मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
पाँचवाँ बयान
संध्या का समय था जब नकली प्रभाकरसिंह इन्दुमति को बहका कर और धोखा देकर भूतनाथ की विचित्र घाटी से उसी सुरंग की राह ले भागा जिधर से वे लोग गए थे। उस समय इन्दुमति की वैसी ही सूरत थी जैसी कि हम पहिले बयान में लिख आए हैं, अर्थात मर्दानी सूरत मे तीर-कमान और ढाल-तलवार लगाए हुए थी।
सम्भव था कि नकली प्रभाकरसिंह को उसके पहिचाननें में धोखा होता परन्तु नहीं, उसका इन्दुमति से कुछ ऐसा समबन्ध था कि उसने उसके पहिचानने में जरा भी धोखा नहीं खाया बल्कि इन्दुमति को हर तरह से धोखे में डाल दिया। इन्दुमति ने भी प्रभाकरसिंह को वैसे ही ढ़ग और पोशाक में पाया जैसा छोड़ा था परन्तु यदि वह विकल, दुखित और घबड़ाई हुई न होती तो उसके लिए नकली प्रभाकरसिंह को पहिचान लेना कठिन न था।
सुरंग के बाहर होने बाद आसमान की तरफ देख कर इन्दुमति को इस बात का खयाल हुआ कि रात हुआ ही चाहती है। वह सोचने लगी कि इस भयानक जंगल से क्योंकर पार होगें और रात-भर कहाँ पर आराम से बिता सकेंगे, साथ ही उसे यकायक इस तरह गुलाबसिंह को छोड़ना और भूतनाथ की घाटी से निकल भागना भी ताज्जुब में डाल रहा था।
पूछने पर भी प्रभाकरसिंह ने उसकों ठीक –ठीक सबब नहीं बताया था। हाँ बताने का वादा किया, मगर इससे उसकी बेचैनी दूर नहीं हुई थी। उसका जी तरह-तरह के खुटको में पड़ा हुआ था और यह जानने के लिए वह बेचैन हो रही थी कि गुलाबसिंह ने उनका क्या नुकसान किया था जो उसको भी छोड़ दिया गया।
सुरंग के मुहाने से थोड़ी दूर आगे जाने बाद इन्दुमति ने प्रभाकरसिंह से कहा, ‘‘आपकी चाल इतनी तेज है कि मैं आपका साथ नहीं दे सकती।’’
नकली प्रभाकर : (धीमी चाल करके) अच्छा लो मैं धीरे-धीरे चलता हूँ मगर जहाँ तक जल्दी हो सके यहाँ से निकल ही चलना चाहिए.
इन्दुमतिः आखिर इसका सबब क्या है, कुछ बताओ भी तो सही?
नकली प्रभाकरः अभी नहीं, थोडी देर के बाद इसका सबब बताऊँगा।
इन्दुमति : यही कहते –कहते तो यहाँ तक आ पहुँचे अच्छा यही बताओं कि हम लोगों को कहाँ जाना होगा और कितना बड़ा सफर करना पड़ेगा?
नकली प्रभाकरः कुछ नहीं, थोड़ी ही दूर और चलना है। इसके बाद सवारी तैयार मिलेगी जिस पर चढ़ कर हम लोग निकल जाएँगे।
सवारी का नाम सुन इन्दुमति चौंकी और उसके दिल में तरह-तरह की बाते पैदा होने लगीं। कई सायत सोचने के बाद उसने पुनः नकली प्रभाकरसिंह से पूछा,
‘‘ऐसे मुसीबत के जमाने में यकायक आपको सवारी कैसे मिल गई?’’
