मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
दसवाँ बयान
गदाधरसिंह को लेने के लिए दारोगा खुद दरवाजे तक गया और बड़े आवभगत के साथ अपनी बैठक में ले आया। मामूली बातचीत और कुशल-मंगल पूछने के बाद दोनों में इस तरह की बातचीत होने लगी-
दारोगा : मैंने आपके घर आदमी भेजा था मगर वह मुलाकात न होने के कारण सूखा ही लौट आया और उसी की जुबानी मालूम हुआ कि आप कई दिनों से किसी कार्यवश बाहर गए हुए हैं।
गदाधर : ठीक है, मैं कई दिनों से अपने घर पर नहीं हूँ, मगर आपको आदमी भेजने की जरूरत क्यों पड़ी?
दारोगा : आप जानते हैं कि मैं जब किसी तरद्दुद में पड़ जाता हूँ तब सब से पहिले आपको याद करता हूँ क्योंकि मेरे दोस्तों में सिवाय आपके कोई भी ऐसा लायक और हिम्मतवर नहीं है जो समय पर मेरी मदद कर सके।
गदाधर : कहिए क्या काम है? मैं आपके लिए हर वक्त तैयार रहता हूँ और आपसे भी बहुत उम्मीद रखता हूँ। मैं सच कहता हूँ कि आपकी दोस्ती का मुझे बहुत बड़ा घमण्ड है और यही सबब है कि मैं इस समय आपके पास आया हूँ क्योंकि इधर महीनों से मैं सख्त मुसीबत में गिरफ्तार हो रहा हूँ, अगर मेरी इस मुसीबत का शीघ्र अन्त न होगा तो मुझे इस दुनिया से एकदम अन्तर्ध्यान हो जाना पड़ेगा।
दारोगा : आपने तो बड़े ही तरद्दुद की बात सुनाई! कहिए तो सही क्या मामला है?
गदाधर : पहिले आप ही कहिए कि मुझे क्यों याद किया था?
दारोगा : नहीं पहिले मैं आपका हाल सुन लूँगा तो कुछ कहूँगा।
गदाधर : नहीं, पहिले आपका हाल सुने बिना कुछ भी नहीं बताऊँगा।
दारोगा : अच्छा पहिले मेरी ही राम कहानी सुन लीजिए। आप जानते ही हैं कि शहर के आसपास ही में कोई कमेटी १ है जिसके स्थान का सभासदों को कुछ भी पता नहीं लगता। (१. इस कमेटी का हाल चन्द्रकांता सन्तति में लिखा जा चुका है। इसी कमेटी का हाल इन्दिरा ने अपने किस्से में दोनों कुमारों से बयान किया था।)
गदाधर : हाँ मैं सुन चुका हूँ, (मुस्कराकर) मगर मेरा तो ख्याल है कि आप भी उसी कमेटी के मेम्बर हैं।
दारोगा : हरे-हरे, आप अच्छी दिल्लगी करते हैं, भला जिस राजा की बदौलत मैं इस दर्जे को पहुँच रहा हूँ और इतना सुख भोग रहा हूँ उसी के विपक्ष में हुई किसी कमेटी का मेम्बर हो सकता हूँ? आज भी अगर मुझे उस कमेटी का पता लग जाय और सभासदों का नाम मालूम हो जाय तो मैं एक-एक को चुन कर कुत्ते की मौत मारूँ और कलेजा ठंडा करूँ!
