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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान

यह नहीं मालूम होता कि कृष्णपक्ष है या शुक्लपक्ष अथवा रात या दिन क्योंकि हम इस समय जिस स्थान पर पहुँचे हैं वहाँ चिराग या इसी तरह की किसी रोशनी के सिवाय और किसी सच्चे उजाले या चाँदनी का गुजर नहीं हो सकता। हम यह भी नहीं कह सकते कि यह कोई तहखाना है या सुरंग, अंधकारमय कोई कोठरी है या बालाखाना, सिर्फ इतना ही देख रहे हैं कि एक मामूली कोठरी में जिसमें सिवाय एक मद्विम चिराग के और किसी तरह की रोशनी नहीं है, जमना, सरस्वती और इन्दुमति बैठी हुई हैं। उन तीनों के पैर बँधे हुए हैं और किसी मोटी रस्सी के सहारे वे एक लकड़ी के खंबे के साथ भी बँधी हुई हैं जिसमें पैर से चलना तो असंभव ही है खिसक कर भी दो कदम इधर-उधर न जा सकें।

उन तीनों के सामने बैठे हुए तिलिस्मी दारोगा पर निगाह पड़ने से ही विश्वास होता है कि इन तीनों पर इतनी सख्ती होने का कारण यही बेईमान दारोगा है।

पहिले क्या-क्या हो चुका है सो हम कुछ नहीं कह सकते परन्तु इस समय हम देखते हैं कि वे तीनों अपनी बेबसी और मजबूरी पर जमीन की तरफ देखती हुई गर्म-गर्म आँसू गिरा रही हैं और इस अवस्था में कभी कोई सर उठा कर दारोगा की तरफ देख भी लेती है।

कुछ देर तक सन्नाटा रहने के बाद जमना ने एक लम्बी साँस ली और सर उठा कर दारोगा की तरफ देख धीमी आवाज से कहा– ‘‘बहुत देर तक सोचने के बाद अब मैं आपको पहिचान गई कि आप जमानिया राज के कर्ता-धर्ता दारोगा साहब हैं।’’

दारोगा : बेशक मैं वहीं हूँ, इस समय अपने-आप को छिपाना नहीं चाहता इसलिए असली सूरत में तुम लोगों के सामने बैठा हुआ हूँ।

जमना : ठीक है, तो मैं समझती हूँ कि उस तिलिस्म के अन्दर हम लोगों को बेहोश करके यहाँ ले आने वाले भी आप ही हैं।

दारोगा : बेशक!

जमना : आखिर इसका कारण क्या है! हम लोगों ने आपका क्या बिगाड़ा है जो आप हमारे साथ इतनी सख्ती का बर्ताव कर रहे हैं?

दारोगा : मेरा तुम लोगों ने कुछ भी नहीं बिगाड़ा मगर मेरे दोस्त भूतनाथ को तुम लोग व्यर्थ सता रही हो इसलिए मुझे मजबूर होकर तुम लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करना पड़ा।

जमना : (क्रोध में आकर कुछ तेजी से) क्या भूतनाथ को हम लोग सता रही हैं! क्या वह हम लोगों को मिट्टी में मिला कर भी अभी तक बाज नहीं आता और बराबर जख्म लगाये नहीं जा रहा है!!

दारोगा : कदाचित् ऐसा ही हो परन्तु उसका कहना तो यही है कि तुम लोग व्यर्थ ही उसे कलंकित करके दुनिया में रहने के अयोग्य बनाने की चेष्टा कर रही हो।

जमना : आह! बड़े अफसोस की बात है कि आप अपने मुँह से ऐसे शब्द निकाल रहे हैं और अपने को उन बातों से पूरा-पूरा अनजान साबित किया चाहते हैं?

दारोगा : सो क्या? मुझे इन बातों से मतलब?

जमना : अगर कुछ संबंध नहीं है तो हम लोगों को वहाँ से क्यों कैद कर लाये?

दारोगा : केवल अपने दोस्त की मदद कर रहा हूँ।

जमना : और आप इस बात को नहीं जानते कि हमारा पति इसी दुष्ट के हाथ से मारा गया है? और क्या आपकी मण्डली में यह बात मशहूर नहीं है?

