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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान

जब इन्दु होश में आई और उसने आँखे खोली तो अपने को एक सुन्दर मसहरी पर पड़े पाया और मय सामान कई लौंडियों को खिदमत के लिए हाजिर देख कर ताज्जुब करने लगी।

आँख खुलने पर इन्दु ने एक ऐसी औरत को भी अपने सामने इज्जत के साथ में पेश आते देखा और वह समझ गई कि वही इन्दुमति का इलाज कर रही है।

निःसन्देह इन्दुमति को गहरी चोट लगी थी और उसे करवट बदलना भी बहुत कठिन हो रहा था, उसे इस बात का बड़ा ही दुःख था कि वह जीती बच गई और दुश्मनों के हाथ में फंस गई परन्तु इस तरह जितनी औरते वहाँ मौजूद थीं, सभी खूबसूरत, कमसिन खुशदिल, हंसमुख और हमदर्द मालूम होती थीं, सभी को इस बात की फिक्र थी कि इन्दुमति शीघ्र अच्छी हो जाय और उसे किसी तरह की तकलीफ न रहे, सभी प्यार के साथ उसकी खिदमत करती थी दिल बहलाने की बातें करती थीं, और कई उसके पास बैठी सर पर हाथ फेरती हुई प्रेम से पूँछतीं कि ‘कहो बहन, मिजाज कैसा है?

अब तुम किसी बात की चिन्ता न करो, यह घर तुम्हारे दुश्मनों का नहीं है बल्कि दोस्तों का है जो कि बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जायगा कि दुश्मनों के हाथों से तुम किस तरह छुड़ा ली गई, जरा तुम्हारी तबीयत अच्छी हो जाय तो मैं सब रामकहानी कह सुनाऊँगी, तुम किसी तरह की चिन्ता न करो! इत्यादि!

इन बातों से मालूम होता था कि ये सब-की-सब लौंडी ही न थी बल्कि अच्छे खानदान की लड़कियाँ थी और दो-एक तो ऐसी थीं जो बराबरी का (बल्कि उससे भी बढ़ कर होने का) दावा रखती थी।

यह सब कुछ था परंतु इन्दुमति को इस बात का ठीक पता नहीं लगता था कि वह वास्तव में दुश्मनों की मेहमान है या दोस्तों की। यद्यपि उसकी हर तरफ से खिदमत होती थी, उसकी खातिरदारी की जाती थीं, उसे भरोसा दिलाया जाता था और जिससे खुश हो, वह करने के लिए सब तैयार रहती थीं,यह सब कुछ था मगर फिर भी उसके दिल को भरोसा नही होता था।

इसी तरह समय बीतता गया और इन्दु की तबीयत सम्हलती गई। उसे होश में आये आज तीसरा दिन है, दर्द में भी बहुत कमी है और वह दस-बीस कदम टहल भी सकती है आज ही उसने कुछ थोड़ा-बहुत भोजन भी लिया है और इस फिक्र में तकिए का सहारा लगाए बैठी है कि आज किसी-न-किसी तरह इस बात का निश्चय जरूर करूँगी कि वास्तव में मै किसके कब्जे में हूँ।

उसकी खातिर करने वालियों में दो औरतें ऐसी थीं जिन पर इन्दु को भरोसा हो गया था और जिन्हें इन्दु सबसे बढ़ कर उच्च कुल की नेक और होनहार समझती थी, एक का नाम कला और दूसरी का नाम बिमला था सबसे ज्यादे ये ही दोनों इन्दु से साथ रहा करती थी।

रात पहर भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है चिन्तानिमग्न इन्दु अपनी चारपाई पर लेटी हुई तरह-तरह की बातें सोच रही थी, उसी के पास दो चारपाइयाँ और बिछी हुई थीं जो कला और बिमला के सोने के लिए थीं कला अपनी चारपाई पर नहीं बल्कि इन्दु के पास उसकी चारपाई का ढासना लगाये बैठी हुई थी मगर बिमला अभी तक यहाँ आई न थी, कई सायत तक सन्नाटा रहने के बाद इन्दु ने बातचीत शुरू की।

इन्दु० : कला, कुछ समझ नहीं आता कि तू मुझसे यहाँ का भेद क्यों छिपाती है और साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि यह किसका मकान हैं?

कला : बहिन, मैं जो तुमसे कह चुकी कि यह तुम्हारे दुश्मन का मकान नहीं है बल्कि तुम्हारे दोस्त का है तो फिर क्यों तरददुद करती हो?