गदाधर : (मुस्कराता हुआ) कदाचित् ऐसा ही हो। मगर इस विषय में आप मुझसे बहस न कीजिए, अपना हाल कहिए। मैं उस कमेटी का हाल अच्छी तरह जानता हूँ।
दारोगा : (जिसका चेहरा गदाधरसिंह की बातों से कुछ फीका पड़ गया था) आप ही की तरह हमारे महाराज के छोटे भाई शंकरसिंहजी को भी उस कमेटी के विषय में मुझ पर शक पड़ गया है। उनका भी यह कथन है कि मैं उस कमेटी का मेम्बर हूँ।
गदाधर : ठीक है, शंकरसिंहजी बड़े ही होशियार और बुद्धिमान आदमी हैं आपके महाराज की तरह बोदे और बेवकूफ नहीं है जिन्हें आप मदारी के बन्दर की तरह जिस तरह चाहते हैं नचाया करते हैं।
दारोगा : बेशक वे बहुत होशियार और तेज आदमी हैं मगर मुझे विश्वास हो गया है कि वे मेरी जड़ खोदने के लिए तैयार हैं। यद्यपि मैं अपने को चालाक और धूर्त लगाता हूँ मगर सच कहता हूँ कि शंकर सिंह जी का मुकाबला किसी तरह नहीं कर सकता।
तिलिस्म के विषय में भी जितनी जानकारी उनको है उतनी हमारे महाराज को नहीं है, कुंवर गोपालसिंहजी को भी वह हद से ज्यादे प्यार करते हैं। अभी थोड़े दिन का जिक्र है कि स्वयम् मुझे लाल-लाल आँखें करके धमका चुके हैं और कह चुके हैं कि देख दारोगा, होशियार हो जा, अपने राजा के भरोसे पर भूला न रहियो। मैं बहुत जल्द साबित कर दूँगा कि तू उस कमेटी का मेम्बर है और इसके बाद तुझे सूअर के गलीज में रख कर फुँकवा दूँगा। खबरदार, मेरे धमकाने के हाल भाईसाहब से कदापि न कहियो नहीं तो दुर्दशा का दिन.....’
गदाधरसिंह : इससे मालूम होता है कि आपकी उस गुप्त कमेटी का हाल उन्हें मुझसे ज्यादा मालूम हो चुका है, ऐसी अवस्था में आपको चाहिए कि उन्हें इस दुनिया से उठाकर हमेशा के लिए निश्चिन्त हो जाइए नहीं तो उनका जीते रहना आपके लिए सुखदाई न रहेगा।
दारोगा : (कुछ देर तक आश्चर्य से भूतनाथ का मुँह देख कर) क्या यह बात आप हमदर्दी के साथ कह रहे हैं?
गदाधर : बेशक, मैं आपसे दिल्लगी नहीं करता।
दारोगा : अगर मैं ऐसा करने के लिए तैयार हो जाऊँ तो जरूरत पड़ने पर क्या आप मेरी मदद करेंगे?
गदाधर : जरूर मदद करूँगा मगर शर्त यह है कि आप अपना कोई भेद मुझसे छिपाया न करें।
दारोगा : मैं तो अपना कोई भेद आपसे नहीं छिपाता और भविष्य के लिए भी कहता हूँ कि न छिपाऊँगा।
गदाधर : बेशक आप छिपाते हैं।
दारोगा : नमूने के तौर पर कोई बात कहिये?
गदाधर : पहिले तो इस कमेटी के विषय में ही देख लीजिए, आज तक आपने इस विषय में मुझसे कुछ कहा?