दारोगा : हाँ दो-चार आदमी ऐसा कहते हैं, परन्तु भूतनाथ का कथन है कि इसका कारण तुम ही हो, अर्थात केवल तुम ही लोगों ने यह बात व्यर्थ मशहूर कर रक्खी है। मुझे स्वयम् इस विषय में कुछ भी नहीं मालूम है।

जमना : (ताने के ढंग पर) बहुत सच्चे! अगर यह बात आपको मालूम नहीं है तो भूतनाथ आपका दोस्त नहीं है।

दारोगा : भूतनाथ मेरा दोस्त जरूर है और वह मुझसे कोई बात छिपा नहीं रखता! खैर थोड़ी देर के लिए अगर यह भी मान लिया जाय कि तुम्हारा ही कहना ठीक है तो मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम भूतनाथ को बदनाम करके क्या फायदा उठा सकती हो? भूतनाथ इस समय स्वतंत्र है किसी रियासत का ताबेदार नहीं जो उस पर नालिश कर सकेगी, फिर ऐसी अवस्था में उससे दुश्मनी करके तुम अपना ही नुकसान कर रही हो।

इसके अतिरिक्त मैं खूब जानता हूँ कि भूतनाथ तुम्हारे पति का सच्चा और दिली दोस्त था और तुम्हारे पति भी उसको ऐसा ही मानते थे, ऐसी अवस्था में यह संभव है कि स्वयं भूतनाथ अपने ही हाथों से तुम्हारे पति को मारे। ऐसा करके वह क्या फायदा उठा सकता था? क्या तुमको विश्वास है कि भूतनाथ ने तुम्हारे पति को मारा? अच्छा तुम बताओ कि ऐसा करके उसने क्या फायदा उठाया?

जमना : हम लोगों ने एक तौर पर इस दुनिया ही को छोड़ा हुआ है और बिल्कुल मुर्दे की हालत में पहाड़ी खोह और कन्दराओं में रह कर जिन्दगी के दिन बिता रही हैं, इसलिए आजकल की दुनिया का हाल मालूम नहीं है अस्तु मैं नहीं कह सकती कि उसने मेरे पति को मार कर क्या फायदा उठाया, परन्तु इतना मैं जरूर जानती हूँ कि मेरे पति की मौत भूतनाथ के ही हाथ से हुई है।

दारोगा : यह बात तुमसे किसने कही?

जमना : सो मैं तुमसे नहीं कह सकती।

दारोगा : खैर न कहो तुम्हें अख्तियार है, मगर मैं फिर भी इतना जरूर कहूँगा कि तुम्हारा खयाल गलत है। भूतनाथ ने तुम्हारे पति को कदापि नहीं मारा और कदाचित धोखे में ऐसा हो गया हो तो धोखे की बात पर सिवाय अफसोस करने के और कुछ भी उचित नहीं है।

कई दफे ऐसा होता है कि धोखे में माँ का पैर बच्चे के ऊपर पड़ जाता है, तो क्या इसका बदला बच्चे को माँ से लेना चाहिए? कभी नहीं। तुम खुद जानती हो कि भूतनाथ से, जो वास्तव में गदाधरसिंह है, तुम्हारे पति की कैसी दोस्ती थी।

जमना : बेशक मैं इस बात को जानती हूँ और यह भी मानती हूँ कि कदाचित् धोखे ही में भूतनाथ से वह काम हो गया हो, परन्तु आप ही बताइए कि क्या इस अधर्म को छिपाने के लिए भूतनाथ को हम लोगों का पीछा करना चाहिए?

दारोगा : हाँ, ये बेशक भूल है, इसके लिए मैं उसे ताड़ना दूँगा परन्तु मैं तुम्हें सच्चे दिल और हमदर्दी के साथ राय देता हूँ कि तुम भूतनाथ के साथ दुश्मनी के ख्याल छोड़ दो नहीं तो पछताओगी और तुम्हारा सख्त नुकसान होगा क्योंकि तुम भूतनाथ का मुकाबला नहीं कर सकतीं। तुम अबला और निर्बल ठहरीं और वह होशियार ऐयार, तिस पर उसके दोस्त भी बहुत गहरे लोग हैं।

जमना : मैं जानती हूँ कि उसके और हमारे बीच हाथी और चिऊंटी का-सा फर्क है और आप जैसे समर्थ लोग उसको दोस्त भी हैं, और इस बात को भी मानती हूँ कि मैं उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, परन्तु आप ही बताइए कि ऐसी अवस्था में वह अबलाओं से डरता ही क्यों है?