नकली प्रभाकरः इसका जवाब भी आगे चल कर देंगे।
प्रभाकरसिंह की इस बात ने इन्दुमति को और भी तरददुद में डाल दिया। वह चलते-चलते रूक कर खड़ी हो गई और इस बीच में नकली प्रभाकरसिंह जो आगे जा रहा था कई कदम आगे निकल गया।
हम नहीं कह सकते कि अब यकायक इन्दुमति के जी में क्या आया कि वह प्रभाकरसिंह के साथ जाते-जाते एकदम रुक ही नहीं गई बल्कि जब प्रभाकरसिंह अपनी तेजी और जल्दबाजी में पीछे की सुध न करके इन्दुमति से कुछ आगे बढ़ गया तो दाहिनी तरफ हट कर एक गुंजान पेड़ पर चढ़ गई और छिप कर इन्तजार करने लगी कि देखें अब जमाना क्या दिखाता हैं।
नकली प्रभाकरसिंह लगभग दो-सौ कदम से भी ज्यादे आगे बढ़ गया तब उसे मालूम हुआ कि उसके पीछे इन्दुमति नहीं है, वह घबरा कर पीछे की तरफ लौटा और ‘‘इन्दुमति’’ कह कर ऊँचे स्वर से पुकारने लगा।
इन्दुमति पेड़ पर चढ़ कर छिपी हुई उसकी आवाज सुन रही थी मगर उसे खूब याद था कि उसके प्यारे पति ने आवश्यकता पड़ने पर कभी उसे इन्दुमति कह कर नहीं पुकारा, यह एक ऐसी बात थी जो केवल उन दोनों पति-पत्नी ही से सम्बन्ध रखती थी, कोई तीसरा आदमी इसके जानने का अधिकार न था।
नकली प्रभाकरसिंह इन्दुमति को पुकारता हुआ उससे ज्यादे पीछे हट गया जहाँ इन्दु छिपी हुई थी और इस बीच में उसने तीन दफे जफील (सीटी) भी बुलाई, साथ ही इसके यह भी उसके मुँह से निकल पड़ा, ‘‘कम्बख्त ठिकाने पहुँच कर गायब हो गई!’’ यह बात इन्दुमति ने भी सुन ली।
जफील की आवाज से वहाँ कई आदमी और भी आ पहुँचे तथा नकली प्रभाकरसिंह के साथी बन गये जिन्हे देख इन्दुमति को विश्वास हो गया कि जो कुछ हो, अब वह बेतरह दुश्मनों के काबू मे पड़ी हुई है।
इन्दुमति को खोजने वाले अब कई आदमी हो गये और वे इधर-उधर फैल कर पेडों की आड तथा झुरमुट मे उसे खोजने लगे।
तिथि के अनुसार रात की पहली कालिमा (अंधेरी) बीत चुकी थी और चन्द्रदेव उदय होकर धीरे-धीरे ऊँचे उठने लगे थे जिससे इन्दू घबरा गई और मन में सोचने लगी कि यह तो बड़ा अन्धेर हुआ चाहता है, एक छिपे हुए इन्दु को यह अपना-सा किया चाहता हैं! अब मैं क्या करूँ?’’
प्रभाकरसिंह के साथ ही साथ जमाने ने भी उसे बहुत कुछ सिखला दिया था, तलवार चलाना और तीर का निशाना लगाना वह बखूबी जानती थी, बल्कि तीरन्दाजी में उसे एक तरह का घमंड था इस समय उसके पास यह सामान मौजूद भी था।
जैसा कि हम ऊपर इशारा कर चुके हैं कि ‘इस समय इसकी पोशाक और सूरत वैसी ही थी जैसी कि हम पहिले बयान में दिखा चुके हैं।
जब कई दुश्मनों ने इन्दुमति को घेर लिया और चांदनी भी फैल कर वहाँ की हर एक चीज को दिखाने लगी तब उसे विश्वास हो गया कि अब वह किसी तरह छिपी नहीं रह सकती, लोग जरूर उसे देख लेंगे और गिरफ्तार कर लेगें अतएव उसने कमान पर तीर चढ़ाया और संभलकर बैठ गई, सोच लिया कि जब तक तरकश मे एक भी तीर मौजूद रहेगा किसी को अपने पास फटकने न दूँगी।
इसी बीच में मौका पाकर उसने नकली प्रभाकरसिंह को अपने तीर का निशाना बनाया। इन्दु के हाथ से निकला हुआ तीर नकली प्रभाकरसिंह के पैर में लगा और बोले, ‘‘बेशक वह इसी जगह कहीं है और यह तीर उसी ने मारा है। अब उसे हम जरूर पकड़ लेगे, तीर पूरब तरफ से आया हैं!’’ एक और तीर आया और वह एक आदमी की पीठ को छेद कर छाती की तरफ से पार निकल गया।
अब तो उन लोगों में खलबली पड़ गई और खोजने की हिम्मत जाती रही बल्कि जान बचाने की फिक्र पड़ गई, मगर इस खयाल से कि तीर पूरब तरफ से आया है और मारने वाला भी उसी तरफ किसी पेड़ पर छिपा हुआ होगा, दोनों व्यक्तियों को छोड़ कर बाकी के लोग इन्दु की तरफ झपटे और चांदनी की मदद पाकर बहुत जल्द उस पेड़ को घेर लिया जिस पर इन्दु छिपी हुई थी।
अब इन्दु ने अपने को जाहिर कर दिया और जरा ऊँची आवाज में उसने दुश्मनों से कहा, ‘‘हाँ हाँ, बेशक मैं इसी पेड़ पर हूँ, मगर याद रक्खो कि तुम लोगों को अपने पास आने न दूँगी बल्कि देखते ही देखते इस दुनिया से उठा दूँगी’’,
इतना कह कर उसने पेड़ के नीचे के और भी एक आदमी को तीर से घायल किया। इसी समय ऊपर की तरह से आवाज आई, ‘‘शाबाश इन्दु शाबाश! इन लोगों की बातचीत से मैं पहिचान गया कि तू इन्दुमति है!’’
