लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3

भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

421 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

अठारहवाँ बयान


इन्द्रदेव के चले जाने के बाद कुछ देर तक मेघराज और नकली प्रभाकरसिंह (भूतनाथ) में उन्हीं के विषय में बातें होती रहीं, इसके बाद मेघराज उठकर अपने रहने के स्थान पर, जो सामने की छोटी पहाड़ी पर बना हुआ एक खूबसूरत बँगला था, चले गये और भूतनाथ उसी जगह बैठा हुआ तरह-तरह की बातें सोचने लगा। यद्यपि भूतनाथ को इस घाटी में आये ज्यादा देर न हुई थी पर इसी बीच में अपनी चालाकी और धूर्तता की बदौलत वह यहाँ की बहुत-सी बातें जान चुका था और यह भी समझ गया था कि प्रभाकरसिंह अपने माता-पिता और स्त्री के साथ उसी स्थान में रहते हैं जहाँ वह इस समय बैठा हुआ है तथा मेघराज सामने वाले बँगले में रहते हैं पर अभी तक वह यह न जान सका था कि यह मेघराज वास्तव में कौन हैं क्योंकि इन्द्रदेव की आज्ञानुसार मेघराज ने अपनी असली नाम (दयाराम) बिल्कुल ही छोड़ दिया था और घर पर भी मेघराज ही के नाम से पुकारे जा रहे थे।इसी तरह उनकी स्त्रियाँ जमना और सरस्वती भी अपने को बराबर छिपाए रहती थीं। यही कारण था कि इस स्थान पर आकर भी भूतनाथ को अभी तक इस बात का पता न लगा था कि मेघराज वास्तव में कौन है और वह इस बात को जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था। जमना और सरस्वती के वहाँ होने का भी अभी तक उसे गुमान न था क्योंकि मेघराज की बातचीत में अभी तक उनका जिक्र एक बार भी नहीं आया था।

इन्द्रदेव का यहाँ पर आना भूतनाथ के लिए बहुत ही दुःखदायी हुआ था क्योंकि वह वास्तव में उनसे डरता था और समझता था कि उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई कर वह पार न पा सकेगा। इस समय मेघराज का असली हाल जानने का ढंग सोचने के साथ ही साथ वह इस सोच में भी पड़ा हुआ था कि किस प्रकार मेरा काम जल्दी हो और मैं इस विचित्र स्थान और इन्द्रदेव की पहुँच के बाहर हो जाऊँ।

संध्या के होने के कुछ ही देर बाद भूतनाथ तबियत खराब होने का बहाना कर सोने के कमरे में चला गया और दरवाजा भीतर से बन्द कर पलंग पर जा लेटा। थोड़ी देर बाद इन्दुमति वहाँ आई परन्तु दरवाजा बन्द पा और अपने पति को थकावट के कारण निद्रा के वशीभूत समझ वापस लौट गई।

रात आधी से ज्यादा बीत गई थी जब भूतनाथ दबे पाँव अपने कमरे से निकल कर काले कपड़े में अपने को छिपाये बँगले के बाहर निकल एक पेड़ की आड़ में खड़ा हो गया।

चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और यद्यपि चन्द्र भगवान की शीतल किरणों से वह स्थान दिन का मुकाबला कर रहा था पर तो भी वहाँ कोई नजर नहीं आता था हवा बन्द थी और चारों तरफ के पेड़ निःशब्द खड़े थे।

लगभग दस मिनट तक चुपचाप खड़ा भूतनाथ सामने की पहाड़ी की तरफ देखता रहा जिस पर मेघराज रहते थे, इसके बाद वहाँ से आगे बढ़ा और बड़ी होशियारी के साथ अपने को पेड़ों की छाया में छिपाता हुआ उसी तरफ बढ़ा।

धीरे-धीरे चलता हुआ भूतनाथ उस पहाड़ी के नीचे पहुँच गया और अब ऊपर चढ़ने का इरादा कर ही रहा था कि यकायक किसी प्रकार की आहट पा रुक गया। जब बहुत देर तक खड़े रहने पर भी फिर कोई आवाज सुनाई न दी तो वह पुनः हिम्मत बाँध कर आगे बढ़ा और धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ बंगले के पास पहुँच गया।

यह छोटा-सा दोमंजिला बंगला जिसके सामने भूतनाथ खड़ा था चौकोर और बहुत ही खूबसूरत बना हुआ था। इसके पूरब और दक्खिन तरफ वाली दीवार पर मालती की बहुत ही घनी लता चढ़ी हुई थी जिसके कारण वहाँ एक प्रकार का अंधकार–सा था। भूतनाथ बढ़कर इसी लता की आड़ में हो गया और खड़ा सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिये।

जिस जगह भूतनाथ खड़ा था उसके पीछे दीवार में एक खिड़की थी जो शायद किसी कमरे या कोठरी में पड़ती होगी, भूतनाथ की कोहनी का धक्का लगने से यकायक वह खिड़की जो शायद भीतर से बन्द न थी खुल गई और भूतनाथ घूमकर अन्दर की तरफ देखने लगा।

एक कमरा कई तरह के विचित्र सामानों से सजा नजर आया जिन्हें भूतनाथ बड़े गौर और दिलचस्पी के साथ देखने लगा। कमरे की छत के साथ शीशे का एक बड़ा-सा गोला लटक रहा था जिसमें से बहुत ही साफ और तेज रोशनी निकल रही थी। इस रोशनी में कमरे के एक कोने में रक्खी हुई एक विचित्र वस्तु पर भूतनाथ की निगाह पड़ी। वह वस्तु शीशे की आदमी के बराबर ऊँची एक पुतली थी जो एक पैर के सहारे खड़ी दोनों हाथ सिर से ऊँचे किए उधर ही की तरफ देख रही थी।

भूतनाथ उस पुतली की तरफ ताज्जुब के साथ देख ही रहा था कि वह पुतली अपने स्थान पर तेजी के साथ नाचने लगी जिससे उसे बड़ा ताज्जुब हुआ और वह सोचने लगा कि यह क्या मामला है!