दारोगा : (कुछ देर तक सिर नीचा करके सोच के) अच्छा मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ और कसम खाकर एकरार करता हूँ कि इस कमेटी का भेद और स्थान तुमको बता दूँगा।
गदाधर : मैं भी कसम खाकर एकरार करता हूँ कि हर एक काम में आपकी मदद तब तक करता रहूँगा जब तक आप मेरे साथ या मेरे दोस्त इन्द्रदेव के साथ किसी तरह की दगाबाजी न करेंगे।
दारोगा : मैं आपके इस एकरार से बहुत ही प्रसन्न हुआ, मगर आश्चर्य की बात है कि आपने अपने साथ-ही-साथ इन्द्रदेव को शरीक कर लिया! मैं खूब जानता हूँ कि आजकल इन्द्रदेव आपके साथ दोस्ती का बर्ताव नहीं करता। यद्यपि वह मेरा गुरुभाई है और मैं भी उसका भरोसा करता हूँ मगर बात जो वाजिब है वह कहने में आती है।
गदाधर : इन्द्रदेव की बातों को आप नहीं समझ सकते खास करके मेरे संबंध में, यों तो आपने जो कुछ देखा या सुना हो मगर मैं इन्द्रदेव पर भरोसा रखता हूँ। मेरी और उनकी दोस्ती का अन्त सिवाय मौत के और कोई नहीं कर सकता।
दारोगा : खैर, कह चुका हूँ कि वह मेरा गुरुभाई है मैं उसका भरोसा रखता हूँ। ऐसी अवस्था में मैं भला उसके साथ क्या दुश्मनी कर सकता हूँ, अच्छा अब आप अपने तरद्दुद का हाल बयान करिये कि आजकल आप किस मुसीबत में फँसे हैं।
गदाधर : मेरी मुसीबत को बढ़ाने वाले भी आपके शंकरसिंह ही हैं और कुछ-कुछ इन्द्रदेव ने भी चांड लगा रक्खी है, मगर मैं इसके लिए इन्द्रदेव को बदनाम नहीं कर सकता क्योंकि जिसकी वे मदद कर रहे हैं वे खास रिश्तेदार और आपस वाले लोग हैं।
दारोगा : अगर यह बात है तो आपको भी जरूर शंकरसिंह से दुश्मनी हो गई होगी?
गदाधर : नि:सन्देह।
दारोगा : अच्छा खुलासा तो कहिए।
गदाधर : बात वही पुरानी है- दयाराम वाली।
दारोगा : (आश्चर्य से) क्या यह बात प्रसिद्ध हो गई कि आप दयाराम के घातक हैं?
गदाधर : अगर प्रसिद्ध हो नहीं गई तो कुछ दिन बाद प्रसिद्ध हो जाने में कुछ सन्देह भी नहीं रहा, क्योंकि दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जिन्हें तमाम जमाना मुर्दा समझे हुए था जीती-जागती पाई गई हैं और उन्हें इस बात का विश्वास है कि उनके पति को गदधरसिंह ने मारा है यद्यपि वह बात बिल्कुल निर्मूल है...
दारोगा : (बात काटकर आश्चर्य से) क्या वास्तव में दयाराम की दोनों स्त्रियाँ अभी तक जीती हैं? फिर उनके मरने की गप्प किसने और क्यों उड़ाई?
गदाधर : यह सब तिलिस्म इन्द्रदेव के ही बाँधे हुए हैं और अब उन दोनों की मदद भी इन्द्रदेव ही कुछ-कुछ कर रहे हैं, मगर बीच में शंकरसिंह का कूद पड़ना मेरे लिए बड़ा ही दु:खदाई हो रहा है।
इन्द्रदेव की मदद तो नाममात्र ही के लिए थी, मगर ये हजरत जी छोड़ कर उन दोनों की मदद कर रहे हैं और मुझे जहन्नुम में मिलाने के लिए तैयार हैं, क्या करें, तिलिस्म के अन्दर की बात है नहीं तो मैं दिखा देता कि गदाधरसिंह के साथ दुश्मनी करने का नतीजा कैसा होता है।
दारोगा : यह तो बड़ा ही नाजुक मामला निकला... .
इसके बाद कुछ कहता-कहता दारोगा रुक गया क्योंकि उसे यह बात याद आ गई कि मनोरमा इसी जगह दूसरी कोठरी में छिपी हुई हम लोगों की बातें सुन रही है। सम्भव है कि दारोगा इसके आगे की बातचीत मनोरमा से छिपाना चाहता हो, अस्तु धीरे-धीरे से गदाधरसिंह से कुछ कह आँख का इशारा करने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और गदाधरसिंह का हाथ पकड़े हुए दूसरे कमरे में चला गया।
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