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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

अठारहवाँ बयान


बेगम के मकान से निकल कर मनोरमा सीधी अपने मकान की तरफ रवाना हुई और बहुत ही शीघ्र वहाँ जा पहुँची।

जिस मकान में हमारे पाठक पहिले मनोरमा को देख चुके हैं या जहाँ निरंजनी के नाम से इसका परिचय दिया जा चुका है अथवा जहाँ पर इसने ध्यानसिंह की लड़की ज्वाला को कैद किया हुआ था वह मकान अब इसके रहने के काम में नहीं आता। इसने उस मकान के पास ही एक दूसरे बड़े मकान पर अपना कब्जा किया और उसी में रहने लगी है मगर गुप्त रीति पर, प्रकट में अब भी वह पहिला मकान इसके पास है और इस समय वह उसी में गई भी है।

दरवाजे पर पहुंचते ही मनोरमा को वह लड़का मिला जो इसे मौसी कह के सम्बोधन करता था और जिसका नाम प्रताप था। मनोरमा ने उससे दो-चार बातें कीं और फिर उसे साथ में लिए हुए मकान के अन्दर जाकर एक कमरे में पहुँची जहाँ वे दोनों सवार, जो उसके साथ आए थे, बैठे हुए उसका इन्तजार कर रहे थे।

मनोरमा को देख वे दोनों उठ खड़े हुए और उसके बैठ जाने पर सामने बैठ गए। प्रताप भी मनोरमा की आज्ञानुसार उसके बगल में बैठ गया।

मनोरमा : (उन दोनों में से एक की तरफ देख कर) अच्छा गोविन्द, अब मुझे कुछ देर के लिए फुरसत है, तुम अपना हाल सुनाओ कि क्या हुआ और अब तक तुम कहाँ गायब रहे या किसकी कैद में पड़ गए थे!

गोविन्द : (अपने साथी की तरफ बता कर) जी मेरी बनिस्बत ये सब हाल अच्छी तरह कह सकेंगे क्योंकि इन्हें मुझसे ज्यादा खबर है।

मनो० : (दूसरे की तरफ देख कर) अच्छा मायासिंह तुम्हीं कहो।

माया : बहुत अच्छा, यह तो आप जानती ही होंगी कि हम दोनों ऐयार छन्नो जी का काम किया करते थे।

मनो० : हाँ, यह मुझे मालूम है।

माया : मगर शायद आप यह बात न जानती होंगी कि उन्होंने (छन्नो ने) अब आपका साथ छोड़ जमना तथा सरस्वती की मदद करने का इरादा कर लिया है। जिस समय हम लोग गिरफ्तार हुए हैं उस समय के कुछ ही पहिले उन्होंने अपना इरादा हम लोगों पर जाहिर किया था।

मनो० : (चौंक कर) क्या यह तुम ठीक कह रहे हो? क्या छन्नो जमना-सरस्वती की मदद पर तैयार हो गई है?

माया : हाँ, अगर तैयार नहीं हो गई हैं तो ऐसा करने का पक्का इरादा उन्होंने जरूर कर लिया है।

मनो० : (कुछ सोचती हुई, धीमे स्वर में) बेशक ऐसा ही हुआ होगा। इसी से बहुत दिनों से वह मुझसे मिलने भी नहीं आई! (आप ही आप) तो कहीं दयाराम का दारोगा साहब की कैद से निकल जाना भी तो उसी...।(रुक कर) खैर कम्बख्त जाती कहाँ है, समझूँगी उससे? (मायासिंह से) हाँ तो तुम क्या कह रहे थे?

माया : छन्नोजी पहिले किसी समय जमना-सरस्वती के ससुराल में अर्थात् रणधीरसिंह के यहाँ उन दोनों की सखी के ढंग पर रहती थीं मगर जब उन दोनों अर्थात् जमना-सरस्वती के मरने की खबर फैली तो इन्होंने भी वह घर छोड़ दिया।

मनो० : हाँ ठीक है, मुझे यह बात मालूम है, परन्तु छन्नों यद्यपि अब रणधीरसिंहजी के यहाँ रहती नहीं है तथापि कभी-कभी जाती जरूर हैं क्योंकि...