इन्दु० : तो क्या मैं अपने दोस्त का नाम नहीं सुन सकती? आखिर नाम छिपाने का सबब ही क्या है?

कला : छिपाने का सबब केवल इतना ही है कि यहाँ का हाल सुन कर जितना तुम्हें आनन्द होगा उतना ही बल्कि उससे ज्यादे दुःख होगा और हकीमिनजी का हुक्म है कि अभी तुम्हें कोई ऐसी बात न कही जाय जिससे रञ्ज हो।

इन्दु० : यह कोई बात नहीं है, अगर है तो हकीमिनजी का केवल नखरा है और तुम लोगों का बहाना।

कला : अगर तुम ऐसा ही समझती हो तो लो आज मैं वह सब हाल कह दूँगी, मगर शर्त यह है कि सिवाय बिमला के और किसी को भी मालूम न हो कि मैंने तुमसे कुछ कहा था।

इन्दु० : नहीं-नहीं, मैं कसम खाकर कहती हूँ कि अपनी जुबान से किसी से भी कुछ न कहूँगी।

कला : अच्छा तो कुछ और रात बीत जाने दो और बिमला को भी आ जाने दो।

इतने ही में बिमला मे भी चौखट के अन्दर पैर रखा!

इन्दु० : लो बिमला भी आ गई।

कला : अच्छा हुआ मगर जरा सन्नाटा हो जाने दो!

बिमला : (कला के पास बैठ कर) क्या बात हैं?

कला : (धीरे से) ये यहाँ का हाल जानने के लिए बेताब हो रही हैं

बिमला : इनका बेताब होना उचित ही है मगर (इन्दु की तरफ देख के) आप तन्दुरूस्त हो जाती तब इसे पूछती तो अच्छा था नहीं तो...

इन्दु० : यही हठ तो और भी उत्कण्ठित करती है।

बिमला : सुनने से आपको जितनी खुशी होगी उससे ज्यादे रंज होगा।

इन्दु० : बला से, जो होगा देखा जायगा! मगर (उदासी से ) तुमसे तो मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि ...

बिमला : (इन्दु का हाथ प्रेम से दवा कर) बहिन मैं तुमसे कोई बात नहीं छिपाऊँगी, कहूँगी, जरूर कहूँगी।

इन्दु० : तो फिर कहो।

बिमला : अच्छा सुनो मगर किसी के सामने इस बात को कभी दोहराना मत।

इन्दु० : कदापि नहीं।

बिमला : अच्छा खैर...यह बताओ कि तुम्हें अपना मायका (बाप का घर) छोड़े कितने दिन हुए?

इन्दु० : (कुछ सोच के) सहभग एक वर्ष और सात महीने के हुए होंगे। शादी भई और मायका छूटा तब से आज तक दुःख –ही-दुःख उठाती रही मैं अपनी माँ और मौसेरी बहिनों को फूट-फूट कर रोती हुई छोड़ कर पति के साथ रवाना हुई थी, वह दिन कभी भूलने वाला नहीं।

इतना सुनते ही कला और बिमला की आँखो में आँसू आ गये।

बिमला : (आँसू पोंछ कर) मुझे भी वह दिन नहीं भूलने का!

इन्दु० : (आश्चर्य से) बहिन, तुम्हें वह दिन कैसे याद है,तुम वहां कहाँ थीं?

बिमला : मैं थी और जरूर थी, बल्कि हम दोनों बहनें (कला का तरफ इशारा करके) वहाँ थीं।

इन्दु० : सो कैसे, कुछ कहो भी तो।

बिमला : बस इतना ही तो असल भेद है, सब बातें इसी से सम्बन्ध रखती हैं। (धीरे से) तुम्हारी वे दोनों मौसेरी बहिनें हम दोनों कला और बिमला के नाम से आज साल-भर से यहाँ निवास करती हैं यद्यपि देखनें में हर तरह से सुख भोग रही है मगर वास्तव में हमारे दुःख का कोई पारावार नहीं!

इन्दु० : (बड़े ही आश्चर्य से) यह तो तुम ऐसी बात कहती हो कि जिसका स्वप्न में भी गुमान हीं हो सकता! यद्यपि तुम दोनों की उम्र वही होगी,चाल-ढाल, बातचीत सब उसी ढंग की है, मगर सूरत-शक्ल में जमीन-आसमान का फर्क हैं। ओह! नहीं, यह कैसे हो सकता हैं। मुझे कैसे विश्वास हो सकता हैं?