दारोगा : सिर्फ बदनामी के खयाल से डरता है, क्योंकि अगर वह झूठा कलंक उस पर लग जायगा और वह दयाराम का घाती मशहूर हो जायगा तो फिर वह दुनिया में किसी को मुँह न दिखा सकेगा; और अगर तुम माफ कर दोगी तो वह खुशी से किसी रियासत में रह कर अपनी जिन्दगी बिता सकेगा और जन्म-भर तुम्हारा मददगार भी बना रहेगा।

जमना : मुझे उसकी मदद की कोई जरूरत नहीं है और न मेरे दिल का बहुत बड़ा जख्म जो उसके हाथों में पहुँचा है, उसमें आराम हो सकता है। समझ लीजिए कि अब चूहे और बिल्ली में दोस्ती कायम नहीं हो सकती।

दारोगा : यह समझना तुम्हारी नादानी है। मैं कह चुका हूँ कि ऐसा करने से तुम्हें सख्त तकलीफ़ पहुँचेगी।

जमना : बेशक ऐसा ही है। तभी तो मैं कैद करके यहाँ लाई गई हूँ।

दारोगा : तुम खुद ही सोच लो कि यह कैसी बात है, अगर तुम मार ही डाली जाओगी तो फिर दुनिया में इसके लिए उससे बदला लेने वाला कौन रह जायगा?

जमना : मेरे पीछे उसका पाप उससे बदला लेगा या इस बात के मशहूर हो जाने से वह दीन-दुनिया के लायक न रहेगा और यही उस बात का बदला समझा जायगा।

आपने उसकी मदद की है और इसलिए हम लोगों को यहाँ कैद कर लाये हैं तो बेशक हम लोगों को मार कर अपना कलेजा ठंडा कर लीजिए, हम लोग तो खुद अपने को मुर्दा समझे हुई हैं, मगर इस बात को समझ रखिएगा कि हम लोगों के मारे जाने से उसकी बदनामी का झंडा जो बड़ी मजबूती के साथ गाड़ा जा चुका है गिर न पड़ेगा और उस झंडे के उड़ाने वाले तथा उससे बदला लेने वाले कई जबर्दस्त आदमी कायम रह जायेंगे!

दारोगा : यह तुम्हारा खयाल-ही-खयाल है, जिस तरह तुम केवल उसकी इच्छा मात्र से गिरफ्तार कर ली गई हो उसी तरह उसके और दुश्मन भी बात-की-बात में गिरफ्तार हो जायेंगे।

जमना : इस बात को मैं नहीं मान सकती।

दारोगा : नहीं मानोगी तो मैं मना दूँगा। इसका काफी सबूत मेरे पास है।

जमना : हाँ, अगर मेरा दिल भर जाने के लायक कोई सबूत मिल जायगा तो मैं जरूर मान जाऊँगी।

दारोगा : अच्छा-अच्छा, पहिले मैं तुमको इस बात का सबूत दे लूँगा तब तुमसे बात करूँगा।

इतना कहकर दारोगा अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उस जगह गया जहाँ खंबे के साथ ये तीनों औरतें बँधी हुई थीं। उस खंभे में से जमना, सरस्वती और इन्दुमति को खोला मगर उनकी हथकड़ी तथा बेड़ी नहीं उतारी, हाँ, बेड़ी की जंजीर जरा ढीली कर दी जिसमें वे धीरे-धीरे कुछ दूर तक चल सकें। इसके बाद उन तीनों को लिए सामने की दीवार के पास गया जहाँ एक छोटा-सा दरवाजा था और उसमें मजबूत ताला लगा हुआ था। दारोगा ने कमरे में से ताली निकाल कर दरवाजा खोला और उन तीनों को लिए उसके अन्दर घुसा। यह रास्ता सुरंग की तरह था जोकि दस-बारह कदम जाने के बाद खतम हो जाता था अस्तु उसी अंधकारमय रास्ते में उन तीनों को लिए हुए दारोगा चला गया। जब रास्ता खत्म हुआ तब उसने एक खिड़की खोली जोकि जमीन से छाती बराबर ऊँची थी। उस खिड़की के खुलने से उजाला हो गया और तब दारोगा ने उन औरतों को नीचे की तरफ झाँक कर देखने के लिए कहा।