यह बोलने वाला भी उसी पेड़ पर था जिस पर इन्दु थी मगर उससे ऊपर की एक ऊँची डाल पर बैठा हुआ था जिसकी आवाज सुन कर इन्दुमति घबरा गई और सोचने लगी कि यह कोई दु्श्मन तो नहीं हैं! उसने पूछा,’’ तू कौन है और यहाँ कब से बैठा हुआ है?’’
जवाबः मैं तुमसे थोड़ी देर पहिले यहाँ आया हूँ बल्कि यों कहना चाहिए कि दूर से तुम लोगों को आते देख कर इस पेड़ पर चढ़ बैठा था। मैं तुम्हारा पक्षपाती हूँ और मेरा नाम भूतनाथ है तुम तीर-कमान मुझको दो, मैं अभी तुम्हारे दुश्मनों को जहन्नुम में पहुँचा देता हूँ।
इन्दु० : बस-बस-बस- मैं ऐसी बेवकूफ नहीं हूँ कि इस समय तुम्हारी बातों पर विश्वास कर लूँ और अपना तीर-कमान जिससे मैं अपनी रक्षा कर सकती हूँ तुम्हारे हवाले करके अपने को तुम्हारी दया पर छोड़ दूँ। यद्यपि मैं औरत हूँ और मेरी कमान कड़ी नहीं है तथा मेरे फेंके तीर दूर तक नहीं जाते, तथापि मेरा निशाना नहीं चूक सकता और मैं नजदीक के दुश्मनों को बच कर नहीं जाने दे सकती खैर तुम जो कोई भी हो समझ रक्खो कि इस समय मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास न करूंगी और तुम्हें कदापि नीचे न उतरने दूँगी, जरा भी हिलोगे तो मैं तीर मार कर तुम्हें दूसरी दुनिया में पहुँचा दूँगी,
इतने ही में नीचे कोलाहल बढ़ा और इन्दुमति ने तीर मार और एक आदमी को गिरा दिया फिर ऊपर से आवाज आई-‘‘शाबाश इन्दु शाबाश! तू मुझे नीचे उतरने दे, फिर देख मैं तेरे दुश्मनों से कैसा बदला लेता हूँ!’’
इन्दु० : कदापि नहीं, मैं अपने दुश्मनों से आप समझ लूँगी।
आवाज : और जब तुम्हारे तीर खत्म हो जाएँगे तब तुम क्या करोगी?
इन्दुमति : मेरे तीरों की गिनती दुश्मनो की गिनती से बहुत ज्यादा है, तुम इसकी चिन्ता मत करो और चुपचाप बैठे रहो।
आवाज : नहीं इन्दु नहीं, तुम्हें मालूम नहीं है कि तुम्हारे दुश्मन यहाँ बहुत ज्यादा है, थोडी देर में वे सब इकट्ठे हो जायेंगे और तब तुम्हारे तीरों की गिनती कुछ काम न करेगी।
इन्दु० : ऐसी अवस्था में तुम्हीं क्या कर सकते हो जो एक औरत का मुकाबला करके नीचे नहीं उतर सकते! खबरदार! व्यर्थ की बकवास करके मेरा समय नष्ट न करो!!