बिमला : (मुस्करा कर) हम दोनों की सूरत –शक्ल में भी किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा मैं सहज ही में विश्वास दिला दूँगी कि जो कुछ कहती हूँ वह बाल-बाल सच हैं अच्छा ठहरो, मैं तुम्हें अभी बता देती हूँ।

इतना कह कर बिमला उठी और उसने इस कमरे के कुल दरवाजे बन्द कर दिए।

इन्दु (सोचती है): हैं, तब से इसी कमरे में हैं, और इसके बाहर का हाल कुछ भी मालूम नहीं हैं, वह नहीं जानती कि इस कमरे के बाहर कोठरी है या उसमें अभी बाहर निकलने की ताकत ही नहीं आई। हाँ। इसके भीतर की तरफ दो कोठरी, एक पायखाना और एक नहाने का घर हैं, इन्हें इन्दु जरूर जानती है क्योंकि इन कोठरियों से उसे वास्ता पड़ चुका हैं।

बिमला इन्दु के पास से उठ कर दरवाजा बन्द करने के बाद उसी नहाने वाली कोठरी में चली गई और थोड़ी ही देर मे लौट कर मुस्कराती हुई इन्दु के पास आई और बोली, ‘‘अब तुम मुझे गौर से देखो और पहचानो कि मैं कौन हूँ!’’

यद्यपि इन्दु बीमार, कमजोर और हतोत्साह थी तथापि बिमला की नवीन सूरत देखते ही चौंकी और उठ कर उसके गले से लिपट गई।

बिमला : बस समझ लो कि इसी तरह कला भी सूरत बदले हुए है। हम दोनों बहनें एक साथ एक ही तरह कला भी सूरत बदले हुए हैं। हम दोनों बहने एक साथ एक ही अनुष्ठान साधन के लिए सूरत बदल कर ग्रहदशा के दिन काट रही हैं। जब तक कमबख्त भूतनाथ से बदला न ले लेंगी तब तक ...

इन्दु० : (बिमला को छोड़ कर) अहा! मुझे कब आशा थी कि इस तरह अपनी बहिन जमना, सरस्वती को देखूंगी, मगर भूतनाथ...

कला : (बिमला से) बस बहिन, अब बातें पीछे करना पहिले अपनी सूरत बदलो और उस झिल्ली१ को चढ़ा कर बिमला बन जाओ, दरवाजे खोल दो और आराम से बातें करो।


१. इस झिल्ली को वैसा ही समझना चाहिए जैसा ‘चन्द्रकान्ता’ चौथे भाग के आखिर में चन्द्रकान्ता चपला और चम्पा ने उतारकर दिखाई थी.

बिमला उठी और पुनः उसी कमरे में जाकर अपनी सूरत पहिले जैसी बनाकर लौट आई। काम केवल इतना ही किया था कि एक अदभूत झिल्ली जो अपने चेहरे से उतारी थी फिर चढ़ा कर जैसी-की-तैसी बन बैठी। कला ने कमरे के दरवाजे खोल दिए और आराम के साथ बैठकर फिर तोनों बातचीत करने लगीं।

इन्दु० : बहिन, तुमने मिल कर मैं बहुत प्रसन्न हुई, अब तुम अपना हाल कह जाओ और यह बताओ कि यह मकान किसका है, मेरी मौसी का या मेरी मां का!

बिमला : दोनों में किसी का भी नहीं।

इन्दु० : (ताज्जुब से) तो क्या तुम दोनों लावारिस हो गई? कोई तुम्हारा मालिक नहीं रहा?

बिमला : रहा और नहीं भी रहा!

इन्दु० : सो कैसी बात? यह मैं जानती हूँ कि दयारामजी के मरने से तुम दोनों विधवा हो गई क्योंकि भाग्यवश दोनों बहिनें एक ही साथ ब्याही गई थीं फिर भी हम लोगों के माँ-बाँप ऐसे गए-गुजरे नहीं कि हम लोग लावारिस समझी जायें।

बिमला : (अपनी आँखों से आँसू पोंछ कर) नहीं लावारिस तो नहीं है मगर अभागी और दैव की सताई हुई जरूर हैं। हम दोनों बहिनों को मालूम हो गया कि हमारे निर्दोष पति को गदाधरसिंह ने मारा है और बस यही जान लेना हमारी इस ग्रहदशा का कारण है।

इन्दु० : (चौंक कर) हैं।! कौन गदाधरसिंह?

