शार्गिद पहुँच गया और उसने मेरा मुकाबला किया। अन्त में वह मेरे हाथ से मारा गया। मैं उसी को इस गठरी में बाँध लाया हूँ।

अब इसी जगह चिता बनाकर इसे फूँक दूँगा, इसके बाद तुम लोगों को यहाँ से ले चलूँगा और किसी अच्छे ठिकाने बैठाकर प्रभाकरसिंह के पास जाऊँगा। अब ज्यादे देर तक बातचीत करना मैं मुनासिब नहीं समझता क्योंकि काम बहुत करना है और समय कम है, तुम लोग मेरी मदद करो और जल्दी से लकड़ी बटोर कर चिता बनाओ।

बात-की-बात चिता तैयार हुई और नारायण ने उस ऐयार की लाश को चिता पर रख कर आग लगा दी। थोड़ी देर तक इन्दुमति खड़ी उस चिता की तरफ देखती और कुछ सोचती रही, इसके बाद नारायण से बोली, ‘‘आपके बगल में बटुआ लटक रहा है, इससे मालूम होता है कि आप भी कोई ऐयार हैं, अगर मेरा खयाल ठीक है तो आपके पास लिखने का सामान भी जरूर होगा!’’

नारायण : हाँ-हाँ, मेरे पास लिखने का सामान है, क्या तुमको चाहिए?

इन्दुमति : जी हाँ, कागज का एक टुकड़ा कलम- दावात चाहिए।

नारायण ने अपने बटुए में से कागज का टुकड़ा और स्याही से भरी हुई एक सोने की जड़ाऊ कलम निकाल कर इन्दु को दी, इन्दु ने उसी कागज पर कुछ लिखा और अपने आँचल में से कपड़े का टुकड़ा फाड़ कर उससे उसी कागज को बाँध कर एक तरफ फेंक दिया। यही वह चीठी थी जो प्रभाकरसिंह को उस चिता के पास मिली थी।

इन्दुमति ने उस पुर्जे में क्या लिखा है सो इस समय इसने किसी से न बताया और न किसी ने उससे पूछा ही, हाँ कुछ देर बाद उसने यह भेद कला और बिमला पर खोल दिया।

जमना, सरस्वती और इन्दु को साथ लिए हुए नारायण वहाँ से रवाना हुए। वे उस तरफ नहीं गए जिस तरफ़ दीवार थी बल्कि उसके विपरीत दूसरी तरफ़ रवाना हुए। थोड़ी दूर जाने के बाद उन लोगों को जंगल मिला, वे लोग जंगल में चले गये। क्रमश: वह जंगल घना मिलता गया यहाँ तक कि लगभग दो कोस के जाते वे लोग एक ऐसी भयानक जगह में जा पहुँचे जहाँ बारीक-बारीक सैकड़ों पगडंडियाँ थीं और उनमें से अपने मतलब का रास्ता निकाल लेना बड़ा ही कठिन था मगर तीनों औरतों को लिए हुए नारायण अपने रास्ते पर इस तरह चले जाते थे मानों उन्हें सिवाय एक रास्ते या पगडण्डी के कोई दूसरी पगडण्डी दिखाई देती नहीं थी।

उस भयानक जंगल में थोड़ी दूर चले जाने के बाद उन्हें ढालवीं जमीन मिली और वे लोग पहाड़ी के नीचे उतरने लगे। जंगल पतला होता गया और वे लोग क्रमश: मैदान की हवा खाते हुए नीचे की तरफ जाने लगे।

लगभग आधा घण्टे और चले जाने के बाद वे लोग खूबसूरत मकान के पास पहुँचे जो बड़ी ऊँची चहारदीवारी से घिरा हुआ था और अन्दर जाने के लिए सिर्फ पूरब तरफ एक बहुत बड़ा लोहे का फाटक था।

वह मकान यद्यपि बाहर से देखने में खूबसूरत और शानदार मालूम होता था मगर उसके अन्दर एक सहन और दस-बारह कमरे तथा कोठरियों के सिवाय और कुछ भी न था। मकान क्या मानों कोई महाराजी धर्मशाला था।

मकान के चारों तरफ बाग था मगर इस समय उसकी अवस्था जंग की सी दिखाई दे रही थी। उसके चारों तरफ ऊँची चारदीवारी थी मगर वह भी कई जगह से मरम्मत के लायक हो रही थी।

तीनों औरतों को साथ लिए नारायण उस चारदीवारी के अन्दर घुसे और इधर-उधर देखते हुए उस इमारत के अन्दर चले गये जहाँ एक कमरे के अन्दर जाकर वे जमना से बोले, ‘‘देखो जमना, यह बाग के अन्दर जाने का दरवाजा है। इस मकान में जितने कमरे हैं उन सभी को कहीं-न-कहीं जाने का रास्ता समझना चाहिए। मैं तुम लोगों को जिस स्थान में ले जाना चाहता हूँ वहाँ का रास्ता यही है।

