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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


दारोगा की सूरत बने हुए प्रभाकरसिंह को बाहर छोड़ भैयाराजा, मेघराज और भूतनाथ जिस समय अजायबघर में घुसे उस समय इन सभों की ही सूरत बदली हुई थीं इस कारण प्रभाकरसिंह के पिता-माता तथा बहूरानी को यह नहीं मालूम हो सका कि ये लोग कौन हैं। इनके अतिरिक्त भूतनाथ (नन्दराम) ने सुभीते के खयाल से उन सभों को हथकड़ी-बेड़ी हटने के पहिले ही बेहोश कर दिया जिससे उन्हें यह भी न मालूम हुआ कि आने वालों ने हमारे साथ क्या बर्ताव किया परन्तु इस समय होश आने पर अपने को किसी दूसरी जगह और हथकड़ी-बेड़ी से खाली पाकर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा क्योंकि उन सभों के होश मं- आने का इन्तजाम करने के बाद मेघराज, प्रभाकरसिंह वगैरह अपनी-अपनी नकली सूरतें साफ करने के लिए बाहर चले गए थे।

देर तक बहुत कुछ सोचने-विचारने पर भी जब उन लोगों को अपनी स्वतंत्रता का कोई कारण समझ में न आया तो बहूरानी ने नन्दरानी से पूछा, ‘‘भाभी, मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि हम लोग यहाँ क्योंकर आ गए अथवा हमारे हाथ-पैर क्यों खुले हुए हैं, यदि तुमको मालूम हो तो कहो।’’

नन्द० : नहीं मुझे भी कुछ नहीं मालूम है बल्कि यही बात तो मैं तुमसे पूछने वाली थी। (दिवाकरसिंह की तरफ देख कर) शायद आपको कुछ मालूम हो?

दिवाकर० : हम लोग तो सब साथ ही हैं, भला तुमसे ज्यादा मुझे कैसे मालूम हो सकता है। उस कैदखाने में जिस समय चार-पाँच आदमी हमारे पास आए थे उस समय मैं बेहोश हो गया था और अब जो आँख खुली तो अपने को यहाँ पाता हूँ, बस इसके सिवाय मैं कुछ नहीं जानता।

नन्द० : ठीक है परन्तु जहाँ तक मैं समझती हूँ इसमें कुछ भेद अवश्य है। और कुछ नहीं तो इतना जरूर ही है कि अब हम लोग निर्दयी दारोगा के हाथ से निकल आए नहीं तो वह हमें हथकड़ी-बेड़ी से खाली कदापि न रखता...

नन्दरानी अभी अपनी बात पूरी भी न कह पाई थी कि प्रभाकरसिंह दयाराम को साथ लिए खोह में पहुँचे। नजर मिलते ही खून ने जोश मारा और प्रभाकरसिंह झपटकर अपने पिता के पैरों पर गिर पड़े तथा न रुकने वाले आँसुओं की धारा से उनके चरण धोने लगे।

दिवाकरसिंह और नन्दरानी को यद्यपि कैदखाने के कष्टों ने इस योग्य न छोड़ा था कि वे एक कदम भी उठकर चल सकते परन्तु चिरकाल के बिछुड़े हुए अपने प्यारे पुत्र को देखकर उनके टूटे हुए शरीर में भी बल आ गया, उन्होंने प्रभाकरसिंह के सर को उठा कर हृदय से लगा कर उन्हें प्यार किया।

इसके बाद सब लोग एक उचित स्थान पर बैठ गए और बड़ी उत्कंठा के साथ हाल सुनने के लिए एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे, मगर देर तक खुशी और प्रेम ने उनका गला ऐसा दबाये रक्खा कि किसी तरह की बातचीत होने न पाई।

हम नहीं कह सकते कि इस समय प्रभाकरसिंह और उनके माता-पिता की क्या दशा थी या उनके कोमल चित्तों पर क्या असर हो रहा था, फिर भी यह कहे बिना जी नहीं मानता कि इस समय उनकी खुशी का अन्दाजा करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है।यद्यपि इस समय बिल्कुल सन्नाटा है और किसी के मुंह से एक शब्द भी निकलता सुनाई नहीं देता, तथापि आँखों का काम बन्द नहीं है जो इशारों ही में परस्पर बातें करती हुई अपने बीते दुःख-दर्द की कहानी एक-दूसरे पर प्रकट कर रही हैं। प्रभाकरसिंह के माता-पिता की आँखों से आँसुओं की एक धारा अब तक जारी है जिसको प्रभाकरसिंह बड़े प्यार के साथ अपने रूमाल से पोछ रहे हैं। लगभग एक घड़ी यों ही व्यतीत हो गई और किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकलता परन्तु आखिर प्रभाकरसिंह बोले—

प्रभाकर : पिताजी, आज परमात्मा ही की दया से यह समय प्राप्त हुआ है कि हम लोग अपनी सभी आपदाओं को स्वप्नवत् जान कर भूल जायँ और...

दया० : (बात काट कर) बेशक-बेशक, एक वह दिन था कि हम लोग आप लोगों को मृतक समझते थे और स्वप्न में भी यह आशा नहीं कर सकते थे कि फिर अपनी आँखों से कभी आप लोगों का दर्शन करेंगे (आकाश की तरफ देखकर) परमेश्वर, तू धन्य है! तूने वह दिन दिखलाया जिसके देखने की कभी आशा न थी।

दिवाकर : (कुछ देर बाद प्रभाकरसिंह से) हाँ यह तो कहो, इन्दु कहाँ और कैसी है?

प्रभाकर० : वह कुशलतापूर्वक इन्द्रदेवजी के उस स्थान में हैं जो उन्होंने हम लोगों को रहने के लिए दे रक्खा है।

दिवा० : क्या तुम लोग आजकल इन्द्रदेव के पास रहते हो?

प्रभा० : जी हाँ।

दिवा० : शिवदत्त के यहाँ से क्यों चले आए?

प्रभा० : पिताजी, वह बड़ा ही कमीना आदमी है और सज्जनों तथा वीर पुरुषों का आदर करना नहीं जानता, इसलिए उसकी मातहती में रहने का मेरा जी नहीं चाहा।

दिवा० : चलो अच्छा हुआ कि तुम्हारा चित्त आप-से-आप ही हट गया, मैं भी यही चाहता था।

नौकरी छोड़ कर शिवदत्त के पास से चले आने का असली हाल प्रभाकरसिंह अपने पिता से ठीक-ठीक नहीं बताना चाहते थे।

इसलिए बातें बना कर टाल तो दिया परन्तु अपने पिता का उत्तर सुन उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और सोचने लगे कि पिताजी तो सदा शिवदत्त की प्रशंसा किया करते थे, परन्तु आज कैदखाने से छूटकर उसके विरुद्ध बात क्यों कहते हैं? अवश्य इसमें कोई भेद है जो कदाचित् पिताजी का किस्सा सुनने से खुले। यह सोच इन्होंने अपने पिता से कहा, ‘‘यदि आपको कष्ट न हो तो अपना हाल हम लोगों को सुनाइए जिसको सुनने के लिए मेरी तबीयत घबड़ा रही है।’’ परन्तु दयाराम ने इस समय उनके किस्से को सुनना पसन्द न किया और कहा, ‘‘जबतक इन्द्रदेव, भैयाराजा अथवा भूतनाथ इत्यादि इकट्ठा न हो लें इनका किस्सा सुनना उचित नहीं है।

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