बिमला : वही जो हमारे ससुर का ऐयार और हमारे पति का दिलीदोस्त कहलाता है।

इन्दु० : (बड़े ही आश्चर्य से) यह बात तबीयत में नहीं जमती। ऐयारी के फन से यह बिल्कुल विरुद्ध है। ऐयार चाहे कैसा ही बेईमान क्यों न हो मगर मालिक के साथ ऐसा फरेब कभी नहीं करेगा और गदाधरसिंह तो एक नेक ऐयार गिना जाता है, एक दफे मैंने भी उसकी सूरत देखी है।

बिमला : बहिन, बेशक ऐसा ही है, यद्यपि अभी किसी को इस बात की खबर नहीं है, यहाँ तक कि मेरे माँ-बाप और ससुर को भी इस बात का विश्वास नहीं हो सकता है पर मुझे तो जो कुछ पता लगा है वह यही है और बहुत ठीक भी है।

कला : और इतना भी मैं कहूँगी कि मेरे ससुर को भी इस बात का शक जरूर हो गया, खास करके तब से जब से गदाधरसिंह ने अपना काम या हमारे यहाँ का रहना एक प्रकार से छोड़ दिया है, यद्यपि हमारे ससुर इस विचार को प्रकट नहीं करते।

बिमला : इस समय वही गदाधरसिंह तुम्हारा रक्षक बना है और भूतनाथ के नाम से तुम्हारे साथ दोस्ती दिखलाता है, मगर हम दोनों कब उस पर विश्वास करने लगीं!

इन्दु० : (चौंककर) हैं!! क्या वही गदाधरसिंह भूतनाथ बना है?

बिमला : हाँ वही भूतनाथ है जिसके फन्दे से बचा कर मैं तुमको यहाँ ले आई।

कला : बहिन, हम दोनों वे बातें जानती हैं जो अभी दुनिया में किसी को मालूम नहीं हैं या अगर मालूम हैं भी तो केवल दो ही चार आदमियों को।

बिमला : मैं भी भूतनाथ को वह मजा चखाऊँगी कि उसे नानी याद आ जायगी और वह समझ जायगा कि दुनिया में औरतें कहां तक कर सकती हैं।

इन्दु० : तुम्हारी बातों ने तो मुझे पागल बना दिया! मैं वे बातें सुन रही हूँ जिनके सुनने की आशा न थी। तो तुम यह भी कहोगी कि गुलाबसिंह ने भी हम लोगों के साथ दगा की और जान-बूझकर हम दोनों को भूतनाथ के हवाले कर दिया?

बिमला : कौन गुलाबसिंह, भानुमति वाला?

बिमला : (कुछ सोच कर) इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकती क्योंकि अभी, मैंने तुम्हारी जुबानी तुम्हारा हाल कुछ भी नहीं सुना, मैं नहीं जानती कि तुम क्योंकर घर से निकलीं, तुम पर क्या आफतें आईं, और गुलाबसिंह ने तुम्हारे साथ क्या सलूक किया।

तथापि गुलाबसिंह पर शक करने की इच्छा नहीं होती क्योंकि वह बड़ा नेक और ईमानदार आदमी है तथा हमारे घर के कई एहसान भी उसके ऊपर हैं यदि वह माने, यों तो आदमी का ईमान बिगड़ते देर नहीं लगती क्योंकि आदमी का शैतान हरदम आदमी के साथ रहता है।

इन्दु० : ठीक है, अच्छा मैं भी अपना हाल कह सुनाऊँगी मगर पहिले यह सुन लूँ कि क्योंकर यहाँ आई और क्योंकर तुमने मुझे दुश्मनों के हाथ से बचाया है।

बिमला : हाँ-हाँ, मैं कहती हूँ सुनो, अच्छा यह बताओ कि तुम उन दुश्मनों को जानती हो जिनके हाथ में फंसी थीं?

बिमला : वे महाराज शिवदत्त के आदमी थे!