मैं इस दरवाजे का भेद तुमको दिखा और समझा देना चाहता हूँ जिसमें यहाँ से जाने-आने के लिए तुम किसी की मुहताज न रहो। भूतनाथ जिस किताब को पाकर फूल रहा है और जिसकी मदद से वह इस तिलिस्म के अन्दर चला आया है उस किताब में इस इमारत का हाल कुछ भी नहीं लिखा है इसलिए समझ रखना कि भूतनाथ इसके अन्दर आकर तुम लोगों को सता नहीं सकता। (सामने की दीवार की तरफ इशारा करके) देखो दीवार में जो वह अलमारी दिखाई देती है वही यहाँ से जाने का रास्ता है। इसमें एक ही पल्ला है और खैंचने के लिए मुट्ठा लगा हुआ है, इसी मुट्ठे को चाभी समझना चाहिए। और देखो उस अलमारी के ऊपर क्या लिखा हुआ है?’’ इतना कह कर नारायण ठहर गए और जमना का मुँह देखने लगे जो उन हरूफों को बड़े गौर से देख रही थी। इन्दुमति आगे बढ़ गई और उसने उन अक्षरों को पढ़कर नारायण को सुनाया। यह लिखा हुआ था-

दक्षिण श्रृषि वसु वाम, पुनरपि चन्द्रादित्य इमि

पुनि इमि गनहुँ सुजान, जौलों वेद न पूरहीं।

नारायण : ठीक है, यही लिखा हुआ है, अच्छा बताओ इसका मतलब क्या है?

इन्दुमति : मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया, चाहे शब्दों का अर्थ कुछ निकाल सकूँ मगर यह लिखा क्या है सो आप जानिए।

नारायण : यह इस दरवाजे को खोलने के विषय में लिखा है। इसका मतलब यह है कि इस मुट्ठे को (जो दरवाजे में लगा हुआ है) सात दफे दाहिने, आठ दफे बायें, फिर एक दफे दाहिने और बारह दफे बाएँ घुमाओ, इस तरह चार दफे करो तो दरवाजा खुल जायगा।

जमना : (कुछ देर तक उस लेख पर गौर करके) ठीक है, इस लेख का यही मतलब है, मगर पढ़ने वाला यह कैसे जान सकेगा कि यह लेख इसी मुट्ठे को घुमाने के विषय में लिखा है?

नारायण : यह बात होशियार आदमी अपनी अक्ल से समझ सकता है, तिलिस्म बनाने वाले बिल्कुल साफ-साफ तो लिखेंगे नहीं।

जमना: ठीक है।

नारायण : अच्छा तो अब आगे बढ़ो और अपने हाथ से दरवाज़ा खोलो।

नारायण की आज्ञानुसार जमना ने ऊपर लिखे ढंग से मुट्ठे को घुमाया। दरवाजा खुल गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दीं। सामने एक आला था और उसमें एक छोटा-सा पीतल का सन्दूक रक्खा हुआ था जिसमें किसी तरह का ताला लगा हुआ न था। नारायण ने वह सन्दूक खोल कर सभों को दिखाया कि इसमें रोशनी करने का काफी सामान मौजूद है अर्थात कई मोमबत्तियाँ और चकमक पत्थर वगैरह उसमें मौजूद हैं।

एक मोमबत्ती जलाई गई और उसी की रोशनी के सहारे दरवाजा बन्द करने के बाद सब कोई नीचे उतरे। जिस तरह दरवाजा खुलता था उसी ढंग से बन्द भी होता था और यह बात दरवाजे के पिछली तरफ लिखी हुई थी।

कई सीढ़ियाँ नीचे उतर जाने के बाद एक सुरंग मिली। ये चारों आदमी सुरंग के अन्दर चले गये और सुरंग जब खत्म हुई तो सब कोई एक सरसब्ज मैदान में पहुँचे जहाँ दूर तक खुशनुमा पहाड़ी गुलबूटे लगे हुए थे और एक छोटा-सा सुन्दर मकान भी मौजूद था जिसके आगे छोटा-सा झरना बह रहा था और झरने के किनारे बहुत-से केले के दरख्त लगे हुए थे जिनमें कच्चे और पक्के सभी तरह के फल मौजूद थे।

नारायण ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति से कहा, ‘‘अब दो-तीन दिन तक तुम लोग इसी मकान में रहो तब तक मैं जाकर देखता हूँ कि नकली हरदेई और प्रभाकरसिंह में क्योंकर निपटी। नकली हरदेई की तरफ से उन्हें होशियार कर देना बहुत जरूरी है। (एक छोटी-सी किताब जमना के हाथ में देकर) लो इस किताब को तुम तीनों अच्छी तरह पढ़ जाओ और जहाँ तक हो सके खूब याद कर लो। इसमें उससे ज्यादे हाल लिखा है जो इन्द्रदेव ने तुम्हें बताया है या उस किताब में लिखा हुआ है जो प्रभाकरसिंह के हाथ से निकल कर भूतनाथ के कब्जे में चली गई है।’’

इतना कह कर नारायण वहाँ से चले गए।

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