लगभग पाँच मिनट तक नाचने बाद वह पुतली रुक गई, साथ ही एक खटके की आवाज आई। वह विचित्र रोशनी जो छत के साथ जल रही थी बुझ गई जिससे कमरे में एकदम अंधकार छा गया। भूतनाथ चौंक कर कुछ पीछे हट गया मगर उसी समय उसने देखा कि उस शीशे वाली पुतली के बदन में से एक विचित्र तरह की चमक निकल रही है जो थोड़ी ही देर में यहाँ तक बढ़ी कि उस कोठरी की चीजें फिर पूर्वलत साफ-साफ दिखाई देने लगीं। पर इस रोशनी में विशेषता यह थी कि उसमें यहाँ की सब चीजें हलके हरे रंग में रंग दी हुई मालूम होती थीं।

भूतनाथ आश्चर्य के साथ यह हाल देख रहा था कि यकायक उस पुतली के पीछे वाली दीवार में कुछ खटके की-सी आवाज आई और वहाँ एक दरवाजा दिखाई देने लगा जिसमें से हाथ में कोई चीज लिए एक औरत बाहर निकली मगर वहाँ की अवस्था देख आश्चर्य-भरी आवाज में धीरे-से बोली, ‘‘हैं, यह क्या मामला है! आज इस जगह नया आदमी कौन आया?’’

भूतनाथ को इस औरत की आवाज पहिचानी-सी मालूम हुई और थोड़े ही गौर से उसे बता दिया कि यह जमना है, मगर इसके साथ ही जमना की निगाह भी उस पर पड़ गई और वह क्रोध-भरी निगाहों से उसकी तरफ देख कर बोली, ‘‘बेशक तू प्रभाकरसिंह कदापि नहीं है। तेरा इस जगह आना ही साबित करता है कि तू यहाँ के मामलों से बिलकुल अनजान और नावाकिफ है। दुष्ट, सच बता तू कौन है!’’

भूत० : (धीमी आवाज में) मैं सचमुच प्रभाकरसिंह ही हूँ।

जमना : (सिर हिलाकर और भूतनाथ के कुछ और पास आकर) नहीं, कदापि नहीं!

भूत० : मगर आखिर क्यों?

जमना : वे इस कोठरी और इसके भेदों से भली-भाँति जानकार हैं और खूब समझते हैं कि इस कोठरी के अन्दर आना या इस खिड़की के पास खड़े होना जहाँ तू इस समय खड़ा है कितना खतरनाक है! दुष्ट, यदि मैं कुछ और सायत तक यहाँ न पहुँचती तो यह पुतली फट जाती और इसके बदन से निकले हुए शीशे के टुकड़े इस कोठरी तथा उस खिड़की तक पहुँच कर जहाँ तू खड़ा है तुझे बिल्कुल बेकार कर देते, मगर मैं यह बात दूर करती हूँ, मुझे तेरा बिल्कुल डर नहीं है क्योंकि अब तो पूरा विश्वास हो गया है कि तू प्रभाकरसिंह नहीं बल्कि विश्वासघाती और अपने मालिक का खून करने वाला गदाधरसिंह है।

इतना कह घूमकर जमना ने कोई ऐसा खटका दबाया जिसके साथ ही छत के साथ लटके हुए शीशे के गोले में से पूर्ववत् चमक निकलने लगी और उस पुतली के बदन से निकलने वाली रोशनी बन्द हो गई। इसके बाद जमना फिर भूतनाथ के पास गई और बोली, ‘‘अब भी तू सच बोल और बता कि तू वास्तव में गदाधरसिंह है या नहीं!

भूत० : मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वास्तव में मैं प्रभाकरसिंह हूँ और यहाँ ऐसे ही घूमता-फिरता आया हूँ।

जमना : नहीं, कदापि नहीं, तू बड़ा भारी झूठा है और मेरा यह सोचना बहुत ठीक है कि तू गदाधरसिंह ही है—वही गदाधरसिंह जिसने धन और सुख के लालच में बड़ा बुरे-से-बुरा काम करने से मुँह नहीं मोड़ा, वही गदाधरसिंह जिसने अपने मालिक, दोस्त और साथी को अपने हाथ से छुरी मारी, और वही गदाधरसिंह जो उनको मार कर भी सन्तोष न पा सका और हम दोनों बहिनों को इस दुनिया से उठा देने की चेष्टा कर चुका तथा कर रहा है!!

भूत० : (क्रोध के कारण लड़खड़ाती हुई आवाज से) क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं वही गदाधसिंह हूँ?

जमना : हाँ तू वही गदाधरसिंह है जो इतना करने पर भी शान्त नहीं हुआ और इस समय भी अपने तीन प्यारे शागिर्दों के साथ ही साथ अपने पुराने दोस्त गुलाबसिंह का भी, जिनकी कृपा का तू किसी समय में अपने को अहसानमन्द समझता था, खून करके चला आ रहा है!

अब भूतनाथ बर्दास्त न कर सका। झपट कर उसने जमना की कलाई पकड़ ली और उसकी चिल्लाहट पर कुछ ध्यान न दे उसे खिड़की के बाहर खींच जमीन पर पटक छाती पर सवार हो खंजर उसके गले पर रख बोला, ‘‘खैर जब मैं वही गदाधरसिंह हूँ तो एक औरत का खून मेरा कोई नुकसान नहीं कर सकता!’’

।। आठवाँ भाग समाप्त ।।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book