इन्दु० : ओफ ओह, जिसके खौफ से हम लोग भागे हुए थे! मगर अभी तुम कह चुकी हो कि तुमने मुझे भूतनाथ के हाथ से बचाया है।

बिमला : हाँ, बेशक वैसा भी कह सकते हैं क्योंकि भूतनाथ तो हम लोगों का सबसे बड़ा दुश्मन ठहरा, मगर इधर तुम शिवदत्त ही के आदमियों के हाथ में फँसी थीं। इत्तिफाक से हम लोग भी उसी समय वहाँ जा पहुँचे और लड़-भिड़ कर उन लोगों के हाथ से तुम्हें छुड़ा लाए। बस यही तो मुख्तसर हाल है।

इन्दु० : (आश्चर्य से) तुममें इतनी ताकत कहाँ से आ गई कि उन लोगों से लड़ कर मुझे छुड़ा लाईं?

बिमला : (मुस्कराती हुई) हाँ इस समय मुझमें इतनी ताकत है, मेरे पास दो ऐयार हैं तभी बीस-पचीस सिपाही भी रखती हूँ।

इन्दु० : तो ये सब तुम्हारे बाप या ससुर को नौकर होंगे? जरूरत पड़ने पर तुम्हें उनसे इजाजत लेनी पड़ती होगी?

बिमला : (एक लम्बी साँस लेकर) नहीं बहिन, ऐसा नहीं है। हम दोनों अपने घर और ससुराल से मंजिलों दूर पड़े हुए हैं। हम लोगों की किसी को कुछ खबर ही नहीं बल्कि यों कहना कुछ अनुचित न होगा कि अपने नातेदारों के खयाल से हम दोनों बहिनें मर चुकी हैं और किसी को खोजने या पता लगाने की भी जरूरत नहीं।

इन्दु० : (आश्चर्य से) तुम्हारी बातें तो बड़ी ही विचित्र हो रही हैं, अच्छा तो तुम यहाँ किसके भरोसे पर बैठी हो और तुम्हारा मददगार कौन है?

बिमला : यह बहुत ही गुप्त बात है, तुम भी किसी से इसका जिक्र न करना, मैं यहाँ इन्द्रदेव के भरोसे पर हूँ, वही मेरे मददगार हैं और यह उन्हीं का स्थान है, वही मेरे बाप हैं, वही मेरे ससुर हैं, और वही इस समय वही मेरे पूज्य इष्टदेव हैं?

इन्दु० : कौन इन्द्रदेव?

बिमला : वही तिलिस्मी इन्द्रदेव! मेरे ससुर के सच्चे मित्र!!

इन्दु० : (सिर हिलाकर) आश्चर्य! आश्चर्य!! और तुम्हारे ससुर को इस बात की खबर नहीं है।

बिमला : हाँ बिलकुल नहीं है।

इन्दु० : यह कैसी बात है?

बिमला : ऐसी ही बात है। मैं जो कह चुकी कि उन लोगों के ख्याल से हम दोनों इस दुनिया में नहीं हैं।

इन्दु० : आखिर उन्हें इस बात का विश्वास कैसे हुआ कि जमना और सरस्वती मर गईं?

बिमला : सो मैं नहीं जानती क्योंकि यह कार्रवाई इन्द्रदेवजी की है। मैं सूर्यमासी (इन्द्रदेव की स्त्री) के यहाँ न्योते में आई थी, उसी जगह उन्होंने (इन्द्रदेव ने) मुझे गुप्त भाव से बताया कि भूतनाथ ने मेरे पति के साथ कैसा सलूक किया। मालूम होते ही मेरे तन-बदन में आग-सी लग गई और मैंने उसी समय उनके सामने प्रतिज्ञा की कि ‘भूतनाथ से इसका बदला जरूर लूँगी; (एक लम्बी साँस लेकर) गुस्से में प्रतिज्ञा तो कर गई मगर जब बिचारा तो कहाँ मैं और कहाँ भूतनाथ।

पहाड़ और राई का मुकाबला कैसा? ऐसा ख्याल आते ही मैं इन्द्रदेव के पैरों पर गिर पड़ी और बोली कि ‘मेरी इस प्रतिज्ञा की लाज आपको है, बिना आपकी मदद के मेरी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकती और वैसी अवस्था में मुझे आपके सामने भी ही प्राण दे देना पड़ेगा’ इत्यादि।