फिर नीचे कोलाहल बढ़ा और इन्दुमति के तीर ने पुनः एक आदमी का काम तमाम किया, इन्दु के ऊपर की तरफ बैठा हुआ आदमी नीचे उतरने लगा और बोला, ‘‘खबरदार इन्दु, मुझ पर तीर न चलाइयो और सच जानियो कि मैं भूतनाथ हूँ, और अब नीचे उतरे बिना नहीं रह सकता!’’
इन्दु० : मैं जरूर तीर मारूँगी और भूतनाथ के नाम का मुलाहिजा न करूँगी इतना कहकर इन्दु ने उसकी तरफ तीर सीधा किया मगर घबड़ा कर दिल में सोचने लगी कि कहीं वह भूतनाथ ही न हो उसी समय किसी हर्बे की चमक उसकी आँखों में पड़ी और उसकी तेज अक्ल ने तुरन्त समझ लिया कि यह बरछी है जिससे कुछ आगे बढ़ कर वह जरूर मुझ पर हमला करेगा, अस्तु दिल कड़ा करके इन्दु ने उस पर तीर चला ही दिया जो कि उसके मोढ़े में लगा, मगर इस चोट को सह कर और कुछ नीचे उतर कर उसने इन्दु पर बरछी का वार किया, साथ ही इन्दु का दूसरा तीर पहुँचा जो कि न मालूम कहाँ लगा कि वह लुढ़क कर जमीन पर आ रहा और बेहोश हो गया।
परन्तु उसकी बरछी का वार भी खाली नहीं गया। इन्दु के जंघे में चोट आई, खून का तरारा बह चला और दर्द से वह बेचैन हो गई। कुशल हुआ कि वह बखूबी इन्दु के पास नहीं पहुँचा था अन्दाज से कुछ दूर ही था इसलिए बरछी की चोट भी पूरी न बैठी, और कुछ और नजदीक आ गया होता तो इन्दु भी पेड़ पर न ठहर सकती, जरूर नीचे गिर पड़ती।
इन्दु जनाना थी मगर उसका दिल मर्दाना था। यद्यपि इस समय वह दुश्मनों से घिरी हुई थी और बचने की आशा बहुत कम थी तथापि उसने अपने दिल को खूब सम्हाला और दुश्मनों को अपने पास फटकने न दिया।
पेड़ पर से जिस आदमी ने इन्दु को जख्मी किया था, इन्दु के हाथ से जख्मी होकर उसके गिरने के साथ ही नीचे वालों में खलबली मच गई। सभी ने गौर के साथ उसे देखना और पहिचानना चाहा एक ने कहा, ‘‘यह तो भूतनाथ हैं!’’ दूसरे ने कहा, ’’ फिर इन्दु ने इसे क्यों मारा!’’
इत्यादि बाते होने लगी जो इन्दु के दिल में तरह-तरह का खुटका पैदा करने वाली थीं मगर उसने उसकी कुछ भी परवाह न की और दुश्मनों पर तीर का वार करने लगी, ग्यारह दुश्मनों में से सात को उसने जख्मी किया जिसमें उसके बारह तीर खर्च हुए मगर चार-पाँच दुश्मनों ने बड़ी चालाकी से अपने को बचाया और सर पर ढाल रख के इन्दु को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगे, इन्दु ने पुनः तीर मारना आरम्भ किया मगर इसका कोई अच्छा नतीजा न निकला क्योंकि उसके चलाए हुए तीर अब ढाल पर टक्कर खा कर बेकार हो जाते थे।
अब इन्दु का कलेजा धड़कने लगा, वह जख्मी हो चुकी थी और उसका तरकस भी खाली हो चला था, पेड़ पर चढ़ने वाले बड़े ही कट्टर और लड़ाके आदमी थे अतएव उन्होंने इन्दु के तीरों की कुछ परवाह न की और उसके पास पहुँच कर उसे गिरफ्तार करने पर ही तुल गए ऐसी हालत देख इन्दु ने भी अपने को उनके हाथ में फंसने की बनिस्बत जान दे देना अच्छा समझा, वह लुढक कर पेड़ के नीचे गिर पडी और सख्त चोट खाकर बेहोश हो गई।
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