माया : हाँ, अब भी वह कभी-कभी वहाँ जाती है। खैर तो उसी पिछली मित्रता के कारण छन्नोंजी जमना-सरस्वती की मदद करने पर तैयार हुईं और आपसे तथा और भी कितने आदमियों से मिल-जुल कर उन्होंने दयाराम-विषयक कई नई बातों का पता लगाया।

मनो० : (कुछ रंज के साथ) बेशक ऐसा ही है।

माया : मगर इस काम में उन्हें कुछ ऐयारी मदद की जरूरत पड़ी और उन्होंने हमें अपनी मदद के लिए कहा तथा कई तरह के लालचें दीं जिससे हम लोग उनका काम करने के लिए तैयार हो गए, मगर उन्होंने यह बात बहुत ही गुप्त रखने की आज्ञा दी थी जिससे हम आप पर इस बात को प्रकट न कर सके और उसके लिए अब क्षमा चाहते हैं।

मनो० : नहीं-नहीं, इसमें माफी माँगने की क्या जरूरत है? तुम लोग कुछ मेरे ऐयार या ताबेदार तो थे नहीं जो सब बातें मुझे बताते! मैं तो तुमको पहिले से जानती भी नहीं थी, इसी छन्नों के ही सबब से मेरी तुम लोगों से जान-पहिचान हुई। अच्छा तो खैर, तुम लोगों से छन्नों ने किस काम में मदद ली?

माया : उन्हें इस बात का पता लग गया था कि दयाराम जमानिया में दारोगा साहब की कैद में हैं...

मनो० : (चौंककर) किसकी कैद में! दारोगा साहब की! उसको ऐसा पता लगा था?

माया : जी हाँ, और वे हम लोगों की सहायता से उनको दारोगा साहब की कैद से छुड़ाया चाहती थीं, मगर बीच ही में एक धूर्त ऐयार ने हम लोगों को गिरफ्तार कर लिया और जब से आज ही हम लोगों को बाहर की हवा नसीब हुई है, इस बीच में क्या कुछ हो गया इसकी हमें कुछ भी खबर नहीं।

इतना कह कर मायासिंह ने भूतनाथ द्वारा अपने कैद किए जाने का वह हाल मनोरमा से कहा जिसे पाठक पाँचवें भाग के तीसरे बयान में पढ़ चुके हैं, पूरा हाल कह चुकने के बाद वह बोला, ‘‘उस समय से आज तक हम लोग कैद ही में रहे, आज एक विचित्र ढंग पर हम लोगों का छुटकारा हुआ और बाहर निकलने पर मालूम हुआ कि हम गदाधरसिंह की लामाघाटी में कैद थे।

मनो० : तो अवश्य तुम लोगों को गदाधरसिंह ही ने कैद भी किया होगा...

माया : जी हाँ, तब और क्या? उसी ने तो हम लोगों को...

बाहर से किसी लौंडी के खाँसने की आवाज सुन कर मनोरमा ने हाथ के इशारे से मायासिंह को रोका और बगल में बैठे हुए प्रताप की तरफ झुक कर धीरे से कहा, ‘‘कोई बुला रहा है, जाकर देखो तो कौन है और क्या कहता है?’’

प्रताप उठ कर कमरे के बाहर चला गया और थोड़ी ही देर में लौट आकर बोला, ‘‘आपसे मिलने के लिए गदाधरसिंह आए हैं और बाहर खड़े हैं।

भूतनाथ के आने का हाल सुनते ही मनोरमा चौंक पड़ी और मन-ही-मन बोली, ‘‘इस समय उसका यहाँ पहुँचना जरूर मतलब से खाली नहीं है।

उसने गोविन्द और मायासिंह की तरफ देखा और कहा, ‘‘तुम दोनों ने सब हाल साफ-साफ मुझसे कह दिया इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता है। यदि तुम मेरा साथ देना चाहो तो मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ, तुम लोग यहाँ रह कर मेरा काम कर सकते हो।’’

माया : हम लोग बड़ी खुशी से आपकी सेवा करने को तैयार हैं, जो आज्ञा हो सो करें।

मनोरमा : अच्छा तो इस समय तुम लोग जाओ, फिर कभी मैं तुमसे खुलासा तौर पर बातें करूँगी और काम बताऊँगी। (प्रताप की तरफ देख कर) तुम इनके साथ चले जाओ और इनका सब इन्तजाम कर दो। (पास बुला कर धीरे से) देखो पिछले रास्ते से इन दोनों को ले जाओ जिसमें भूतनाथ की निगाह न पड़े।

प्रताप ने ‘बहुत अच्छा’ कह कर गोविन्द और मायासिंह की तरफ देखा और दोनों भी उठ कर खड़े हो गए। प्रताप उनको लेकर कमरे के बाहर हुआ ही चाहता था कि यकायक् भूतनाथ स्वयम् वहाँ आ पहुँचा और उनकी राह रोक कर खड़ा हो गया।

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