इन्द्रदेव को भी इस अनुचित घटना का बड़ा दुख था परन्तु मेरी उस अवस्था ने उन्हें और दुःखित कर दिया तथा मेरी प्रार्थना पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया बल्कि मेरी प्रतिज्ञा पूरी करना उन्होंने आवश्यक और धर्म समझ लिया। बस फिर क्या था, मेरे मन की भई! जैसा कि मैं चाहती थी उससे बढ़ कर उन्होंने मुझे मदद दी और सच तो यह है कि उनसे बढ़ कर इस दुनिया में मुझे कोई मदद दे ही नहीं सकता। खैर मैं खुलासा हाल फिर कभी सुनाऊँगी, मुख्तसर यह है कि उन्होंने हर प्रकार की मदद करने का बन्दोबस्त करके हम दोनों को समझाया कि अब किस तरह की जिन्दगी हम दोनों को अख्तियार करनी चाहिए।

सबसे पहले इन्द्रदेवजी ने यही बताया कि ‘प्रकट में तुम दोनों बहिनों को इस दुनिया से उठ जाना चाहिए अर्थात् तुम्हारे रिश्तेदार के साथ-ही-साथ और सभों को यह मालूम हो जाना चाहिए कि जमना और सरस्वती मर गईं। यह बात मुझे पसन्द आई। आखिर इन्द्रदेव ने हम दोनों की सूरत बदलकर रहने और अपना काम करने का बन्दोबस्त करके न मालूम हमारे रिश्तेदारों को कैसे क्या समझा दिया और क्योंकर विश्वास दिला दिया कि सब कोई हमारी तरफ से निश्चिन्त हो गए, उनकी इच्छानुसार बहुत ही गुप्त भाव से हम दोनों यहाँ कला और बिमला के नाम से रहती हैं। जो लोग हमारे साथ हैं वे सब इन्द्रदेव के आदमी हैं मगर उनको भी यह नहीं मालूम है कि हम दोनों वास्तव में जमना और सरस्वती हैं!

इन्दु० : (आश्चर्य से) क्या तुम्हारे घर में जितने आदमी है उनमें से किसी को भी तुम्हारा सच्चा हाल मालूम नहीं है?

बिमला : किसी को भी नहीं।

इन्दु० : तो फिर मेरे बारे में तुमने लोगों को क्या समझाया है?

बिमला : मैंने यह किसी को भी नहीं कहा कि तुम मेरी रिश्तेदार हो, केवल यही कहा है कि तुम्हें भूतनाथ तथा शिवदत्त के हाथ से बचाना हमारा धर्म है। अस्तु अब उचित यही है कि हमारी तरह तुम भी अपनी सूरत बदल कर यहाँ रहो और अपने दुश्मनों से बदला लो, हम लोगों का बाकी हालचाल तुम्हें आप ही धीरे-धीरे मालूम हो जायगा।

इन्दु० : ठीक है, और जैसा तुम कहती हो मैं वैसा ही करूँगी, मगर (सिर झुका कर) मेरे पति का मुझसे...

बिमला : (बात काट कर) नहीं-नहीं उनके बारे में तुम कुछ भी चिन्ता मत करो, आज मैं उनको तुम्हें जरूर दिखा दूँगी और फिर ऐसा बन्दोबस्त करूँगी कि तुम दोनों एक साथ...

इन्दु० : (प्रसन्न होकर) इससे बढ़ कर मेरे लिए और कोई दूसरी बात नहीं हो सकती, मगर यह तो बताओ कि इस समय वे कहां हैं?

बिमला : (मुस्कराती हुई) इस समय वे मेरे ही घर में हैं और मेरे कब्जे में हैं,

इन्दु० : (घबड़ा कर) यह कैसी बात है? अगर यहीं हैं तो मुझे दिखाओ।

बिमला : मैं दिखाऊँगी, मगर जरा रुकावट के साथ।

इन्दु० : सो क्यों?

बिमला (कुछ सोच कर) अच्छा चलो पहिले मैं तुम्हें उनके दर्शन करा दूँ फिर सलाह विचार कर के जैसा होगा देखा जाएगा। मगर इस सूरत में मैं तुम्हें उनके सामने न ले जाऊँगी।

इन्दु० : सो क्यों?

बिमला : तुम अपनी सूरत बदलो और इस बात का वादा करो कि जब मैं उनके सामने तुम्हें ले जाऊँ तो चुपचाप देख लेने के सिवाय उनके सामने एक शब्द भी मुँह से न निकालोगी।

इन्दु० : आखिर इसका सबब क्या है?