उस समय जमना, सरस्वती और इन्दुमति को मालूम हुआ कि वे तीनों जमीन के अन्दर किसी तहखाने में कैद नहीं हैं बल्कि उनका कैदखाना किसी मकान के ऊपरी हिस्से पर है।

खिड़की की राह से नीचे की तरफ झाँककर उन्होंने देखा कि एक छोटा-सा मामूली नजरबाग है जिसके चारों तरफ़ की दीवारें बहुत ऊँची-ऊँची हैं। उस बाग में एक टूटे पेड़ के साथ हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर प्रभाकरसिंह बँधे हुए हैं। उन्हें देखते ही इन्दुमति का कलेजा काँप गया और जमना तथा सरस्वती के रोंगटे खड़े हो गये।

उस समय दारोगा ने जमना की तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम लोगों ने अच्छी तरह देख लिया कि तुम्हारे प्यारे प्रभाकरसिंह, जो तुम लोगों के बाद भूतनाथ पर कलंक लगा सकते थे तुम लोगों के साथ ही गिरफ्तार कर लिए गए, बताओ अब तुम्हें किस पर भरोसा है?’’

जमना : भरोसा तो हमें केवल ईश्वर पर ही है मगर फिर भी इतना जरूर कहूँगी, मेरे मददगार कोई और ही लोग हैं जिनका नाम तुम्हें किसी तरह भी मालूम नहीं हो सकता!

दारोगा : तुम्हारा यह कहना भी व्यर्थ है, मुझसे और भूतनाथ से कुछ भी छिपा नहीं है।

इतना कहकर दारोगा ने खिड़की बन्द कर दी और वहाँ पुन: अंधकार हो गया। इसके बाद उन तीनों को लिए पहिले स्थान पर चला आया और उसी खम्भे के साथ पुन: तीनों को बाँध कर पैर की जंजीर कस दी।

प्रभाकरसिंह को कैद की हालत में देखकर वे तीनों बहुत ही परेशान हुईं और उनके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। दारोगा ने पुन: जमना की तरफ देखकर कहाँ, ‘‘मैं फिर कह सकता हूँ कि भूतनाथ से दुश्मनी रख कर तुम लोग इस दुनिया में नहीं रह सकतीं।’’

जमना : (ऊँची साँस लेकर) अब मेरे लिए इस दुनिया में क्या रक्खा है! किस सुख के लिए मैं जीवन की लालसा कर सकती हूँ, दुनिया में अगर लालसा है तो केवल इस बात की कि भूतनाथ से बदला लूँ।

दारोगा : सो हो नहीं सकता और न भूतनाथ ने वास्तव में तुम्हारा कुछ बिगाड़ा ही है। तुम खुद सोच लो और समझ लो, मैं सच कहता हूँ कि भूतनाथ अब भी तुम्हारी खिदमत करने के लिए हाजिर है। अगर तुम उसे अपना सूबेदार मान लोगी तो तीन दिनों में वह उद्योग करके तुम्हारे पति के घातक को भी खोज निकालेगा, नहीं तो अब तुम लोग उसके पंजे में आ ही चुकी हो। तुम लोग मुफ्त में अपनी जान दोगी। और अपने साथ बेकसूर इन्दुमति और प्रभाकर सिंह को भी बर्बाद करोगी क्योंकि इन दोनों की जान का संबंध भी तुम्हारी जान के साथ है। मं  तुमको दो घंटे की मोहलत देता हूँ तब तक तुम अपने भले-बुरे को अच्छी तरह सोच लो।

दो घण्टे बाद जब मैं आऊँगा तो भूतनाथ भी मेरे साथ होगा, उस समय या तो तुम लोग भूतनाथ को अपना सच्चा दोस्त समझकर उसके निर्दोष होने का एक पत्र उसे लिखा दोगी और फिर दूसरी अवस्था में तुम तीनों ठंडे-ठंडे दूसरी दुनिया की तरफ रवाना हो जाओगी और प्रभाकरसिंह भी तुम तीनों के साथ-ही-साथ खबरदारी के लिए वहाँ रवाना कर दिये जायेंगे।

इतना कहकर दारोगा साहब वहाँ से रवाना हो गया और जब वह बाहर हो गया तो पुन: उस जहन्नुमी कैदखाने का दरवाजा बन्द हो गया और बाहर से भारी जंजीर की आवाज़ आई।

।। तीसरा भाग समाप्त ।।

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