बिमला : सबब पीछे बताऊँगी।

इन्दु० : अच्छा तो फिर जो कुछ तुम कहती हो मुझे मंजूर है।

‘‘अच्छा लो मैं बन्दोबस्त करती हूँ।’’ यह कह कर बिमला उठी और कुछ देर के लिए कमरे के बाहर चली गई।

जब लौटी तो उसके हाथ में एक छोटी-सी सन्दूकड़ी थी, उसी में से सामान निकाल कर उसने इन्दुमति की सूरत बदली और वैसी ही एक झिल्ली उसके चेहरे पर भी चढ़ाई जैसी आप पहरे हुए थी। जब हर तरह से सूरत दुरुस्त हो गई तब हाथ का सहारा देकर उसने इन्दु को उठाया और कमरे के बाहर ले गई।

कमरे के बाहर एक दालान था जिसके एक बगल में तो ऊपर की मंजिल में चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं तथा उसी के बगल में नीचे उतर जाने का रास्ता था और दालान के दूसरी तरफ बगल में सुरंग का मुहाना था मगर उसमें मजबूत दरवाजा लगा हुआ था। इन्दु को उसी सुरंग में बिमला के साथ जाना पड़ा।

सुरंग बहुत छोटी थी, तीस-पैंतीस कदम जाने के बाद उसका दूसरा मुहाना मिल गया जहाँ से सुबह की सुफेदी निकल आने के कारण मैदान की सूरत दिखाई दे रही थी। जब इन्दुमति वहां हद्द पर पहुँची तब उसकी आँखों के सामने वही सुन्दर घाटी या मैदान तथा बंगला था जिसका हाल हम इस भाग के चौथे बयान में लिख आए हैं या यों कहिए कि जहाँ पर एक पेड़ के साथ लटकते हुए हिंडोले पर प्रभाकरसिंह ने तारा को बैठा देखा था।

वही त्रिकोण घाटी और वही सुन्दर बंगला जिसके चारों कोनों पर मौलसिरी (मालश्री) के पेड़ थे इन्दुमति की आँखों के सामने था जिन्हें वह बड़े गौर से देख रही थी बल्कि यों कहना चाहिए कि वहाँ की सुन्दरता और कुदरती गुलबूटों ने इन्दु की निगाह पड़ने के साथ ही लुभा लिया और इसके साथ ही प्रभाकरसिंह की याद ने आँसू बनकर निगाह के आगे पर्दा डाल दिया।

आँखें साफ करके वह हरएक चीज को गौर से देखने लगी। इसी बीच एक चट्टान पर बैठे हुए प्रभाकरसिंह पर उसकी निगाह पड़ी जिनके चारों तरफ कुदरती सुन्दर पौधे और खुशरंग फूलों के पेड़ बहुतायत से थे जो उदास आदमी के दिल को भी अपनी तरफ खींच लेते थे और जिन पर सूर्य भगवान की ताजी-ताजी किरणें पड़ रही थीं।

आह, प्रभाकरसिंह को देख कर इन्दुमति की कैसी अवस्था हो गई यह लिखना हमारी सामर्थ्य के बाहर है।

कुछ देर तक एकटक उनकी तरफ देखती रही। न तो वहाँ से नीचे की तरफ उतरने का कोई रास्ता था और न वह यही जानती थी कि वहां तक क्योंकर पहुँच सकेगी, अस्तु वह बेचैन होकर घूमी और यह कहती हुई बिमला के गले से लिपट गई कि ‘बहिन, तुम बेशक तिलिस्म की रानी हो गई हो’!

बिमला : बहिन, घबड़ाओ मत, जरा गौर से देखो तो...

इन्दु० : (बिमला को छोड़कर) तो क्या जो कुछ मैं देख रही हूँ केवल भ्रम है?

बिमला : नहीं, ऐसा नहीं है।

इन्दु० : तो फिर यह स्थान किसका है?

बिमला : इस समय तो मेरा ही है।

इन्दु० : तो क्या ये भी तुम्हारे मेहमान हैं?

बिमला : बेशक।

इन्दु० : कब से?

बिमला : कई दिनों से, या यों कहो कि जब से तुम आई हो उससे भी पहिले...

इन्दु० : (आश्चर्य, दुःख और क्लेश से) तब तुमने इनसे मुझे मिलाया क्यों नहीं बल्कि हाल तक नहीं कहा, ऐसा क्यों?

बिमला : इसके कहने का मौका ही कब मिला! आज ही तो इस योग्य हुई हो कि कुछ बातें कर सकूँ। इसके अतिरिक्त तुम्हारी मुलाकात के बाधक वे स्वयं भी हो रहे हैं। जिस तरह तुम मेरा साथ दिया चाहती हो उस तरह वे मेरा साथ नहीं दिया चाहते हैं, जिस तरह तुमसे मुझे उम्मीद है उस तरह उनसे नहीं, जिस तरह तुम मेरा पक्ष कर सकती हो और करोगी उस तरह वे नहीं करते बल्कि आश्चर्य यह है कि वे भूतनाथ के पक्षपाती हैं और इसी बात का उन्हें हठ है, फिर तुम ही सोचो कि मैं क्योंकर...

इन्दु० : (जोर देकर) नहीं बहिन! ऐसी भला क्या बात है। उन्हें सच्चे मामले की खबर न होगी!

बिमला : सब कुछ खबर है। इसी वास्ते मैं उन्हें यहाँ लाई थी और भूतनाथ के कब्जे से पहिले ही दिन, जब तुम लोग सुरंग में घुसे थे छुड़ाने का उद्योग किया था परन्तु खेद है कि वे (प्रभाकरसिंह) तो मेरे कब्जे में आ गए और तुम आगे निकल गई जिससे तुम्हें इतना कष्ट भी भोगना पड़ा।

इन्दु० : (आश्चर्य) सो कैसी बात? तुम्हीं ने उन्हें मुझसे जुदा किया था? बिमला : हाँ ऐसा ही है। (हाथ का इशारा करके) बस इसी घाटी के बगल ही में उस तरफ भूतनाथ का स्थान है, रास्ता भी करीब-करीब मिलता-जुलता है। भूतनाथ की घाटी में जाने के लिए जो रास्ता या सुरंग है उसी में से एक रास्ता और भी है जिससे प्रायः हम लोग आया-जाया करते हैं। जिस समय तुम लोग भूतनाथ के साथ सुरंग में घुसे थे उस समय मैं देख रही थी।

इन्दु० : फिर तुमने कैसे उन्हें बुला लिया?

इसके जवाब में बिमला ने खुलासा हाल जिस तरह प्रभाकरसिंह को सुरंग के अन्दर धोखा देकर अपने कब्जे में ले आई थी बयान किया जो कि हम चौथे बयान में लिख चुके हैं।

अब हमारे पाठक समझ गये होंगे कि भूतनाथ के पीछे-पीछे सुरंग के अन्दर चलने वाले प्रभाकरसिंह को जिन्होंने धोखा देकर गायब किया वे बिमला और कला यही दोनों बहिनें थीं और यह काम उन्होंने नेकनीयत के साथ किया था ऐसा ही इन्दुमति का विश्वास है।

खुलासा हाल सुनकर इन्दुमति कुछ देर तक चुप रही फिर बोली—

इन्दु० : अच्छा यह बताओ कि मेरे आने की उन्हें खबर भी है या नहीं?

बिमला : कुछ-कुछ खबर है! तुम्हारे लिए वे बहुत ही बेचैन हैं, कलपते हैं, रोते हैं, मगर फिर भी भूतनाथ का पक्ष नहीं छोड़ते।

इन्दु० : तुमने अपने को उन पर प्रकट कर दिया?

बिमला : हां, भेद छिपा रखने की कसम खिला कर मैं उन्हें बतला दिया कि हम दोनों बहिनें जमना और सरस्वती हैं जिसे जान कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए मगर इस बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि भूतनाथ मेरे पति के घातक हैं, गुलाबसिंह भूतनाथ का दोस्त है और गुलाबसिंह पर उन्हें पूरा विश्वास है।

इन्दु० : अच्छा तुम मुझे उनके सामने ले चलो, देखें वे क्योंकर राजी नहीं होते और कैसे तुम्हारा साथ नहीं देते।

बिमला : मुझे इसमें कोई उज्र नहीं है मगर तुम हर एक बात को अच्छी तरह सोच-विचार लो।

इन्दु० : (जोर देकर) कोई परवाह नहीं, तुम वहाँ चलो, (कुछ सोच के) मगर मैं अपनी असली सूरत में उनके सामने जाऊँगी!

बिमला : जैसी तुम्हारी मर्जी। चलो पीछे की तरफ लौटो, एक सुरंग के रास्ते पहिले (उंगली का इशारा करके) उस बीच वाले बंगले में पहुँचना होगा तब उनके पास जा सकोगी।

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